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आचार्य अभिनव गुप्त की परंपरा में सनातन भारत का चैतन्य दर्शन

आचार्य अभिनव गुप्त के जयंती के शुभ अवसर पर विशेष लेख

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU

न चित्तं न च मेयं वा न चिन्ता न च चिन्तकः।

चिदेवाद्वयविस्तीर्णं तत्काश्मीरशिवं भजे॥”
(तन्त्रालोक – अभिनवगुप्त)

कश्मीर की बर्फीली चोटियों में जितनी स्थिरता है, उतनी ही गहराई वहाँ की दर्शन परंपरा में है। हिमालय की गोद में बसा कश्मीर केवल भौगोलिक सौंदर्य का प्रतीक नहीं, अपितु भारतीय चैतन्य परंपरा का तीर्थ है। इस परंपरा के श्रेष्ठतम प्रतिनिधि हैं – आचार्य अभिनवगुप्त (9 वीं से10वीं सदी), जिनके द्वारा प्रतिपादित कश्मीर शैव दर्शन आज भी भारत की आत्मा का सनातन दार्शनिक स्वरूप है।

आचार्य अभिनव गुप्त के द्वारा प्रतिपादित कश्मीर शैव दर्शन की आत्मा: शिव और शक्ति का अद्वैत रूप
कश्मीर शैव दर्शन, विशेषतः त्रिक शैववाद में, शिव केवल एक देवता नहीं, बल्कि पूर्ण चैतन्य हैं सर्वत्र व्याप्त, अनित्य रहित, और साक्षात अनुभवयोग्य। यह दर्शन कहता है: “चैतन्यमात्मा शिवोऽहं”(तन्त्रसार) अर्थात, मैं ही चैतन्य स्वरूप शिव हूँ।

यह विचार वेदांत की निर्गुणता और तंत्र की सगुणता का समन्वय करता है। इसमें न तो संसार से पलायन है, न ही भोग में डूबने की छूट; बल्कि यह जीवन को योग, कला और साधना का उत्सव मानता है।

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दर्शन, तंत्र और सौंदर्यशास्त्र के त्रिवेणी आचार्य: अभिनवगुप्त
आचार्य अभिनवगुप्त केवल एक दार्शनिक नहीं, बल्कि योगी, तांत्रिक, कवि, संगीतज्ञ, नाट्यशास्त्राचार्य और राष्ट्रचिंतक थे। उन्होंने 40 से अधिक ग्रंथों की रचना की, जिनमें प्रमुख हैं:

तन्त्रालोक – कश्मीर शैव दर्शन का बड़ा ग्रंथ (5867 श्लोक)
अभिनवभारती – भरतमुनि के नाट्यशास्त्र पर विश्वप्रसिद्ध टीका
परात्रिंशिका-विवरण, ईश्वरप्रत्यभिज्ञा-विमर्शिनी, आदि
उनके विचारों में रस, शिव और शक्ति ये तीनों अनुभव के स्तर पर एकमेक हो जाते हैं।

“रसस्वादनमेव ब्रह्मस्वादनं (अभिनवभारती) कला में रस का अनुभव ईश्वर की अनुभूति है।

संस्कृति, धर्म और राष्ट्र: एकात्म दृष्टि
आचार्य अभिनवगुप्त ने दर्शन को केवल शास्त्रों में सीमित नहीं रखा, अपितु उसे जीवन और राष्ट्रचिंतन में भी रूपांतरित किया। वे मानते थे कि: “आत्मस्वरूपविज्ञानं राष्ट्रस्य मूलं भवति।” आत्मबोध ही राष्ट्र की नींव है।

उन्होंने कश्मीर को भारतीय संस्कृति का उत्तरध्रुव माना, जहाँ मंदिर केवल पूजा स्थल नहीं, बल्कि चैतन्य जागरण केंद्र थे। उनका मत था कि ज्ञान, कला और योग से राष्ट्र पुनः जागृत हो सकता है।

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योग, भक्ति और साधना: तंत्र के आलोक में
कश्मीर शैव परंपरा का योग केवल आसन नहीं, बल्कि ‘चित्त की शिवत्व में स्थिति’ है। इसमें शक्तिपात, ज्ञानयोग, भावना योग, और स्वातंत्र्य अनुभव को साधना के अंग माना गया। “स्वातन्त्र्यादेव सर्वं सृष्टम्”(तन्त्रालोक) शिव की स्वतंत्र चेतना से ही सृष्टि की रचना हुई है। यह दर्शन भक्ति को केवल भावुकता नहीं, बल्कि बोधयुक्त समर्पण मानता है, जिसमें शिव और जीव का भेद मिट जाता है।

कश्मीर से अखंड भारत का: एक शाश्वत सांस्कृतिक गंगा प्रवाह:
आचार्य अभिनवगुप्त का चिंतन केवल कश्मीर तक सीमित नहीं। उन्होंने भारत के प्रत्येक भाग में फैले शैव, वैदिक, शाक्त, और तांत्रिक परंपराओं को समेटकर एक सनातन सांस्कृतिक शाश्वत एकता का दर्शन प्रस्तुत किया।

उनकी दृष्टि में भारत केवल भूभाग नहीं, बल्कि चैतन्य सनातन भारत है, जो धर्म, ज्ञान, योग और सौंदर्य में स्थित है।

वर्तमान युग की आवश्यकता: आचार्य अभिनवगुप्त की प्राणी कल्याण, जीव कल्याण और मानव कल्याण के लिए पुनःप्रस्तुति:

आज जब कश्मीर को उसके वैदिक और शैव मूल से काटने के प्रयास हो रहे हैं, तब आचार्य अभिनवगुप्त की स्मृति राष्ट्र के सांस्कृतिक पुनरुत्थान की कुञ्जी बन सकती है। हमें विद्यालयों, विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों में कश्मीर शैव दर्शन, तन्त्रालोक, नाट्यशास्त्र और रस सिद्धान्त को पुनः प्रतिष्ठित करना चाहिए।

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आचार्य अभिनवगुप्त का कश्मीर शैव दर्शन अखंड सनातन भारत की जीवंत चेतना, आध्यात्मिक स्वतन्त्रता और कला के आध्यात्मिक मूल्यों का अद्वितीय संगम है। यह केवल दर्शन नहीं, एक जीवन-दर्शन है जो आज भी भारत के लिए उतना ही प्रासंगिक है, जितना सहस्त्र वर्ष पूर्व था।

नाहं मनुष्यो न च देव यक्षः।

किन्तु स्वयं ज्ञानमयोऽहमात्मा॥ (ईश्वरप्रत्यभिज्ञा)

मैं न मानव हूँ, न देवता; मैं स्वयं प्रकाशस्वरूप आत्मा हूँ।

 

लेखक- काशी विद्वत परिषद के सदस्य एवं भारतीय दर्शन, संस्कृत, नाट्यशास्त्र और कश्मीर शैव दर्शन के विद्वान। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (NSD), दिल्ली में विजिटिंग फैकल्टी एवं भारतीय ज्ञान परंपरा के लेखक

 

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