\

योग व्यवहारिक जीवन पद्धति है

उमेश चौरसिया

जब भी हम योग की बात करते हैं, तब आसन और प्राणायाम की बात होती है। केवल कुछ योगासन और प्राणायाम की क्रियाओं को ही हम योग समझते हैं। किन्तु यथार्थ में ये क्रियाएं योग की ओर जाने के प्रारंभिक अभ्यास मात्र हैं। योग तो मनुष्य जीवन को तन-मन से संयमित व स्वस्थ बनाते हुए संस्कारवान सार्थक बनाने की एक सम्पूर्ण जीवन पद्धति है।

गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं-‘योग कर्मसु कौशलम्‘ अर्थात कर्मां में कुशलता को योग कहते हैं। वे यह भी कहते हैं-‘योगस्थः कुरू कर्माणि‘ अर्थात योग में स्थित होकर कर्म करो। हमारे जीवन में कर्म प्रधान है, किन्तु वे कर्म कुशलतापूर्वक अर्थात सर्वहित के लिए व सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ करने हैं और योग अर्थात अध्यात्मिक चिंतन-ध्यान में एकाग्र होकर करने हैं। अपनी दिनचर्या मकें सद्व्यवहार, सद्चिन्तन व स्वध्याय को शामिल करना एवं चिंतन, चरित्र व व्यवहार को परिष्कृत कर मानवता को विकसित करना यही योग का व्यावहारिक उद्देश्य है। इस सार्थक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए आसन, प्राणायाम और ध्यान का नियमित अभ्यास हमारा मार्ग है, इसी पर चलकर हमें सम्पूर्ण योग की मंजिल तक जाना है। योग समग्र रूप से जीवन जीने की कला है, जिसके माध्यम से मनुष्य अपनी अन्तर्निहित शक्ति व ऊर्जा का सदुपयोग कर जीवन को उत्कर्ष की ओर ले जा सकता है। योग से शारीरिक, मानसिक, सामाजिक व आध्यात्मिक स्तर पर समग्र व्यक्तित्व का विकास होता है। समझ, नैतिकता, बल, वीरता और प्रेम को जीवन में धारण करने की प्रेरणा योग से ही मिलती है। अपनी चेतना को परिष्कृत कर चेतना के उच्चतर स्तरों का अनुभव योग की पराकाष्ठा है।

महर्षि पतंजलि ने योग की परिभाषा देते हए योगदर्शन में कहा है- ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः‘ अर्थात चित्तवृत्तियों के निरोध यानि पूर्णतया रूक जाने का नाम योग है। इसे दो प्रकार से समझ सकते हैं। एक तो चित्तवृत्तियों के निरोध की अवस्था में रहना और दूसरा इस अवस्था को लाने के उपाय, दोनों ही योग के भाग हैं। मन चंचल है-यह अनेकानेक विद्वानों ने बार-बार कहा है और मन की इसी चंचलता के कारण मनुष्य कई बार सत्कर्म के मार्ग से भटक भी जाता है। मन में विचरण करने वाले अनेक विचार कई बार मनोविकार बन जाते हैं। इसीलिए आवश्यक है कि मन के भटकाव को नियंत्रित किया जाए और यह हो सकता है केवल योग के माध्यम से। योगाभ्यास के क्रम में चित्त स्थिर होने लगता है और हमारा विचार-चिंतन सकारात्मक दिशा में जाने लगता है।

योग का उद्भव विकास एवं विश्व को भारत की देन

योग का शाब्दिक अर्थ देखें तो वह है-जोड़ना। योग हमें अपने भीतर स्थित ब्रह्म-शक्ति को, परमात्मा के अंश को पहचान कर जीवन के गहन, मौलिक और यथार्थ अस्तित्व से विविध माध्यमों से जुड़ना सिखाता है। भारतीय संस्कृति में योग कोएक आध्यात्मिक प्रक्रिया कहा गया है, क्योंकि योग के द्वारा शरीर, मन और आत्मा को एक साथ जोड़ने का, साथ में लाने का काम होता है। अपने दैनन्दिनी कार्यकलापों के प्रति जागरूक रहने और इसे सुचारू करने में योग की व्यावहारिकता को समझने की ही आज आवश्यकता है। मानसिक तनावों से जर्जर होता मनुष्य आज संतोष और आनन्द की तलाश में इधर-उधर भटक रहा है। अपने जीवन की बगिया में स्वार्थ, क्रोध, द्वेष, ईर्ष्या को काँटों को हटाकर प्रेम, सौहार्द, सुख के सुगंधित पुष्प उगाने की लालसा में सभी हैं।

सभी को ऐसे मार्ग की खोज है जो शरीर से दृढ़ और बलवान बनाये, बुद्धि से प्रखर और पुरूषार्थी बनाये, भौतिक लक्ष्यों की पूर्ति करते हुए आत्मज्ञानी मानव बनाये। निश्चित रूप से योग ही वह सर्वश्रेष्ठ मार्ग है। भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र भी योग ही है। थोड़े समय नियमित आसन-प्राणायाम हमें निरोगी तथा स्वस्थ रख सकते हैं। अहिंसा, सत्य बोलना, लोभ व विषयों से दूर रहना जैसे यम और पवित्रता, संतुष्टि, तपस्या, स्वाध्याय व ईश्वर में विश्वास के नियमों के पालन से जीवन को अनुशाषित बनाकर चरित्र में अकल्पनीय परिवर्तन ला सकते हैं। धारणा तथा ध्यान के अभ्यास से तनावमुक्त होकर कर्मकौशल की प्राप्ति कर सकते हैं। अपने भीतर के मनुष्यत्व को जाग्रत करने के साथ-साथ राष्ट्र के उत्थान में भी सहभागी बन सकते हैं। आइये, योग को अपनी दिनचर्या से जोड़कर जीवन को उत्कृष्ट बनाने की ओर मिलकर कदम बढ़ायें।

पांच हजार वर्ष से भी प्राचीन है भारतीय योग परम्परा
भारत में योग साधना का उल्लेख अर्वाचीन ऋग्वेद से लेकर 2700 ईसा पूर्व की सिंधु सरस्वती घटी सभ्यता में मिले जीवाश्म अवशेषों और मुहरों में, उपनिषदों, स्मृतियों, बौद्ध व जैन धर्म की शिक्षाओं में, पुराणों व पाणिनी शास्त्र में, रामायण व महाभारत की गीता में मिलता है। भारतीय संस्कृति में यह माना गया है कि पांच हजार वर्ष से भी प्राचीन याग परम्परा में सर्वप्रथम ब्रह्माजी ने सनकादिकों और सूर्य व रूद्रादि को योग का उपदेश दिया, जो ब्रह्मयोग और कर्मयोग की दो शाखाओं में विभक्त हो गया। ब्रह्मयोग को सनक, सनत्कुमार, कपिल, आसुरि, पंचशिख नारद और शुकादिकों ने आगे बढ़ाया जो ज्ञानयोग, अध्यात्मयोग व सांख्ययोग नाम से प्रसिद्ध हो गया। कर्मयोग की परम्परा विवस्वान, वैवस्वत मनु, ऋषभदेव व इक्ष्वाकु से आगे बढ़ते हुए ़ऋषि वशिष्ठ और विश्वामित्र के माध्यम से श्रीराम को प्राप्त हुई। तदुपरान्त महर्षि सांदीपनि, वेदव्यास, गर्गमुनि आदि गुरूओं के द्वारा श्रीकृष्ण को योग का ज्ञान प्राप्त हुआ जिसे उन्होंने अर्जुन को गीता में समझाया। शिव को भी आदि योगी कहा गया है।

योग के इसी ज्ञान को बाद में महावीर स्वामी ने पंच महाव्रत और बुद्ध ने आष्टांगिक मार्ग नाम से विस्तार दिया। महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र और शंकराचार्य ने वेदांत के माध्यम से योग को प्रचारित किया। योगविद्या के प्रसार में सत्पऋषियों का योगदान भी महत्वपूर्ण है। नाथ परम्परा में गुरू मत्स्येन्द्रनाथ और गुरू गोरखनाथ ने हठयोग के रूप में स्थापित किया। गोरक्षशतकम् का षडंगयोग, घेरण्ड संहिता का सप्तांशयोग और चतुरंगयोग हठयोग के प्रमुख सिद्धान्त हैं। शैव तथा वैष्णवों की आस्तिक परम्परा व तांत्रिक परम्परा में भी योग की प्रभावी उपस्थिति रही है। आधुनिक काल माने जाने वाले 17 वीं से 19 वीं शताब्दी के समय में रमण महर्षि, रामकृष्ण परमहंस, परमहंस योगानंद, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी शिवानंद, टी.कृष्णमाचार्य, स्वामी कुवलयानंद, योगेन्द्र, स्वामी राम, महर्षि अरविन्द, महर्षि महेश योगी, आचार्य रजनीश, पट्टाभिजोइस, स्वामी सत्यानंद सरस्वती इत्यादि ने योग को मानवीय व्यवहार में लाने में महत्वपूर्ण मार्गदर्शन किया। बी.के.एस. अयंगर नले अयंगर योग के नाम से योगशैली का विकास किया।

राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र में भी योग की परम्परा लगभग 2500 वर्ष पुरानी है। चित्तौड़ से संबंधित राजा भोज ने ‘राजमार्तंड टीका‘ में योग का उल्लेख किया। जैनाचार्यां ने भी योग विस्तार किया। शैव दर्शन की हठयोग, जपयोग, क्रियायोग व मंत्रयोग जैसी विद्या मेवाड़ में प्रचलित रहीं। जगन रावल से योगियों ने आबू से बिजौलिया तक भ्रमण करते हुए योग चेतना का प्रसार किया। बाठेड़ा के योगी गुमानसिंह, बावजी चतुरसिंह, संत मोहनलाल आदि ने योग परम्परा को आगे बढ़ाया, इन सबका उल्लेख महाघ्भाष्य योगदर्शन व चरक संहिता के साथ-साक प्राप्त ताम्रपत्रों, शिलालेखों में किया गया है।

भारत में प्राचीन काल से ही योग के आध्यात्मिक मूल्य को विशेष महत्व दिया गया है। वैदिक काल में सूर्यदेव को सभ्यता की धुरि माना गया इसीलिए सूर्य नमस्कार योगविधि के माध्यम से मनश्चेतना पूर्वक सूर्यदेव की आराधना का मार्ग प्रत्यक्ष हुआ। ईश्वर के प्रति मन-प्राण से समर्पण की प्रक्रिया ही प्राणायाम के रूप में विकसित हुई। योगशास्त्र की सम्पूर्ण विधि, विधान, प्रक्रिया व ध्येय को लिपिबद्ध करने का सुधि कार्य महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र की रचना से किया। योगसूत्र में वर्णित अष्टांग योग की विस्तृत व्याख्या में भी योग को शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मानसिक और आध्यात्मिक चेतना के विकास के लिए अधिक आवश्यक बताया गया है। आज भी यह ग्रंथ विश्व का मार्गदर्शन कर रहा है।

-उमेश कुमार चौरसिया
साहित्यकार व संस्कृति चिंतक, अजमेर राजस्थान

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *