डूंगरपुर नगर के स्थापत्य का विशिष्ठ अंग गोखड़े
दुर्ग, महल, हवेलियों तथा भवनों में गोखडे अथवा झरोखे का निर्माण मध्यकालीन भारतीय स्थापत्य का महत्वपूर्ण अंग रहा है तथा राजस्थान के स्थापत्य में तो गोखडे के निर्माण विशेष रूप से अंगीकृत किया गया। झरोखों या गोखडों का निर्माण शासकों द्वारा प्रातकालीन सूर्य दर्शन करने, अपनी जनता को झरोखा दर्शन देने, पर्दा प्रथा के चलते रानियों तथा राजवंश से सम्बंधित महिलाओं को महलो में होने वाले दरबारों, सार्वजनिक उत्सवों को देखने के लिए तथा ऊँचे तबके के लोगो द्वारा आवाम में अपनी हैसियत दर्शाने के लिए हवेली या आवास में राजकीय अनुमति के उपरान्त झरोखों का निर्माण करवाया जाता था।
हुमायूं से लेकर शाहजहां तक मुग़ल सम्राटों द्वारा अपनी रियाया को रोजाना झरोखा दर्शन दिया जाता था जो बादशाह के रियाया के दुख दर्द का हमदर्द होने और उन्हें न्याय प्रदान करने और बादशाह के तंदुरस्त और जीवित होने का प्रतीक था। राजस्थान के अनेक शहरों के किलों, महलों, हवेलियों तथा भवनों में कलात्मक नक्काशीदार वैविध्यपूर्ण झरोखे देखे जा सकते है। झरोखे का निर्माण स्वाभाविक रूप से भवन की दूसरी मंजिल में तथा भवन से थोड़ा बाहर तरफ मुख्य मार्ग की तरफ निकला हुवा होता था जो भवन के मालिक के प्रभुत्वशाली, संपन्न तथा समृद्ध होने का प्रतीक था।
गोखडों का निर्माण डूंगरपुर नगर की स्थापत्य कला की प्रमुख विशिष्टता थी। जूनामहल से लेकर समस्त पुराने नगर की बसावट में गोखडो का प्रचुर निर्माण किया गया खांटवाड़ा, तम्बोलीवाड़ा, चौखलीवाड़ा, वाखारिया चौक, सुथारवाड़ा, सुरमो काचौरा, सलाठवाडा, पातेला दरवाजा, घाँटी मौहल्ला, मेहता शेरी, उतारा मोहल्ला, माणकचौक, सर्राफा बाजार, सुथारवाडा, कंसारा चौक आदि सभी मुहल्लों में गोखडों युक्त भवन और हवेलियां देखी जा सकती है।
रियासतकालीन अनेक धनाढ्य एवं प्रभुत्वशाली लोगों की हवेलियां यथा वाखरियां की हवेली, गांधीजी की हवेली, मांजी की हवेली, कोटडियों की हवेली, शाहजी कामदार की हवेली, अपने कलात्मक गोखडों तथा स्थापत्य और लकड़ी की बारीक कलात्मक क़ुराई के लिए प्रसिद्द है। डूंगरपुर के गोखड़े बनावट शैली के भेद के आधार पर बादशाही गोखड़े, शिवशाही गोखड़े, उदयशाही गोखड़े तथा रामशाही गोखड़े में विभक्त किये जाते है तथा गोखड़े के स्तम्भ युक्त होने अथवा न होने के आधार पर गोखडों के जनाना और मरदाना भेद भी है जिन्हे गोखड़ा या गोखड़ी कहते है।
डूंगरपुर के इतिहासकार स्वर्गीय महेश पुरोहित अपनी पुस्तक डूंगरपुर : परिचय एवं संक्षिप्त इतिहास में गोखडो के बारे में उल्लेख करते हुवे लिखते है कि – मकान में झरोखा या गोखड़ा रखने के लिए शासक की अनुमति लेनी होती थी जो सबको नहीं मिलती थी। पर डूंगरपुर के हर खास व आम व्यक्ति का, जिसका भी मकान एक मंजिल से अधिक का होता था, उसकी ऊपर की मंज़िल या मंजिलों के बाहर की ओर खुलनेवाले हर कमरे में गोखड़ा रखा जाता था। इससे हवा-रोशनी तो मिलती ही थी, बाहर का दृश्य भी स्पष्ट दिखाई देता था, नगर की शोभा भी बढ़ जाती थी।
बनावट की दृष्टि से गोखड़ा बादशाही, रामशाही, शिवशाही और उदयशाही प्रकार का होता है। उदयविलास में चार गोखड़े अष्ट पहलू के हैं। छह कोण वाले को बादशाही, मतवाण्णे (जंगले) के बाहर की ओर बेलबूटे वाले को रामशाही, घुमावदार को शिवशाही और कमलदल वाले को उदयशाही गोखड़ा कहते हैं। उपयोगकर्ता की दृष्टि से ये मरदाना और जनाना प्रकार के होते हैं। जिसके थम्बे दीवार से बाहर भी हों उसे गोखड़ा और जिसमें थम्बे ही न हों उसे गोखड़ी कहते हैं।
जूना महल के गोखड़ों के निर्माणकाल, स्वरूप और उनकी स्थिति के आधार पर विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि डूंगरपुर में मुगलों के आने से बहुत पहले से ही झरोखा-दर्शन की परंपरा रही है। अधिक से अधिक स्थान का उपभोग करने की मानसिकता के कारण गोखड़ों का अस्तित्व समाप्त होता जा रहा है।
राजमहलों में तो पत्थर पर बारीक खुदाई का काम है ही, वखारिया चौक पर मेहता भवन, केसरीमल दावड़ा के मकान में, गाँधीजी की हवेली में, सिंघाड़ा गली में मुल्ला गुलाम अली के मकान में, खांडवाले बोहरे के मकान में पत्थर पर खुदाई का सुन्दर काम है। पत्थर की छोटे-बड़े आकार की सुन्दर,कलात्मक जालियाँ असंख्य मकानों में लगी हुई हैं। खवासजी की हवेली, गाँधीजी की हवेली, अमृतलाल वखारिया की हवेली और जामा मस्जिद के पास मनजी की हवेली में लकड़ी पर कुराई का बारीक काम मिलता है।
लेखक पर्यटन मंडल राजस्थान में अधिकारी हैं।