वैश्विक संकट और भारत में वन्यजीव संरक्षण

प्रकृति की गोद में पलने वाले जीव-जंतु केवल जंगलों की शोभा ही नहीं, बल्कि हमारे जीवन और पर्यावरण के संतुलन का भी आधार हैं। परंतु आज दुनिया भर में वन्यजीव गंभीर संकट से जूझ रहे हैं। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि लगभग दस लाख प्रजातियाँ विलुप्ति के कगार पर पहुँच चुकी हैं। जलवायु परिवर्तन, तेजी से घटते आवास, अवैध शिकार और बढ़ते प्रदूषण ने इस संकट को और गहरा कर दिया है। यह केवल वन्यजीवों का नहीं, बल्कि पूरे मानव समाज का भी संकट है, क्योंकि जैव विविधता का नुकसान सीधे-सीधे हमारे अस्तित्व और कल्याण को प्रभावित करता है।
भारत इस वैश्विक परिदृश्य में एक विशेष स्थान रखता है। यहाँ विश्व की कुल जैव विविधता का लगभग 7-8 प्रतिशत हिस्सा पाया जाता है। देश में 45,000 से अधिक पादप प्रजातियाँ और 91,000 पशु प्रजातियाँ मौजूद हैं। हिमालय, पश्चिमी घाट, पूर्वोत्तर क्षेत्र और अंडमान-निकोबार जैसे क्षेत्र अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त जैव विविधता हॉटस्पॉट हैं। इतनी समृद्धि के बावजूद भारत भी उन्हीं चुनौतियों से जूझ रहा है, जिनसे पूरी दुनिया का सामना हो रहा है।
वैश्विक चुनौतियाँ और उनका प्रभाव
दुनिया में वन्यजीव संरक्षण की सबसे बड़ी चुनौती आवास हानि है। बढ़ते शहरीकरण, कृषि भूमि के विस्तार और आधारभूत ढाँचों के निर्माण ने जंगलों और प्राकृतिक क्षेत्रों को टुकड़ों में बाँट दिया है। परिणामस्वरूप, प्रजातियों का स्वाभाविक प्रवास रुकता है और उनका अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है।
दूसरी बड़ी चुनौती है जलवायु परिवर्तन। तापमान में लगातार वृद्धि, अनियमित वर्षा और समुद्र स्तर में बढ़ोतरी ने न केवल वन्यजीवों की जीवनशैली बदली है, बल्कि उनके प्राकृतिक निवास स्थान भी नष्ट किए हैं। उदाहरणस्वरूप, मीठे पानी की मछलियों और समुद्री प्रजातियों पर इसका गहरा असर देखा गया है।
अवैध शिकार और वन्यजीव व्यापार भी वैश्विक स्तर पर बड़ी समस्या है। हाथियों की दाँत, गैंडों के सींग और बाघ की खाल जैसी चीजों की मांग ने अनेक प्रजातियों को विलुप्ति के कगार पर पहुँचा दिया है। इसके अलावा प्रदूषण, आक्रामक प्रजातियों का प्रवेश और मानव-वन्यजीव संघर्ष भी लगातार बढ़ते खतरे हैं।
भारत के संदर्भ में चुनौतियाँ
भारत की स्थिति और भी जटिल है। यहाँ 1.4 अरब की जनसंख्या और तेजी से हो रहा औद्योगिक विकास वनों पर दबाव डाल रहा है। रेलवे, सड़क और अन्य परियोजनाएँ वन्यजीव गलियारों को बाधित करती हैं, जिससे जीव-जंतु अलग-थलग पड़ जाते हैं। मानव-वन्यजीव संघर्ष भी बड़ी समस्या बन चुका है। आँकड़े बताते हैं कि केवल 2017 से 2020 के बीच तमिलनाडु में 7,500 से अधिक फसल क्षति के मामले दर्ज हुए और पाँच वर्षों में हाथियों के कारण लगभग 3,000 लोगों की मृत्यु हुई।
अवैध वन्यजीव व्यापार में भारत एक प्रमुख केंद्र बना हुआ है। टाइगर स्किन और राइनो हॉर्न जैसी चीजों की तस्करी लगातार होती रही है। साथ ही जलवायु परिवर्तन ने सुंदरबन जैसे क्षेत्रों में समुद्र स्तर बढ़ाकर वहाँ की जैव विविधता को गंभीर खतरे में डाल दिया है।
वैश्विक स्तर पर समाधान
दुनिया भर में वन्यजीव संरक्षण के लिए कई समाधान अपनाए जा रहे हैं।
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संरक्षित क्षेत्रों का निर्माण और प्रबंधन सबसे अहम कदम है। इससे न केवल प्रजातियों की रक्षा होती है, बल्कि पारिस्थितिकी सेवाएँ भी संरक्षित रहती हैं।
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अंतरराष्ट्रीय समझौते जैसे CITES (Convention on International Trade in Endangered Species) अवैध व्यापार को नियंत्रित करते हैं।
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प्रौद्योगिकी का उपयोग – ड्रोन, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और जीआईएस जैसी तकनीकें निगरानी और सुरक्षा में नई संभावनाएँ खोल रही हैं।
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समुदाय की भागीदारी और शिक्षा/जागरूकता कार्यक्रम भी लंबे समय तक टिकाऊ परिणाम देते हैं।
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साथ ही प्रकृति-आधारित समाधान (NbS) और पारिस्थितिकी बहाली जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए कारगर माने जा रहे हैं।
भारत की पहलें और उपलब्धियाँ
भारत ने भी समय-समय पर कई महत्त्वपूर्ण परियोजनाएँ शुरू कीं, जिनके परिणाम वैश्विक स्तर पर सराहे गए हैं।
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प्रोजेक्ट टाइगर (1973) – यह भारत की सबसे सफल परियोजनाओं में गिना जाता है। 2006 में बाघों की संख्या 1,411 थी, जो बढ़कर 2022 में 3,167 और 2025 में लगभग 3,682 हो गई। वर्तमान में देश में 54 टाइगर रिजर्व हैं।
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प्रोजेक्ट एलीफेंट (1992) – हाथियों के संरक्षण के लिए शुरू इस परियोजना ने अब तक 33 हाथी रिजर्व विकसित किए हैं।
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प्रोजेक्ट डॉल्फिन (2020) – गंगा और अन्य नदियों में पाई जाने वाली डॉल्फिन के संरक्षण के लिए यह योजना बनाई गई। इसमें सैटेलाइट टैगिंग और दीर्घकालिक एक्शन प्लान लागू किया गया।
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प्रोजेक्ट चीता (2022) – नामीबिया और दक्षिण अफ्रीका से चीतों को भारत लाकर कुनो नेशनल पार्क में बसाया गया। यह प्रोजेक्ट वैश्विक स्तर पर चर्चा का विषय बना।
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वल्चर एक्शन प्लान (2020-2025) – गिद्धों की घटती आबादी को बचाने के लिए NSAID दवाओं पर रोक लगाई गई और जागरूकता अभियान चलाए गए।
इन परियोजनाओं को सरकार ने विशेष फंडिंग भी दी है। उदाहरणस्वरूप, 2025-26 में पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) को 3,400 करोड़ रुपये से अधिक का बजट मिला।
भविष्य की चुनौतियाँ और रणनीतियाँ
हालाँकि भारत की उपलब्धियाँ उल्लेखनीय हैं, पर चुनौतियाँ अभी भी बड़ी हैं। कई योजनाओं में अपर्याप्त फंडिंग, प्रशिक्षण की कमी और राजनीतिक हस्तक्षेप जैसी समस्याएँ आती हैं। मानव-वन्यजीव संघर्ष को कम करने के लिए 2021-26 की राष्ट्रीय रणनीति में सोलर फेंस, मधुमक्खी बाड़ और स्मार्ट सेंसर डिवाइस जैसे नवाचार सुझाए गए हैं। 2025 के वाइल्डकॉन सम्मेलन में राज्य-विशिष्ट समाधान पेश किए गए, ताकि हर राज्य अपनी स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार नीतियाँ बना सके।
भविष्य की रणनीतियों में ग्रीन बॉन्ड, कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (CSR) और पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (PPP) के माध्यम से अधिक निवेश लाने की जरूरत है। सामुदायिक भागीदारी भी अहम है। उदाहरण के लिए, “चीता मित्र” और “वनतारा प्रोजेक्ट” जैसे अभियान स्थानीय समुदायों को संरक्षण कार्यों में जोड़ते हैं। वन्यजीव संरक्षण केवल जानवरों की रक्षा का सवाल नहीं है, बल्कि यह हमारी सभ्यता और आने वाली पीढ़ियों की सुरक्षा का भी प्रश्न है। जैव विविधता हमारी भोजन श्रृंखला, जलवायु नियंत्रण, कृषि और स्वास्थ्य से सीधा जुड़ी हुई है।
भारत को विज्ञान-आधारित नीतियाँ, अंतरराष्ट्रीय सहयोग, आधुनिक तकनीक और सबसे बढ़कर समुदाय की भागीदारी पर ध्यान केंद्रित करना होगा। तभी हम आने वाले समय में अपने जंगलों, नदियों और जीव-जंतुओं की समृद्धि को बचा पाएँगे। अंततः, वन्यजीव संरक्षण सतत विकास की उस धारा का हिस्सा है, जिसमें प्रकृति और मानव दोनों की समान भागीदारी से ही संतुलन संभव है।

