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भाषा विज्ञान और हिन्दी साहित्य के चलते-फिरते ज्ञानकोश थे डॉ. रमेशचन्द्र मेहरोत्रा

सुप्रसिद्ध भाषा विज्ञानी और साहित्यकार स्वर्गीय डॉ. रमेशचन्द्र महरोत्रा आज अगर हमारे बीच होते तो भाषा विज्ञान के क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के सृजनात्मक कार्य करते हुए 90 साल के हो गए होते। उनका जन्म 17 अगस्त 1934 को मुरादाबाद (उत्तरप्रदेश )में और निधन 4 दिसम्बर 2014 को बिलासपुर (छत्तीसगढ़ )में हुआ। डॉ .महरोत्रा ने ‘छत्तीसगढ़ी -हिन्दी शब्दकोश ‘ के लेखन और प्रकाशन में सम्पादन सहयोग दिया। इस शब्दकोश के सम्पादक डॉ. पालेश्वर शर्मा थे।

डॉ. महरोत्रा ने छत्तीसगढ़ी मुहावरों और लोकोक्तियों का एक महत्वपूर्ण संकलन भी तैयार किया। उन्होंने ‘ मानक छत्तीसगढ़ी का सुलभ व्याकरण’ भी लिखा। शब्दों के बारीक से बारीक अर्थ निकालने में उन्हें महारत हासिल थी। भाषाओं में शब्दों का यथायोग्य प्रयोग कैसे किया जाए ,यह उनकी पुस्तकों से सीखा जा सकता है। अपने विद्यार्थियों के लिए वह भाषा विज्ञान और हिन्दी साहित्य के चलते -फिरते विशाल ज्ञानकोश थे।

अपने 35 वर्षों के सुदीर्घ प्राध्यापकीय जीवन के स्वर्णिम 28 वर्ष उन्होंने छत्तीसगढ़ को दिए। लगभग तीन दशकों के इस कालखंड में वह छत्तीसगढ़ में भाषा विज्ञान के पर्याय बन गए। साहित्य के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए छत्तीसगढ़ सरकार ने उन्हें वर्ष 2007 के राज्योत्सव में पंडित सुन्दरलाल शर्मा राज्य अलंकरण से सम्मानित किया था। इसके अलावा उन्हें विभिन्न संस्थाओं द्वारा भी समय -समय पर कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाज़ा गया।

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स्वर्गीय डॉ. महरोत्रा की लगभग 50 पुस्तकें छपीं। इनमें से अधिकांश भाषा विज्ञान और हिन्दी व्याकरण से सम्बंधित हैं। डॉ. मेहरोत्रा ने आगरा विश्वविद्यालय से 1956 में हिन्दी और भाषा विज्ञान में एम.ए. किया। सागर विश्वविद्यालय (मध्यप्रदेश )से उन्हें 1963 में भाषा विज्ञान में पी-एच .डी . की उपाधि मिली।

आगरा विश्वविद्यालय ने उन्हें वर्ष 1980 में भाषा विज्ञान में डी. लिट् की उपाधि दी और सर्वश्रेष्ठ शोध कार्य के लिए स्वर्ण पदक से सम्मानित किया। डॉ .महरोत्रा ने 17 नवम्बर 1959 से 19 जुलाई 1966 तक ,करीब 7 साल सागर विश्वविद्यालय के अंतर्गत सहायक प्राध्यापक के पद पर अपनी सेवाएं दी। इसके बाद वह पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर (छत्तीसगढ़ ) आ गए । यहाँ वह 20 जुलाई 1966 से 12 अगस्त 1978 तक, 12 साल भाषा विज्ञान के रीडर के पद पर रहे और पदोन्नत होकर प्रोफेसर बने। उन्होंने यहाँ 13 अगस्त 1978 से सेवा निवृत्ति पर्यन्त 31 जुलाई 1994 तक प्राध्यापक के पद पर काम किया। हिन्दी के साथ -साथ छत्तीसगढ़ी भाषा का भी उन्होंने गहन अध्ययन किया।

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उनकी लिखी पुस्तकों में ‘हिन्दी में अशुद्धियाँ ‘, मानक हिन्दी का शुद्धिपरक व्याकरण ‘और छह खण्डों में प्रकाशित ” मानक हिन्दी के शुद्ध प्रयोग ‘ भी शामिल हैं। इन पुस्तकों के अलावा उन्होंने ‘हिन्दी का नवीनतम बीज व्याकरण’ भी लिखा। डॉ. चित्तरंजन कर इस पुस्तक में उनके सह -लेखक थे। जन सामान्य के लिए उनकी कुछ मोटिवेशनल किताबें भी प्रकाशित हुईं। इनमें ‘सुख की राहें’ और ‘सफलता के रहस्य’ भी शामिल हैं।