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इस समय भारत देश के साथ कौन खड़ा है?

चीन की फितरत है धोखे से वार करना, हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा लगाते भारत पर 1962 में आक्रमण कर दिया। एक बार फिर लद्दाख क्षेत्र की गलवन घाटी में रात के अंधेरे में भारतीय सैनिकों पर हमला किया जिसमें भारत के 20 सैनिक शहीद हो गए। यह देश के लिए पीड़ादायक घटना है और इसकी शुरूआत मई के महीने से हुई थी जब चीन की सेना वास्तविक नियंत्रण रेखा को पार कर गलवन घाटी तक पहुंच गए।

15 और 16 जून की दरम्यानी रात जो घटना हुई, उसमें चीन के सैनिक भी मारे गए। दोनों देशों में इस घटना को लेकर जिस प्रकार की प्रतिक्रिया हो रही है, वह भारत के लिए अधिक चिंता का विषय है। विपक्ष की राजनीति शुरू हो गई, बुद्धिजीवियों का भारत को नीचा दिखाने और मनोबल तोड़ने वाला प्रलाप शुरू हो गया और ग़ैर ज़िम्मेदार भारतीय मीडिया अपने टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में पड़ गई। ऐसा है तो इस समय भारत देश के साथ कौन खड़ा है?

देश में राजनीति इतनी रसातल तक पहुँच गई है कि उस पर चर्चा करने की इच्छा नहीं होती, फिर भी राजनीति पर चर्चा जरूरी है। लोकतंत्र में पक्ष-विपक्ष की ज़िम्मेदारी तय हैं लेकिन देश का हित हो तो राजनीति की चाल व चरित्र कैसा होना चाहिए, इस ज़िम्मेदारी से राजनीति का सरोकार नहीं रहा। विदेश नीति या सामरिक नीतियों पर विपक्ष सरकार से सवाल पूछ सकता है, लेकिन सवाल कैसे हों और किस मंच पर पूछे जाएं, इसकी मर्यादा भी तो हो।

अभी तक देश के लिए संवेदनशील विषयों पर सवाल जवाब का उपयुक्त मंच संसद को माना जाता है, किसी विषय पर विभाग के मंत्री या प्रधानमंत्री स्वयं देते हैं। यह क्या है कि सोशल मीडिया पर ट्विटर के माध्यम से विदेश व सामरिक नीतियों पर प्रश्न खड़े किए जाएं? ऐसे माध्यम से जिसमें संवाद एकपक्षीय है और उत्तर मिलना संभव नहीं है।

कांग्रेस पार्टी के नेता सोशल मीडिया पर चीन के साथ हुए संघर्ष को लेकर व्यंग्य कर रहे हैं, एक प्रवक्ता ने तो जनता से ठॉंय-ठॉंय की आवाज निकालकर चीन को डराने के संदेश दे रहे हैं, वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने प्रधानमंत्री का नाम लिए बगैर सरकार के हाथ पर हाथ धरे रखने का संदेश जारी कर रहे हैं।

कम्यूनिस्ट पार्टियों से तो कोई उम्मीद रखना भी बेमानी है। जो पार्टी 1962 के युद्ध में चीन को खुला समर्थन कर रही थी, सैनिकों को खून देने वाले अपने कार्यकर्ताओं को पार्टी विरोधी गतिविधियों में शामिल होने के कारण उन पर कार्यवाही की हो, उनसे आज कोई उम्मीद कैसे करे? अब तो देखना यह है कि चीन के साथ संघर्ष हो तो भारत के विरूद्ध साजिश तो नहीं रचेंगे?

पहले भारत भाषायी आधार पर क्षेत्रों में बंटा था, ऐसा कहा जाता था कि देश में लोग पंजाबी, गुजराती, बंगाली, मलयाली, कन्नड़ हैं, भारतीय कौन है? आज यही सवाल राजनीति को लेकर उठ रहा है, राजनीति में काम करने वाले कांग्रेसी, भाजपाई, सपाई, वामपंथी तो हैं, लेकिन क्या ये भारतीय नहीं रहे?

चीन, नेपाल, पाकिस्तान को लेकर राजनीतिक पार्टियाँ सवाल कर रही हैं, क्या वे नहीं जानते कि पूर्व में सरकारों ने चीन के साथ संबंध बनाने में क्या गलतियां की है। हिंदी चीनी भाई-भाई के नारों पर इतना विश्वास था कि 1962 में चीन की चालाकी से मात खा गए। भारत को संयुक्त राष्ट्र संघ के स्थायी सदस्य बनाने का प्रस्ताव था, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री की दरियादिली के कारण यह स्थान चीन को दे दिया। आज चीन अपने इसी ताकत का उपयोग संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत विरोध करने के लिए करता है।

क्या देश यह नहीं जानता कि 1962 के बाद से चीन ने भारत के जम्मू-कश्मीर क्षेत्र में पश्चिमी सेक्टर में करीब 38 हजार वर्ग किलोमीटर भू-भाग पर क़ब्ज़ा कर रखा है। उधर पाकिस्तान ने तथाकथित चीन- पाकिस्तान सीमा समझौता 1963 के तहत चीन को पाकअधिकृत कश्मीर का 5,180 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र दे दिया है। 1962 के युद्ध के बाद कांग्रेस पार्टी ने देश के विषय को परिवार का विषय बना दिया।चीन के कब्जाए हिस्से को लेकर लगभग 15 वर्षों तक प्रधानमंत्री रहीं स्व. इंदिरा गांधी ने चीन से रिश्ता ही नहीं रखा।

हालांकि राजीव गांधी ने चीन से संबंध बनाने की पहल की, सीमा विवाद से जुड़े विषयों के समाधान के लिए 1988 में दोनों देशों के बीच संयुक्त कार्य समूह (जेडब्ल्यूजी) का गठन किया गया था लेकिन इसके बाद के 26 वर्षों में से 16 साल से अधिक समय तक कांग्रेस पार्टी सत्ता में रही, लेकिन चीन के कब्जा वाले क्षेत्रों को लेकर बात आगे नहीं बढ़ी, उल्टे इस दौरान चीन की ओर से बार-बार वास्तविक नियंत्रण रेखा के उल्लंघन किया जाता रहा।

भारत की संप्रभुता पर कोई आंच आए, इससे बड़ी प्राथमिकता देश की राजनीति की हो सकती है क्या? किसी भी देश की सरकार का सबसे बड़ा दायित्व अपनी संप्रभुता की रक्षा करना है, देश के हजारों वर्ग किमी क्षेत्र पर सी अवैध रूप से क़ब्ज़ा कर रखा है और देश में सरकारें आती जाती रहीं क्या उनका कोई दोष नहीं बनता? क्या वे सिर्फ सत्ता के मजे लूटने के लिए सर्वोच्च पदों को धारण करते रहे? क्यों नहीं चीन से अपनी जमीन वापस लेने के गंभीर प्रयास हुए।

1962 के युद्ध को बुरी तरह से हार जाने के बाद भारत मनोवैज्ञानिक स्तर पर चीन के आगे नतमस्तक हो गया। हमने चीन से संबंध तो सुधारे लेकिन कभी उनके सामने अपनी संप्रभुता और जमीन को वापस लेने के लिए दो टूक बात नहीं की। ऐसा इसलिए कि देश को स्वतंत्रता के बाद से ही सामरिक दृष्टि से कमजोर बनाकर रख दिया। चीन को महाशक्ति बताकर हम उनकी प्रशंसा करते रहे, उन्हीं की नीतियों को भारत में लागू करने का प्रयास किया तो चीन की विचारधारा से प्रभावित समूहों ने विरोध किया, ताकि भारत पिछड़ा रह जाए।

विदेशी संस्थाओं से पैसे लेकर भारत मे विकास को रोकने का प्रयास किया। कुडमकुलम परमाणु संयंत्र को प्रारंभ न करने देने के लिए भारत के गैर सरकारी संगठनों को पैसे दिए गए थे। नक्सलवाद और माओवाद के नाम पर देश के संसाधनों से युक्त क्षेत्रों में क्या हो रहा है, यह तो सभी जानते हैं। ऐसे में चीन का मुकाबला करने की शक्ति कहां से आए?

भारत एक लोकतंत्रवादी देश है, यहां शक्ति जनता के हाथों में है। अभी चीन के साथ संघर्ष में भारतीय जवानों की शहादत ने जनता को आक्रोशित कर दिया है, जगह जगह चीन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। राजनेताओें के बयानों को भी जनता भलीभाँति देख रही है, समझ रही है, समय आने पर वे उनसे जवाब मांगेंगे। जनता का समर्थन है तो अब समय आ गया है चीन के साथ दो दो होथ करने का।

भारत में चीन परस्त पार्टियां और समर्थकों ने भारत को हमेशा चीन के आगे कमजोर माना। पाकिस्तान, नेपाल जैसे दूसरे पड़ोसी भी चीन की ताकत के कारण भारत को आंखें दिखा रहे हैं। एक बार यह संदेश देना जरूरी है कि भारत 1962 से आगे निकल आया है, चीन को भी चुनौती दे सकता है। ऐसा होने पर दक्षिण एशिया में भारत एक शक्ति बनकर उभरेगा, नेपाल और पाकिस्तान की भारत विरोधी हरकतें थमेंगी और भारत में रहने वाले चीनपरस्तों को भी संदेश मिलेगा।

शशांक शर्मा, रायपुर राजनैतिक विश्लेषक 9425520531

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