जानिए विवेकानन्द शिला स्मारक के महत्व को, जहाँ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ध्यान करेंगे
प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी 31 मई और 1 जून को कन्याकुमारी समुद्र के मध्य में स्थित विवेकानन्द शिला स्मारक पर ध्यान करने वाले हैं। इसी स्थान पर स्वामी विवेकानन्द ने अंग्रेजों की गुलामी के विकटकाल में भारतवासियों के खोये आत्मविश्वास, आत्मगौरव और स्वाभिमान को जाग्रत कर भारत के पुनरूत्थान के लिए तीन दिन तक गहन ध्यान किया था।
स्वामी विवेकानन्द ने 19 मार्च, 1894 को स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखे पत्र में कहा था –‘‘भारत के अंतिम छोर पर स्थित शिला पर बैठकर मेरे मन में एक योजना का उदय हुआ- मान लें कि कुछ निःस्वार्थ सन्यासी, जो दूसरों के लिए कुछ अच्छा करने की इच्छा रखते हैं, गाँव-गाँव जाएं, शिक्षा का प्रसार करें और सभी की, अंतिम व्यक्ति की भी दशा को सुधारने के लिए विविध उपाय खोजें- तो क्या अच्छा समय नहीं लाया जा सकेगा?………एक राष्ट्र के रूप में हम अपना स्वत्व खो चुके हैं और यही भारत में व्याप्त सारी बुराइयों की जड़ है। हमें भारत को उसका खोया हुआ स्वत्व लौटाना होगा और जनसामान्य को ऊपर उठाना होगा।‘‘
अंग्रेजों की गुलामी के उस विकट काल में भारतवासियों का आत्मविश्वास खो गया था, गरीबी और अभावों में जी रहे भारत के लोग अपना गौरव, अभिमान और आत्मविश्वास खो चुके थे, ऐसे में सबके स्वत्व को जाग्रत कर भारत के पुनरूत्थान के लिए स्वामी विवेकानन्द ने उक्त पत्र में वर्णित जिस कार्ययोजना के साथ कार्य आरंभ किया इसक वह उन्होंने जिस अंतिम छोर पर स्थित शिला पर बैठकर बनाई थी, वह थी कन्याकुमारी के समुद्र के मध्य में स्थित ‘श्रीपाद शिला‘ और उसी शिला पर आज भारत के आध्यात्मिक गौरव को विश्वपटल पर उद्घोषित करता भव्य-दिव्य सेवातीर्थ विवेकानन्द शिला स्मारक स्थित है।
दिसम्बर 1892 का प्रसंग है। एक परिव्राजक सन्यासी के रूप में सम्पूर्ण भारत में लगभग दो वर्ष परिभ्रमण करने के उपरान्त जब स्वामी विवेकानन्द कन्याकुमारी पहुँचे तब वे गरीबी व अज्ञानता में घिरी और आत्मविश्वासविहीन भारतवासियों की स्थिति से बहुत व्यथित थे। बार-बार उनके मन में यही प्रश्न उठता रहता कि अपने भाई-बहनों के आत्मविश्वास को जगाने के लिए, मानवता के उत्थान के लिए और मातृभूमि की उन्नति के लिए वे क्या करें? वहाँ समुद्र के तट पर स्थित भगवती कन्याकुमारी के मन्दिर में भाव-विव्हल होकर प्रार्थना करने के उपरान्त जब वे बाहर आए तो उनका मन समुद्र की लहरों के मध्य स्थित शिला की ओर आकर्षित होने लगा। उस शिला पर माँ भगवती कन्याकुमारी ने तपस्या की थी, वहाँ पर उनके पद्चिन्ह भी अंकित हैं और इसीलिए उस शिला को श्रीपाद् शिला कहते थे।
स्वामी विवेकानन्द को लगा कि शिला पर खड़ी स्वयं देवी भगवती उन्हें पुकार रही है, फिर वे रूक न सके, नाव में जाने के लिए पैसे तो थे नहीं पर निश्चय दृढ़ था, तो बस समुद्री जलचरों की परवाह न करते हुए समुद्र में कूद गए और तैरकर श्रीपाद् शिला पर पहुँच गए। उसी शिला पर बैठकर स्वामी विवेकानन्द ने 25, 26 व 27 दिसम्बर 1892 को तीन दिन और तीन रात निरन्तर ध्यान किया। वहीं उनके मन में भारत की सुसुप्त आध्यात्मिक शक्ति को जाग्रत करने की योजना बनी, जिसके बारे में स्वामीजी ने उक्त पत्र में कहा है। भारतीयों के मन में अपने देश के प्रति विश्वास जगाने और सुदृढ़ करने के लिए शिकागो विश्व धर्मसम्मेलन में जाकर भारत के गौरव को विश्वपटल पर प्रतिष्ठित करने का निर्णय भी उन्होंने वहीं लिया।
अनेक चुनौतियों, बाधाओं को पार करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने अमरीका के शिकागो शहर पहुँचकर विश्व धर्मसम्मेलन में भाग लिया और 11 सितम्बर, 1893 को सम्पूर्ण विश्व के समक्ष पहली बार भारत के सांस्कृतिक गौरव और विश्व बंधुत्व में सनातन धर्म के महत्त्व को प्रखर स्वर में उद्घोषित किया। पहले ही दिन के भाषण ने स्वामीजी को न केवल अमरीका वरन् सम्पूर्ण विश्व में प्रतिष्ठित कर दिया। सम्पूर्ण संसार पर भारत की आध्यात्मिक विजय पताका फहराने के उपरान्त स्वामीजी ने स्वदेश लौटकर भारतवासियों का स्वाभिमान जाग्रत कर उन्हें राष्ट्रहित और विश्व कल्याण के लिए अपनी आन्तरिक दिव्यता को प्रकट करने हेतु प्रेरित किया। मनुष्य निर्माण और राष्ट्रोत्थान के संकल्प को साकार करने में जुटे रहे स्वामीजी को 1902 में अमरत्व की प्राप्ति हुई।
वर्ष 1963 स्वामी विवेकानन्द की जन्मशती का वर्ष था। सम्पूर्ण भारत में जन्मशती को उत्साहपूर्वक मनाया जा रहा था, तब कन्याकुमारी के लोगों के मन में यह विचार आया कि जिस श्रीपाद् शिला पर स्वामीजी ने ध्यान किया था, उसी पर उनका एक भव्य स्मारक निर्मित किया जाना चाहिए। प्रयत्न आरंभ हुए, विवेकानन्द शिला स्मारक समिति ने इस कार्य हेतु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संपर्क कर सहयोग मांगा।
संघ सरसंघचालक श्रीगुरूजी गोलवलकर ने एकनाथजी रानडे को इस कार्य का दायित्व सौंपा। स्मारक निर्माण के लिए प्रयत्न आरंभ हुए तो इसमें कई प्रकार की समस्याएं सामने आयीं। प्रथम तो ईसाई समुदाय का अनर्गल विरोध, फिर तमिलनाडू सरकार की भी असहमती प्रत्यक्ष हुई। एकनाथजी ने अपनी सूझबूझ और व्यवहार कुशलता से स्मारक को राष्ट्रीय स्वरूप देते हुए प्रार्थना पत्र तैयार किया और उस पर भारत के विविध दलों के 323 सांसदों के हस्ताक्षर केवल तीन दिन में प्राप्त कर लिये। राष्ट्रीय समर्थन मिलने पर तमिलनाडु सरकार से सहमती मिलना आसान हो गया।
सहमती प्राप्त होने पर दूसरी कठिनाई अर्थसंग्रह की आयी। चूंकि यह मानव कल्याण की प्रेरणा देने वाले राष्ट्रीय स्मारक के रूप में बनना था, इसलिए विचार हुआ कि इसके निर्माण में अधिकाधिक भारतवासियों की सहभागिता होनी चाहिए। तब समिति ने प्रस्तावित स्मारक व स्वामी विवेकानन्द के चित्र और उनके प्रेरक उद्धरण के साथ एक-एक रूपये के पत्रक मुद्रित करवाए।
देशभर से लोगों ने एक व दो रूपये का सहयोग मुक्तहृदय से दिया, राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार से भी सहयोग प्राप्त हुआ। इस महायज्ञ में देश की सभी आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय संस्थाओं ने पूरा समर्थन व सहयोग दिया। फिर तीसरी समस्या आयी बीच समुद्र में निर्माण कार्य करने की। क्षारीय पानी में निर्माण बड़ा ही कठिन कार्य था। किन्तु अनेक विशेषज्ञों की राय से योजना बनी, विशिष्ट प्रकार के ग्रेनाइट व अन्य निर्माण सामग्री का चयन हुआ, नावों में सामग्री शिला तक पहुँचाने की व्यवस्था भी बनी।
इस प्रकार अनेक प्रकार की बाधाओं से जूझते हुए लगभग 650 श्रमिकों के परिश्रम से छह वर्ष के रिकार्ड समय में उस समय के मूल्यानुसार एक करोड़ तीस लाख रूपये की लागत से यह भव्य और दिव्य विवेकानन्द शिला स्मारक (Vivekanand Rock Memorial) बनकर तैयार हुआ। रामकृष्ण मठ बेलूड़ के अध्यक्ष स्वामी वीरेश्वरानन्द महाराज ने स्मारक को प्रतिष्ठित किया और इसका औपचारिक उद्घाटन भाद्रपद शुक्ल द्वितीया अर्थात 2 सितम्बर, 1970 को भारत के तात्कालीन राष्ट्रपति श्री वी.वी.गिरि ने किया। हिन्दू पंचांग की इसी तिथि (अंग्रेजी कलेण्डर की 11 सितम्बर, 1893) को स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो धर्म सम्मेलन में सम्बोधित किया था।
चूंकि यह एक ऐसा राष्ट्रीय स्मारक बना जिसमें विविध धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र और वर्ग के लगभग 35 लाख स्त्री-पुरूषों ने न्यूनतम एक रूपये के पत्रक के माध्यम से स्मारक के निर्माण में मनपूर्वक सहभागिता निर्वाह की थी, इसलिए सभी के मन में स्मारक पर आकर इस पावन स्थल को प्रणाम करने भाव था। कन्याकुमारी एक छोटा सा गाँव था और वहाँ अधिक लोगों के ठहरने की व्यवस्था भी संभव नहीं थी, इसीलिए यह निश्चित हुआ कि स्मारक का उद्घाटन समारोह दो महीनों तक चलेगा, विविध राज्यों के लिए अलग-अलग समयावधि भी निर्धारित की गई।
ऐसे संभवतः न भूतो न भविष्यति समारोह में नितप्रतिदिन आने वाले लोग, ओंकार और मंत्रोच्चार की गूंज से महकते स्मारक पर अपने पादुकारहित पाँव रखते ही प्रणाम करते, कोई सिर झुकाकर पावन माटी को मस्तक पर लगाता, कोई दण्डवत होकर इस पुण्य धरा को नमन करता भाव-विव्हल दर्शनार्थी मानो भारत को अपनी पहचान और आध्यात्मिक सामथ्र्य से अवगत कराने वाले तेजस्वी संत स्वामी विवेकानन्द के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए, उनके त्यागमयी जीवन और नर सेवा-नारायण सेवा के अनुपम संदेश से प्रेरणा प्राप्त करते हुए, स्वयं को धन्य अनुभूत कर रहे हों। अपने भारत से प्रेम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए निश्चित ही यह पवित्र स्थल भी एक तीर्थ ही बन गया है।
वास्तव में तो कन्याकुमारी को पवित्रता और एकाग्रता का महत्तम प्रतीक कहा जाना यथोचित ही होगा। भारत की पावन नदियां गंगा और सिंधु, नर्मदा और गोदावरी, कृष्णा और कावेरी गंगासागर, सिंधुसागर और हिन्द महासागर के जल में समाहित होकर अन्ततः तीन महासागरों के इसी मिलन स्थल में आकर मिलती हैं। हमारी पौराणिक आस्था तीन नदियों के संगम प्रयाग को पवित्र तीर्थ मानती है, तो फिर कन्याकुमारी तो पवित्रतम महासंगम ही है। यह पूर्व और पश्चिम का मिलन बिन्दु भी तो है, कन्याकुमारी में भारत के उस नुकीले छोर पर खड़े होकर हम पूर्व दिशा में उगते हुए और पश्चिम में अस्त होते हुए सूर्य के बिम्ब को समुद्र में देख सकते हैं। साथ ही यह उत्तर और दक्षिण का मिलन केन्द्र भी है, देवी कन्याकुमारी यहाँ सुदूर दक्षिणी छोर पर अपने हाथों में अपने स्वामी भगवान शंकर के लिए हार लिये खड़ी हैं, जो हिमालय के उत्तरी सिरे पर कैलाश में निवास करते हैं।
यह भावपूर्ण वर्णन करते हुए एकनाथजी कहते हैं-‘‘यह एकता और पवित्रता का अनोखा प्रतीक है। मेरी यह आस्था और विश्वास है कि जो महान स्मारक इस पवित्र स्थल पर साकार हो रहा है, वह आने वाले दिनों में स्वामी विवेकानन्द के विचारों की एक ऐसी सशक्त धारा को प्रवाहित करेगा कि समूचा राष्ट्र उससे आप्लावित हो जाएगा। यह सशक्त प्रवाह हमारे राष्ट्र, संस्कृति और लोगों में विद्यमान सभी उत्कृष्टताओं को एक करते हुए हमारे राष्ट्र-जीवन में फिर से नई स्फूर्ति का संचार करेगा और इस राष्ट्र को विश्व-कल्याण में अमूल्य भूमिका निभाने के लिए एक उपयुक्त और प्रभावकारी माध्यम के रूप में परिवर्तित कर देगा।‘‘
यथार्थ में आज हम पाते हैं कि कन्याकुमारी में समुद्र के मध्य में निर्मित यह विवेकानन्द शिला स्मारक एकता और पवित्रता के साथ-साथ पूरे राष्ट्र की एकीकृत महत्वाकांक्षाओं का अद्वितीय प्रतीक है। इस स्मारक में भारतीय स्थापत्य कला की समस्त सुदरता का अत्यन्त आनन्ददायक और मनमोहक मिलाप दिखाई देता है। यह निश्चित ही भारत की एकता का प्रतीक है, क्योंकि पूरे राष्ट्र ने इसके निर्माण की न केवल प्रबल इच्छा व्यक्त की वरन् पूर्ण दृढ़ता, विश्वास, श्रद्धा और मनोयोग से इसे साकार करने में महत्वपूर्ण योगदान भी दिया।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा है-‘‘भारत की राष्ट्रीय एकता विभिन्न आध्यात्मिक शक्तियों के एकीकरण द्वारा ही संभव है।‘‘ और यह कथन इस विराट स्मारक पर विविध धर्म-मान्यताओं के संतों के निरन्तर आगमन से साकार होता प्रतीत हो रहा है। उनके ओजस्वी संदेश की स्मृति को प्रत्यक्ष करता यह स्मारक आध्यात्मिक शक्तियों के केन्द्र के रूप में हमें आत्मबल प्रदान कर रहा है।
राष्ट्रीय एकात्म के प्रतीक शिला स्मारक पर प्रतिमा रूप में खड़े स्वामी विवेकानन्द आज भी हमें समाज और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य के निर्वहन का मार्ग दिखाते हुए आह्वान कर रहे हैं-‘‘भारत तभी जगेगा, जब सैंकड़़ों विशाल हृदय वाले स्त्री व पुरूष, अपनी सभी इच्छाओं व भोग विलास को त्यागकर अपने लाखों करोड़ों देशवासियों के कल्याण के लिए अधिकतम श्रम करेंगे।‘‘
लेखक प्रख्यात सहित्यकार एवं संस्कृतिकर्मी तथा विवेकानन्द केन्द्र राजस्थान प्रांत प्रांत साहित्य सेवा प्रमुख हैं।