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आचार्य विनोबा भावे : भूदान और ग्रामदान आंदोलन के प्रणेता

स्वराज करुण 
(ब्लॉगर एवं पत्रकार )

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के प्रमुख शिष्य, स्वतंत्रता संग्रामी तथा सर्वोदय, भूदान और ग्रामदान यज्ञ के प्रणेता आचार्य विनोबा भावे की आज 11 सितम्बर को जयंती है। विनोबा जी का मूल नाम विनायक नरहरि भावे था, लेकिन आगे चलकर वे ‘विनोबा’ के नाम से लोकप्रिय हुए। बताया जाता है कि उन्हें यह नाम महात्मा गांधी ने दिया था।

विनोबा जी का जन्म 11 सितम्बर 1895 को महाराष्ट्र के ग्राम गोदेद (जिला रायगढ़) में हुआ था। उनका निधन 15 नवम्बर 1982 को महाराष्ट्र के ही पवनार (वर्धा) में हुआ। पवनार आश्रम सर्वोदय आंदोलन का केंद्र रहा। उन्हें भारत सरकार ने मरणोपरांत 1983 में देश के सर्वोच्च नागरिक अलंकरण ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया था। उनके सम्मान में भारत सरकार ने डाक टिकट भी जारी किया था।

भूदान यज्ञ का संकल्प

विनोबा जी ने देश में व्याप्त भूमिहीनता की गंभीर समस्या को देखते हुए जमीन मालिकों से उनकी अतिरिक्त भूमि सरकार को दान करने की अपील की, ताकि यह भूमि जरूरतमंद परिवारों को दी जा सके। उन्होंने इसे भूदान यज्ञ का नाम दिया और इसके लिए लंबी पदयात्राएँ कीं।

यज्ञ में ‘आहुति’ की प्रेरणा

वर्ष 1951 से 1962-63 तक उन्होंने लगभग 80 हजार किलोमीटर की पदयात्रा की। गाँव-गाँव में भूमि स्वामियों को भूदान की प्रेरणा दी। वे जहाँ भी ठहरते, वहाँ छोटी-छोटी सभाएँ आयोजित होतीं और सम्पन्न भूमालिकों को इस यज्ञ में ‘आहुति’ के रूप में भूमि दान के लिए प्रेरित करते। उनकी समझाइश का गहरा असर हुआ।

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गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति (संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार का स्वायत्त निकाय) की पत्रिका ‘अनासक्ति दर्शन’ के भूदान विशेषांक (जुलाई 2010–जून 2011) में डॉ. पराग चोलकर का लेख ‘भूदान-ग्रामदान : एक सिंहावलोकन’ प्रकाशित हुआ है। इसमें विनोबा जी के आंदोलन के अनेक पहलुओं का उल्लेख मिलता है।

पोचमपल्ली की ऐतिहासिक घटना

अप्रैल 1951 में तेलंगाना के शिवरामपल्ली में सर्वोदय समाज का सम्मेलन हुआ। इसी यात्रा के दौरान 18 अप्रैल 1951 को पोचमपल्ली में वह ऐतिहासिक घटना घटी, जिससे भूदान आंदोलन का जन्म हुआ। दलितों की जमीन की मांग सुनने पर विनोबा जी ने गांववालों से पूछा कि क्या वे इसमें कुछ मदद कर सकते हैं? इस पर रामचंद्र रेड्डी नामक सज्जन ने अपने पिता की इच्छा अनुसार 100 एकड़ भूमि दान करने की घोषणा की।

विनोबा जी ने इस घटना को भूमि हस्तांतरण का अहिंसक तरीका माना। यहाँ मिली जमीन का ट्रस्ट बनाकर दलित परिवारों को सामूहिक खेती के लिए दिया गया। यही से भूदान यज्ञ की शुरुआत हुई।

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भूदान यात्रा और उपलब्धियाँ

पोचमपल्ली से आगे बढ़ते हुए तंगलपल्ली और अन्य गाँवों में विनोबा जी को भूमि दान मिलता गया। केवल तेलंगाना की यात्रा में ही 58 दिनों में 200 गाँवों से 12,201 एकड़ जमीन मिली। डॉ. पराग के अनुसार 30 सितम्बर 1962 तक 5,30,344 दाताओं ने कुल 41.62 लाख एकड़ भूमि दान दी। इसमें से 11.20 लाख एकड़ भूमि 3,13,866 भूमिहीन परिवारों को वितरित की गई। साथ ही 5,079 ग्रामदान भी हुए।

हालाँकि भूदान प्राप्ति बाद में धीमी हो गई, लेकिन आंदोलन ने भूमि सुधार की दिशा में नया रास्ता दिखाया।

सुलभ ग्रामदान की अवधारणा

विनोबा जी ने सुलभ ग्रामदान की कल्पना प्रस्तुत की। इसके प्रमुख बिंदु थे—

  1. गाँव के कम से कम 75% भूमि मालिक अपनी जमीन ग्रामसभा को समर्पित करें।

  2. यह जमीन गाँव की कुल भूमि का न्यूनतम 51% हो।

  3. ग्रामदान को 75% लोग मान्य करें।

  4. प्रत्येक मालिक की जमीन का 5% भूमिहीनों को दिया जाए।

  5. शेष 95% भूमि मालिकों के पास रहे, लेकिन उसका हस्तांतरण ग्रामसभा की अनुमति से ही हो।

  6. गाँव के लोग अपनी आय का 2.5% ग्रामसभा को दें, जिससे ग्रामकोष बने और इसका उपयोग ग्राम विकास व जरूरतमंदों की मदद में हो।

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इस व्यवस्था को ग्रामस्वराज की दिशा में महत्वपूर्ण माना गया।

छत्तीसगढ़ प्रवास

विनोबा जी रायपुर भी आए थे। दिसम्बर 1963 में उनकी उपस्थिति में यहाँ सर्वोदय सम्मेलन हुआ। इसमें सुलभ ग्रामदान, ग्रामाभिमुख खादी और शांति-सेना का तीन सूत्रीय कार्यक्रम स्वीकृत हुआ। रायपुर से वे वर्धा लौटे, लेकिन जून 1964 में स्वास्थ्य कारणों से पदयात्राएँ स्थगित करनी पड़ीं।

स्वतंत्रता संग्राम और साहित्य

महात्मा गांधी ने 17 अक्टूबर 1940 को व्यक्तिगत सत्याग्रह का प्रथम सत्याग्रही विनोबा जी को चुना। कारावास के दौरान उन्होंने साहित्य साधना की और तीन महत्वपूर्ण कृतियाँ लिखीं—

  • स्वराज्य-शास्त्र

  • स्थितप्रज्ञ दर्शन

  • ईशावास्य वृत्ति

मानवता के कल्याण के लिए पदयात्रा

विनोबा जी की पदयात्रा किसी ‘पद’ के लिए नहीं, बल्कि मानवता के कल्याण के लिए थी। 13 वर्षों में 80 हजार किलोमीटर की यह यात्रा भूमिहीनों को भूमि दिलाने की दिशा में एक अद्भुत प्रयास थी। उनका उद्देश्य था— भूमि जैसी प्राकृतिक संपदा पर सबका समान अधिकार हो।

लेकिन खेद का विषय है कि आज जबकि भूमिहीनता की समस्या बढ़ती जा रही है, तब उनके महान भूदान आंदोलन को लगभग भुला दिया गया है। जबकि यह आंदोलन भारत में भूमि सुधार का एक स्वैच्छिक और ऐतिहासिक उदाहरण था।