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स्वाभिमान और रणकौशल के प्रतीक महावीर दुर्गादास राठौर

निसंदेह भारत में परतंत्रता का अंधकार सबसे लंबा रहा। असाधारण दमन और अत्याचार हुए, पर भारतीय मेधा ने दासत्व को कभी स्वीकार नहीं किया। भारत भूमि ने प्रत्येक कालखंड में ऐसे वीरों को जन्म दिया, जिन्होंने आक्रांताओं और अनाचारियों को न केवल चुनौती दी, अपितु उन्हें अपनी शक्ति और युक्ति से झुकने के लिये विवश किया। ऐसे ही वीर योद्धा हैं दुर्गादास राठौर, जिन्होंने अपने रणकौशल से न केवल औरंगजेब को पराजित किया, बल्कि उसे झुकाकर अपनी शर्तों पर ही समझौता किया और जोधपुर में स्वतंत्र सनातन राज्य की स्थापना की।

वीर ठाकुर दुर्गादास राठौर का जन्म 13 अगस्त 1638 को ग्राम सालवा में हुआ था। उनके पिता आसकरण राठौर, ग्राम जुनेजा के जागीरदार थे। माता नेतकंवर धार्मिक, सांस्कृतिक और परंपराओं के प्रति समर्पित विचारों की थीं। पति महाराजा जसवंत सिंह की सेवा में थे। विषमताओं के चलते, अपनी रणनीति के अंतर्गत महाराजा जसवंत सिंह मुगलों के सैन्य अभियान में सम्मिलित रहते थे, पर उनका प्रयास होता था कि युद्ध के बाद विजेता मुगल सेना से सनातन प्रतीकों को कम से कम क्षति हो। उनके साथ आसकरण राठौर भी युद्ध में जाया करते थे। यह बात माता नेतकंवर को पसंद नहीं थी। उन्हें अपना पुत्र दुर्गा, माता की आराधना से मिला था, इसलिए उन्होंने पुत्र का नाम दुर्गादास रखा। वे नहीं चाहती थीं कि उनका बेटा बड़ा होकर मुगलों के लिये युद्ध करे, इसलिये वे अपने बेटे को लेकर लुनावा गाँव आ गईं।

दुर्गादास का पालन-पोषण वहीं गाँव में हुआ। समूचे वन और पर्वतीय क्षेत्र के निवासी उन्हें अपना मानते थे और उनका एक बड़ा समूह बन गया था। हथियार चलाना, सुरक्षा करना, मल्लयुद्ध आदि में वे प्रवीण हो गए थे। इसी बीच 1678 में महाराजा जसवंत सिंह का निधन हो गया। उन दिनों वे मुगलों की ओर से अफगानिस्तान के अभियान में थे। यह माना जाता है कि औरंगजेब ने षड्यंत्रपूर्वक महाराजा जसवंत सिंह को अफगानिस्तान के अभियान में भेजकर उनके वीर पुत्र पृथ्वी सिंह को आगरा बुलवाया, पहले उनसे युद्ध कराया, फिर विष देकर मरवा दिया। महाराजा को यह समाचार अफगानिस्तान में मिला और वहीं उनका निधन हो गया। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि महाराजा जसवंत सिंह की अफगानिस्तान में हत्या की गई थी।

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जब महाराजा का निधन हुआ, तब उनकी दो रानियां गर्भवती थीं। औरंगजेब ने मौके का लाभ उठाकर जोधपुर पर कब्जा कर लिया। मंदिर ध्वस्त किये जाने लगे और जजिया कर लगा दिया गया। पृथ्वी सिंह के साथ हुए व्यवहार की प्रतिक्रिया पूरे राजपूताना में हुई। वीरों ने कमर कसी और वीर ठाकुर दुर्गादास भी जोधपुर आए। उन्होंने रानियों को सती होने से रोका और सुरक्षित वन में ले गए। महाराजा के निधन के तीन माह पश्चात दोनों रानियों ने एक-एक पुत्र को जन्म दिया। वन में ही योजना बनी कि बालक अजीत सिंह को आगे करके मारवाड़ का शासन दोबारा प्राप्त किया जाए।

तब मारवाड़ के अंतर्गत आज के जोधपुर, बाड़मेर, पाली आदि जिले आते थे, लेकिन औरंगजेब ने इंकार कर दिया। तब युद्ध का निर्णय हुआ और राजपूतों ने इसकी कमान वीर दुर्गादास को सौंपी। वीर दुर्गादास राठौर ने दक्षिण भारत की यात्रा की और छत्रपति शिवाजी महाराज से भेंट की। लौटकर 1679 से छापामार युद्ध आरंभ किया। 1680 में औरंगजेब ने एक बड़ी फौज मारवाड़ भेजी और महाराजा जसवंत सिंह की रानियों, अजीत सिंह और दुर्गादास को पकड़कर लाने का आदेश दिया।

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वीर दुर्गादास राठौर को इसकी पूर्व जानकारी थी, इसलिए उन्होंने पहले से तैयारी कर ली। मुगल सेना का रसद मार्ग रोक दिया गया और फौज को अरावली के वन-पर्वत क्षेत्र में भटककर वापस लौटना पड़ा। इसी बीच कुशल रणनीतिकार दुर्गादास राठौर ने औरंगजेब के विद्रोही पुत्र, शहजादा अकबर को अपनी ओर मिला लिया। शहजादा अकबर अपने परिवार सहित 1681 में मारवाड़ आ गया। वीर दुर्गादास ने चुनिंदा वीर राजपूतों की टोली से इस परिवार को संरक्षण प्रदान किया।

यह समाचार सुनकर औरंगजेब क्रोधित हो गया और उसने पुनः फौज भेजी, लेकिन इस बार भी उसे असफलता ही हाथ लगी। इधर, शहजादे अकबर की बेटी का अच्छा मेलजोल राजकुमार अजीत सिंह से हो गया। यह खबर औरंगजेब के पास पहुंची। अपनी युक्ति के अंतर्गत वीर दुर्गादास राठौर ने औरंगजेब को संदेश भेजा कि शीघ्र ही मुगल शहजादी का विवाह राजकुमार अजीत सिंह से होने वाला है। इससे औरंगजेब विचलित हो गया। वह नहीं चाहता था कि मुगल शहजादी का विवाह अजीत सिंह से हो।

उसने वीर दुर्गादास के पास समझौते का प्रस्ताव भेजा, जिसमें अजीत सिंह को मुगलों के अंतर्गत राजा की मान्यता और दुर्गादास को तीन हजार के मनसब की पेशकश थी। इसके बदले में शहजादे अकबर को परिवार सहित लौटाने की शर्त थी, जिसे वीर दुर्गादास ने अस्वीकार कर दिया। अंत में औरंगजेब झुका और उसने वीर दुर्गादास राठौर की हर शर्त मानी, जिसमें जोधपुर राज्य की पूर्ण स्वतंत्रता, मुगल कानून लागू न होना, रियासत को अपना स्वतंत्र कानून बनाने, अपना सिक्का चलाने और अपना स्वतंत्र ध्वज फहराने का अधिकार शामिल था। यह निर्णय लेने का अधिकार भी राजा का होगा कि वह मुगलों के समर्थन में युद्ध करे या तटस्थ रहे।

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समझौते की बातचीत 1687 में हुई और अजीत सिंह का राज्याभिषेक जोधपुर में हो गया। लेकिन वीर दुर्गादास, औरंगजेब के धोखे को जानते थे, इसलिए उन्होंने शहजादे अकबर के परिवार को नहीं लौटाया और सूचना भेजी कि शहजादे हज को चले गए हैं। अंत में पूरी तरह आश्वस्त होकर वीर दुर्गादास ने अनेक लिखित सहमति पत्र लेकर 1698 में शहजादे के परिवार को भेज दिया। मंदिरों के जीर्णोद्धार और अन्य निर्माण कार्य 1702 तक चले। जोधपुर रियासत ने अपनी फौज भरती की और अपना सिक्का चलाया।

इस प्रकार मुगल काल में जोधपुर दूसरी रियासत थी जिसने अपना स्वायत्त शासन स्थापित किया। उनसे पहले शिवाजी महाराज ने हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना की थी। जोधपुर में राष्ट्र, समाज और संस्कृति का गौरव स्थापित करने का कार्य पूरा कर के वीर दुर्गादास राठौर 1708 में महाकाल की सेवा में उज्जैन आ गए। यहां संतों की सेवा की और असामाजिक तत्वों से सनातनियों की सुरक्षा की। अंत में यहीं 22 नवम्बर 1718 को उन्होंने संसार से विदा ली और परम ज्योति में विलीन हो गए।

राजस्थान और राजपूताना की लोक गाथाओं में वे आज भी अमर हैं। ऐसे स्वाभिमानी महावीर दुर्गादास राठौर को शत-शत नमन।