आस्था, प्रकृति और जैवविविधता संरक्षण का पर्व : वट सावित्री व्रत

हमारे पुरखे प्रकृति पूजक थे, उन्होंने जैवविविधता के महत्व को समझा एवं अपने धार्मिक कार्यों का प्रकृति को केन्द्र बिंदू बनाया, क्योंकि उन्हें ज्ञात था कि प्रकृति से सह अस्तित्व के बिना मनुष्य का जीवन कष्टकारी ही होगा। भारतीय संस्कृति में त्योहार केवल धार्मिक आस्था से जुड़ी परंपराएं नहीं होते, बल्कि वे प्रकृति से मानव के संबंध को भी सुदृढ़ करते हैं। वट सावित्री व्रत इसी प्रकार का एक पर्व है, जिसे विशेष रूप से विवाहित हिंदू महिलाएं अपने पति की दीर्घायु और सुख-समृद्धि की कामना हेतु करती हैं। यह व्रत भारत में ज्येष्ठ अमावस्या को मनाया जाता है। इस दिन महिलाएं वट (बरगद) वृक्ष की पूजा करती हैं, जो भारतीय परंपरा में अत्यंत पूज्य और पवित्र माना गया है।
वट वृक्ष को हिंदू धर्म में अमरत्व और दीर्घायु का प्रतीक माना गया है। यह त्रिदेवों ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रतीक भी समझा जाता है। इसकी जड़, तना और शाखाएं क्रमशः इन तीनों देवों का प्रतिनिधित्व करती हैं। वट सावित्री व्रत, वट पूर्णिमा, और वट पूजा जैसे पर्वों में महिलाएं इसकी पूजा अपने पति की लंबी आयु और सुख-समृद्धि की कामना के लिए करती हैं। वट सावित्री व्रत की पौराणिक पृष्ठभूमि महाभारत के वनपर्व में वर्णित सावित्री और सत्यवान की कथा से जुड़ी है। सावित्री ने अपने ज्ञान, तप और संकल्प के बल पर यमराज से अपने पति सत्यवान के प्राण वापस लिए थे। यह कथा न केवल नारी शक्ति का प्रतीक है, बल्कि यह बताती है कि समर्पण और संकल्प से असंभव भी संभव हो सकता है। कथा के अनुसार सावित्री ने वट वृक्ष के नीचे तपस्या की थी, इसलिए इस वृक्ष की पूजा इस पर्व का एक अनिवार्य अंग बन गई।
सावित्री सत्यवान कथा
बहुपत्नीव्रत का पालन कर रहे राजा अश्वपति को कोई संतान नहीं थी। उन्होंने संत नारद के कहने पर पुत्री प्राप्ति के लिए कई वर्षों तक कठोर तप और व्रत किया। अंततः उन्हें एक तेजस्विनी कन्या प्राप्त हुई, जिसका नाम उन्होंने सावित्री रखा। सावित्री अत्यंत सुंदर, बुद्धिमान और धर्मपरायण थी।
जब वह विवाह योग्य हुई, तो राजा ने उससे कहा कि वह स्वयं योग्य वर की खोज करे। सावित्री ने वन में रहने वाले एक तेजस्वी युवक सत्यवान को चुना, जो अंधे और निष्कासित राजा द्युमत्सेन का पुत्र था। जब उसने यह निर्णय सुनाया, तो नारद मुनि ने चेताया कि सत्यवान बहुत धर्मात्मा है लेकिन उसकी आयु केवल एक वर्ष शेष है। सावित्री ने निश्चयपूर्वक कहा कि उसने एक बार जिसे पति मान लिया, उसी से विवाह करेगी। राजा अश्वपति ने बेटी की दृढ़ता देख विवाह की अनुमति दे दी।
सावित्री ने सत्यवान से विवाह किया और वन में उसके परिवार के साथ रहने लगी। उसने मन में यह ठान लिया कि वह अपने पति की रक्षा अवश्य करेगी। विवाह के बाद जैसे-जैसे समय बीतता गया, अंततः वह दिन आ गया जब सत्यवान की मृत्यु निश्चित थी। उस दिन सावित्री ने उपवास किया, दिन भर व्रत रखा और सत्यवान के साथ वन में लकड़ियां लाने गई। जंगल में काम करते समय अचानक सत्यवान को सिर में तेज़ दर्द हुआ और वह सावित्री की गोद में गिर पड़ा। तभी यमराज वहाँ प्रकट हुए और सत्यवान के प्राण निकालकर दक्षिण दिशा की ओर चलने लगे।
सावित्री ने उनका पीछा करना शुरू किया। यमराज ने पहले उसे मना किया, लेकिन सावित्री ने धर्म, सेवा और नारी के कर्तव्यों की बात करते हुए विनम्रतापूर्वक संवाद किया। उसकी बातों से यमराज प्रभावित हुए और बोले कि वह कोई तीन वर मांग सकती है, परंतु सत्यवान के जीवन से संबंधित कोई वर नहीं मांग सकती।
सावित्री ने पहला वर माँगा – उसके ससुर द्युमत्सेन की आँखों की रोशनी और उनका खोया हुआ राज्य वापस मिल जाए।
दूसरा वर माँगा – उसके पिता अश्वपति को सौ योग्य पुत्र प्राप्त हों।
तीसरा वर माँगा – वह स्वयं सौ पुत्रों की माँ बने।
यह सुनकर यमराज को समझ आया कि बिना सत्यवान के यह संभव नहीं। सावित्री की चतुराई, समर्पण और पवित्रता से प्रभावित होकर यमराज ने उसे सत्यवान का जीवनदान भी दे दिया। सत्यवान जीवित हो गया। उसका पिता राजा द्युमत्सेन फिर से राजगद्दी पर बैठा। सावित्री के पिता को भी संतान प्राप्त हुई। इस प्रकार सावित्री ने अपने धर्म, ज्ञान और संकल्प के बल पर असंभव को संभव कर दिखाया।
बरगद वृक्ष का पारिस्थितिक महत्व
बरगद वृक्ष का पारिस्थितिक महत्व अत्यंत विशिष्ट है। यह विशाल आकार का वृक्ष होता है, जिसकी शाखाओं से निकलने वाली हवाई जटाएं ज़मीन में पहुंचकर नई जड़ों का निर्माण करती हैं, जिससे यह वृक्ष सदियों तक जीवित रह सकता है। यह निरंतर जीवन और पुनरुत्थान का प्रतीक है। इस वृक्ष की छाया घने और विशाल क्षेत्र में फैलती है, जो गर्मी और धूप में मनुष्यों, पशुओं और पक्षियों के लिए विश्राम स्थल का कार्य करती है। इसकी जड़ें मिट्टी के कटाव को रोकती हैं और भूजल संरक्षण में सहायक होती हैं। बरगद वृक्ष वायुपरिशोधन में भी अत्यंत उपयोगी है — यह अधिक मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित करता है और ऑक्सीजन छोड़ता है, जिससे वायु की गुणवत्ता में सुधार होता है।
वट वृक्ष केवल धार्मिक दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि यह पारिस्थितिकी और जैवविविधता की दृष्टि से भी अत्यंत मूल्यवान है। इसे भारत का राष्ट्रीय वृक्ष भी घोषित किया गया है। यह वृक्ष विशाल छाया देता है, जो गर्मी के मौसम में मानव और पशु दोनों के लिए राहत का स्थान बनता है। इसकी शाखाओं से निकलने वाली हवाई जटाएं ज़मीन में जड़ पकड़कर इसे वर्षों तक जीवित बनाए रखती हैं, जो निरंतर जीवन का प्रतीक है। साथ ही, इसकी जड़ें भूजल संरक्षण में भी सहायक होती हैं।
जैवविविधता का पोषण
जैवविविधता के पोषण की दृष्टि से भी वट वृक्ष अत्यंत उपयोगी है। इसकी शाखाओं में कई प्रकार के पक्षी घोंसले बनाते हैं और इसके फल, पत्तियाँ तथा गोंद अनेक कीट-पतंगों और मधुमक्खियों को आकर्षित करते हैं। इससे परागण की प्रक्रिया चलती रहती है, जो पर्यावरणीय संतुलन के लिए आवश्यक है। इसके फल अंजीर जाति के होते हैं, जो पक्षियों और कुछ स्तनधारी जीवों के लिए पोषण का स्रोत बनते हैं।
बरगद वृक्ष का उपयोग प्राचीन भारतीय चिकित्सा प्रणाली, आयुर्वेद, में अनेक रोगों के इलाज में किया जाता रहा है। इसकी छाल, पत्तियाँ, गोंद और जड़ें विभिन्न रोगों जैसे मधुमेह, बवासीर, त्वचा रोग, दंत रोग, दस्त और रक्त संबंधी विकारों में लाभकारी मानी जाती हैं। इसकी गोंद को बलवर्धक माना जाता है, जबकि पत्तियों का लेप त्वचा पर लगाने से चर्म रोगों में राहत मिलती है।
वट वृक्ष वायुपरिशोधन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड को सोखकर ऑक्सीजन उत्सर्जित करता है। इसके अलावा, इसकी छाल, पत्तियाँ, गोंद और जड़ें आयुर्वेद में अनेक रोगों के उपचार में उपयोगी मानी जाती हैं। यह मधुमेह, दांतों की समस्याएं, त्वचा रोग और बवासीर जैसे रोगों में लाभकारी होता है।
प्रकृति संरक्षण के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण
वट सावित्री व्रत प्रकृति संरक्षण के दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्वपूर्ण पर्व है। जब महिलाएं वट वृक्ष की पूजा करती हैं, तो वे उसकी रक्षा और दीर्घजीवन की कामना करती हैं। यह वृक्ष के प्रति सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना को जन्म देता है। कई स्थानों पर इस दिन महिलाएं नए वट वृक्ष लगाती हैं, जिससे स्थानीय जैवविविधता को बल मिलता है। यह पर्व परंपरागत ज्ञान को पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित करने का माध्यम भी बनता है, जैसे कौन-से वृक्ष औषधीय हैं, उन्हें क्यों पूजनीय माना गया है आदि। जब गांव या मोहल्ले की महिलाएं सामूहिक रूप से वट वृक्ष की पूजा करती हैं, तो वह वृक्ष केवल एक पेड़ नहीं रह जाता, वह एक सामूहिक धरोहर बन जाता है, जिसकी रक्षा की जिम्मेदारी पूरे समाज की हो जाती है।
अंततः यह कहा जा सकता है कि वट सावित्री व्रत केवल एक धार्मिक परंपरा नहीं है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति का ऐसा पक्ष है जिसमें आस्था के साथ-साथ प्रकृति, प्रेम और पारिवारिक मूल्यों की गहरी समझ समाहित है। आज जब पर्यावरणीय संकट और जैवविविधता का ह्रास गंभीर चिंता का विषय बन चुका है, ऐसे में वट सावित्री जैसे पर्वों का महत्व और बढ़ जाता है। इन्हें केवल परंपरा के रूप में नहीं, बल्कि पर्यावरणीय चेतना के उत्सव के रूप में भी मनाया जाना चाहिए।