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खेलत अवधपुरी में फाग, रघुवर जनक लली

होली हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। भारतीय संस्कृति का अनूठा संगम उनकी त्योहारों और पर्वो में दिखाई देता है। इन पर्वो में न जात होती है न पात, राजा और रंक सभी एक होकर इन त्योहारों को मनाते हैं। सारी कटुता को भूलकर अनुराग भरे माधुर्य से इसे मनाते हैं। इसीलिए होली को एकता, समन्वय और सदभावना का राष्ट्रीय पर्व कहा जाता है।

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परंपरा, संस्कृति और सामाजिक समरसता का त्यौहार होली

होलिकोत्सव भारत में ही नहीं भारत की सीमा से बाहर विश्व के अनेक देशों में भी मनाया जाता है। भारत के सभी पड़ौसी देशों नेपाल, बंगलादेश, पाकिस्तान, म्यांमार, श्रीलंका, सुरीनाम, मारीशस, दक्षिण अफ्रीका, गुयाना, ट्ररीनाड आदि देशों के साथ अमेरिका, फ्रांस ब्रिटेन जर्मनी आदि देशों में भी प्रवासी भारतीय होलिकोत्सव मनाते हैं। काठमांडू में तो यह उत्सव एक सप्ताह तक चलता है।

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भारतवर्ष के अमृतकाल मे वंदे मातरम की प्रासंगिकता

विश्व इतिहास मे नारों का अपना इतिहास रहा हैं, कभी कभी तो एक नारा पूरे आंदोलन को बदल के रख देता हैं। इतिहास मे ऐसे कई उदाहरण हैं, जैसे स्वराज मेरा जन्मसिद्धह अधिकार हैं, गरीबी हटाओ आदि आदि। वर्तमान के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव मे भी हमने देखा होगा की कैसे कुछ नारे “एक हैं तो सेफ हैं” या “बटेंगे तो कटेंगे” पूरे चुनाव मे हावी रहा

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सामाजिक समरसता और भारतीय सांस्कृतिक एकता का महोत्सव महाकुंभ

भारत के इतिहास में जहाँ तक दृष्टि जाती है कुंभ के आयोजन का संदर्भ मिलता है। मौर्यकाल में भी और शुंग काल में भी। गुप्तकाल में तो कुंभ का बहुत विस्तार से वर्णन मिलता है। गुप्तकाल के इस विवरण में ग्रहों की स्थिति के अनुसार कुंभ के आयोजन का उल्लेख है।

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श्रीराम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा है हिंदू जागरण का शंखनाद

श्री राम मंदिर निर्माण का संघर्ष और उसकी सफलता हिंदू समाज के लिए एक युगांतकारी घटना है। इसने समाज को जागरूक, संगठित और प्रेरित किया है। वैश्विक पटल पर राम मंदिर ने भारत की सांस्कृतिक और धार्मिक धरोहर को सुदृढ़ किया है। यह मंदिर न केवल आस्था का केंद्र है, बल्कि भारतीयता और एकता का प्रतीक भी है।

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साहित्य, इतिहास और समाज जागरण के अग्रदूत: वैद्य गुरुदत्त

वैद्य गुरुदत्त ऐसे ही निर्भीक और राष्ट्रीय अस्मिता के लिये समर्पित लेखक और इतिहासकार थे । जिनका पूरा जीवन सत्य को समर्पित रहा। समाजिक जागरण केलिये ऐसा कोई विषय नहीं जिसपर गुरुदत्त जी लेखनी न चली हो।

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