सुशांत सिंहल : घुमक्कड़ी व्यक्तित्व को पूर्णता भी प्रदान करती है।
1- आप अपनी शिक्षा-दीक्षा, अपने बचपन का शहर एवं बचपन के जीवन के विषय में पाठकों को बताएं कि वह समय कैसा था। @ नमस्कार ललित जी, आपका हार्दिक आभार, बचपन का ज़िक्र आते ही मेरी आंखों के सामने कुछ दृश्य कौंधते लगते हैं, बहुत सारी खट्टी-मीठी यादें हैं बचपन की। मेरा जन्म मेरे माता-पिता के विवाह के 22 वर्ष के बाद देहरादून के जिला अस्पताल में वर्ष 1958 में हुआ था। मेरी प्रारंभिक शिक्षा (कक्षा २ तक) घर में ही एक अध्यापक को बुला कर कराई गयी थी। फिर नगर पालिका के स्कूल में काले रंग की तख्ती, बांस के पोरे की कलम, खड़िया वाली सफेद स्याही और एक बस्ता लेकर जाते हुए बच्चे का दृश्य आंखों के सामने उभरने लगता है।
एक और दृश्य सामने आ रहा है – घर में ही एक बड़े से ब्लैकबोर्ड पर मैं गणित के सवाल हल कर रहा हूं और पिताजी मेरे पीछे ही कहीं छड़ी लिये हुए बैठे हैं। जरा गलती हुई और तड़ाक से एक लगता था ! गलतियां तो होती ही रहती थीं ! After all, to err is human! वैसे भी, गणित से मेरी जन्म–जन्म की दुश्मनी भी तो रही है। वैसे आज सोचता हूं तो लगता है कि पिटाई के डर से ही मैं गणित में अपना आत्मविश्वास गंवा बैठा था। दो दुनी चार करते हुए भी दो बार मन ही मन जांचता था कि गलत तो नहीं है।
मेरी दोनों बहनें मुझ से बड़ी हैं – एक 7 वर्ष बड़ी, और दूसरी साढ़े तीन वर्ष बड़ी अतः मेरी मां और दोनों बहनें मेरा जन्मदिन खूब धूमधाम से मनाया करती थीं। एक छोटा भाई भी है जो देहरादून में ही है.
एक और स्मृति है – सन् 1965 के भारत पाकिस्तान युद्ध की। रोज़ रात को खतरे का सायरन बजते ही ब्लैक आउट होता था। हर घर की खिड़कियों पर बांस पेपर या काला कागज़ चिपकाने के और ब्लैक आउट के समय घर में सिर्फ ज़ीरो वाट का बल्ब जलाने के आदेश थे। एक सायरन बजता तो सारी लाइटें बन्द करनी होती थीं और दूसरा सायरन बजने पर लाइट जलाई जा सकती थीं। मैं भी हाथ में एक डंडा लेकर अपने घर के बाहर वाली सड़क पर ठकठकाता हुआ घूमता था और पड़ोसियों को डांटता था – “लाइटें बन्द करो, लाइटें बन्द करो!”
सच, उन दिनों की याद करके आज भी रोमांच हो आता है। कक्षा 5 तक नगरपालिका के स्कूल में पढ़ाई के बाद, सनातन धर्म जूनियर हाई स्कूल में कक्षा 6 से 8 तक पढ़ा जिसमें संस्कृत व गणित पढ़ाने वाले उनियाल गुरुजी मेरी हथेली आगे करा कर खड़े फीटे मारते थे। मन करता था, इनका एनकाउंटर करा दूं! कक्षा 9 से 12 तक गांधी इंटर कॉलेज में मेरा पढ़ाई का स्वर्णिम काल रहा जब मुझे अपने सभी अध्यापकों से बेइंतहाशा प्यार मिला और अपनी कक्षा का सर्वश्रेष्ठ छात्र माना जाता रहा, हर साल मॉनीटर भी बनाया गया। डी.ए.वी. कॉलेज, देहरादून से बी.कॉम और एल.एल बी करते समय यारी दोस्ती में ज्यादा ध्यान रहा।
2- वर्तमान में आप क्या करते हैं और परिवार में कौन – कौन है? @ वर्ष 1980 में बैंक सेवा में आया तो झांसी पोस्टिंग मिली और देहरादून हमेशा के लिये पीछे कहीं छूट गया। वर्ष 2000 तक बैंक सेवा के दौरान अनेकानेक शहरों में रहा फिर स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति लेकर अपना कार्य आरंभ किया जो आर्थिक दृष्टि से कोई विशेष लाभकारी नहीं रहा। वर्ष 2010 में सहारनपुर के एक स्थानीय बैंक ने महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व सौंपने हेतु बुलावा भेजा तो अगले ही दिन खुशी – खुशी वहीं ज्वाइन कर लिया और आज तक वहीं सेवारत हूं।
वर्ष 1983 में (जब में झांसी से सहारनपुर में आ चुका था) तो किराये के एक मकान में रहने लगा। मेरे मकानमालिक का परिवार मेरे ’सद्व्यवहार और सच्चरित्रता’ पर इतना मुग्ध हो गया कि अपने परिवार की एक योग्य, ’सुशील’, गुणवती उच्च शिक्षित कन्या से मेरा विवाह संबंध कर दिया और मई 1984 में शादी भी हो गयी। भगवान जी ने मुझे दो बेटों का सुख दिया है – बड़ा बेटा और उसकी पत्नी सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं और विभिन्न देशों में रहते हुए आजकल आस्ट्रेलिया के सिडनी शहर में हैं। छोटा बेटा एम.बी.बी.एस. और एम.एस. करने के बाद आजकल सहारनपुर के मैडिकल कॉलेज में सर्जन है। पत्नी भी पिछले 20-25 वर्ष से घर में ही कोचिंग सेंटर चलाती हैं और कक्षा 9 व 10 को विज्ञान व गणित पढ़ाती हैं। मेरे दोनों बच्चों के कैरियर निर्माण में मेरी पत्नी ने हर प्रकार से और अभूतपूर्व योगदान दिया है और सच कहूं तो इसका पूरा श्रेय उनको ही जाता है।
3- घूमने की रुचि आपके भीतर कहां से जागृत हुई? @ बचपन में मैं हरिद्वार या मुज़फ्फरनगर से आगे कहीं गया हूं, ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता। वर्ष 1970 में पहली बार मेरे चाचाजी मुझे व मेरे चचेरे भाई को लेकर देहू रोड (पूना से लगभग 25 किमी पहले) गये थे 20 दिनों के लिये। उस दौरान हम माथेरान सहित काफी कुछ घूमे और उस यात्रा का रोमांच आज तक कायम है।
सन् 1972 में बड़ी बहिन का विवाह हुआ और वह मुंबईवासी हो गयीं तो हर वर्ष भाई-दूज पर मुंबई जाने का सिलसिला शुरु हो गया जो मेरे बच्चों के स्कूल जाने की आयु होने तक चलता ही रहा। स्वाभाविक रूप से हमारे जीजाजी के ये परम कर्तव्य रहा कि जब हम भाई दूज पर मुंबई पहुंचें तो हमें साथ लेकर कहीं घूमने जायें। हमारे विवाह के बाद गोवा यात्रा उनके साथ ही हुई। सन् 1980 से 1983 के दौरान मैं झांसी में रहा तो उस दौरान मुंबई के अलावा ओरछा, जबलपुर, भेड़ाघाट, धुंआधार, कटनी, चित्रकूट, खजुराहो, दतिया, मथुरा, वृंदावन आदि की यात्रा के अवसर मिले।
4-आप घुमक्क्ड़ी का अपने परिवार के साथ कैसे सामंजस्य बैठाते हैं?
@ मेरे परिवार को मालूम है कि घूमने का मुझे बहुत शौक है। बारह-पन्द्रह वर्ष पहले का एक मजेदार किस्सा याद आ रहा है। शाम को बैंक से घर आया तो पत्नी बोलीं कि बच्चे हरिद्वार-ऋषिकेश चलने के लिये कह रहे हैं। चलें क्या? मैने कहा कि अब तो 5.30 बजे हैं। कब तैयारी करोगी, कब निकलेंगे और कब पहुंचेंगे!!! वह बोलीं कि वह सब तो मैनेज कर लिया जायेगा। आप बताओ, आपको तो कोई दिक्कत नहीं है ना चलने में? मैने जैसे ही कहा कि मुझे कोई दिक्कत नहीं है तो बच्चे खुशी से उछल पड़े। पत्नी ने बताया कि अटैची – बैग सब गाड़ी में रखे जा चुके हैं, बस आपके आने की ही इंतज़ार थी। हमें पता था कि आप घूमने के लिये ’ना’ कह ही नहीं सकते सो सूटकेस वगैरा बच्चों ने पहले ही कार में रखा हुआ है। आप कार बाहर निकालिये, तब तक मैं कॉफी बनाती हूं आपके लिये! 😉
यही नहीं, हमारी उदयपुर, काश्मीर, पिछले वर्ष की नॉर्थ ईस्ट यात्रा और 2017 की गुजरात यात्रा का प्रस्ताव भी मेरी पत्नी की ओर से ही आया था। इतना अवश्य है कि मैं जब अकेले घूमने के लिये निकलता हूं तो पत्नी थोड़ी बहुत नाराज़गी दिखाती हैं। यदि मैं “नहाते समय पहले लोटे की इस ठंड को” बर्दाश्त कर लूं तो फिर घूमने – फिरने में कोई मनाही अब मुझे नहीं है। सच पूछें तो गुवाहाटी में एयरपोर्ट पर अनुपम चक्रवर्ती का मिलने आना, या अहमदाबाद में प्रफुल्ल का सपरिवार मिलने आना, वापसी वाले दिन कालूपुर स्टेशन पर अमित गोंडा का मिलने आना – ये सब देखकर मेरी पत्नी को अब खुशी जैसी सी कुछ चीज़ भी होने लगी है (शायद कुछ – कुछ गर्व भी)।
5- किस तरह की घुमक्कड़ी आप पसन्द करते हैं? ट्रेकिंग एवं रोमांचक खेल भी क्या उसमें सम्मिलित रहते हैं? कठिनाइयां भी बताएं?
@ हमारे घर में हमेशा स्कूटर और कार ही रहीं, मोटरसाइकिल नहीं अतः इन दोनों का ही मुझे भी अभ्यास रहा है। जो घुमक्कड़ मित्र पहाड़ों पर मोटरसाइकिल चलाते हैं, उनको देख पढ़ कर ईर्ष्या जैसा सा कुछ होता है। मेरी घुमक्कड़ी ट्रेन, हवाई जहाज, और कार तक ही सीमित है। बस की यात्रा मेरे लिये मजबूरी का सौदा होती है। फोटोग्राफी का शौक है अतः ए सी कोच के बजाय स्लीपर में चलना ज्यादा अच्छा लगता है, पर यह तभी हो पाता है जब मैं अकेला यात्रा करूं। मेरे लिये घुमक्कड़ी में गंतव्य स्थल ही नहीं, गंतव्य तक पहुंचने के लिये की गयी यात्रा भी बहुत महत्वपूर्ण है। यात्रा संस्मरण लिखते समय, हास्य-व्यंग्य की बहुत सारी परिस्थितियां उसमें ही निकलती हैं।
6- आपकी अन्य रुचियों के साथ बताइये कि आपने ट्रेवल ब्लॉग लेखन कब और क्यों शुरु किया?
@ लेखन, पठन – पाठन, अध्यापन और प्रशिक्षण, साथ ही फोटोग्राफी मेरी प्रमुख रुचियां कहीं जा सकती हैं। काश्मीर यात्रा से पहले मैने गूगल पर सर्च किया तो घुमक्कड़ डॉट कॉम पर मनु प्रकाश त्यागी की एक बड़ी ज्ञानवर्द्धक पोस्ट पढ़ने को मिली। इच्छा हुई कि मैं भी लिखूं। मुंबई रेल यात्रा की एक पोस्ट मेरे पास लिखी रखी थी, जो मैं घुमक्कड़ डॉट कॉम को भेज कर काश्मीर यात्रा पर निकल गया। जब घुमक्कड़ डॉट कॉम पर मेरी ’मुंबई यात्रा’ प्रकाशित हुई और सराही गयी तो फिर काश्मीर यात्रा भी लिखने का उत्साह जगा और मेरा सौभाग्य कि उसे भी पसन्द किया गया। बस, फिर तो घूमना और लिखना चालू हो गया।
7- घुमक्कड़ी (देशाटन, तीर्थाटन, पर्यटन) को जीवन के लिये आवश्यक क्यों माना जाता है?
@ मुझे लगता है कि अपने घर से बाहर निकलना, नये – नये स्थानों को देखना, नये – नये लोगों से मिलना न केवल हमारे ज्ञान में वृद्धि करता है, वरन् हमारे व्यक्तित्व को पूर्णता भी प्रदान करता है। कुएं का मेंढक बन कर रहने वाला व्यक्ति सिर्फ अपने आप को ही सही मानता है, उसके अनुभव भी अत्यन्त सीमित रह जाते हैं। हमारे देश में तीर्थाटन की परम्परा को अत्यन्त महत्व दिया गया। यहां तक कि हमारे मनीषियों द्वारा देश के चार कोनों पर चार धाम की स्थापना की गयी और हर किसी से अपेक्षा की गयी कि वह इन चार धामों की यात्रा करे। भिन्न – भिन्न भाषा बोलने वाले, अलग–अलग रंग-रूप और पहनावे वाले इस देश में जब स्थूल रूप में कोई और समानता नज़र न आती हो तो देश के एक कोने से दूसरे कोने तक मौजूद तीर्थस्थलों को सांस्कृतिक एकता और समरसता का सबसे बड़ा अवलंब माना जा सकता है। यदि रामेश्वरम् और कन्याकुमारी दर्शन का पुण्यलाभ प्राप्त करने का लालच न हो तो कोई उत्तर भारतीय परिवार जिसको न तमिल और न ही मलयालम समझ आती हो, दक्षिण की ओर क्यों रुख करे? यदि बद्रीनाथ, केदारनाथ, हरिद्वार, ऋषिकेश और गंगा – यमुना का आकर्षण न खींच रहा हो तो कोई दक्षिण भारतीय उत्तर भारत की ओर क्यों आयेगा? और अगर हम एक दूसरे के तीर्थस्तल के आगे नत मस्तक होंगे तो निश्चय ही हम एक दूसरे से अपने सम्बन्ध को भी पहचानेंगे और उसे महत्व देना सीखेंगे।
8- आपकी सबसे रोमांचक यात्रा कौन सी रही, अभी तक कहां कहां की यात्राएं कीं और उन यात्राओं से क्या सीखने को मिला?
@ रोमांचक यात्रा की बात करूं तो यही कहूंगा कि या तो सबसे पहला प्यार या बुढ़ापे में किया गया प्यार रोमांचक लगते हैं। 😀 1970 में की गयी पूना – माथेरान की यात्रा हम दोनों बच्चों के लिये एक अद्भुत अनुभव थी। देहरादून से मुंबई तक कोयले के इंजन वाली ट्रेन से की गयी यात्रा जिसमें सिर के सारे बालों में कोयला ही कोयला भर गया था, जीवन में पहली बार इलेक्ट्रिक ट्रेन और मुंबई की लोकल ट्रेन देखना और उसमें यात्रा करना, पहली बार मुंबई का समुद्र देखना, टॉय ट्रेन से माथेरान जाना – आना, ट्रांज़िस्टर गले में लटकाये हुए वहां घूमना फिरना अत्यन्त रोमांचकारी रहा।
जहां तक बुढापे के प्यार का सवाल है, पिछले वर्ष उत्तर पूर्व की यात्रा में हमने आठ दिनों में पश्चिम बंगाल (मिरिक, दार्जिलिंग व कलिंपोंग), सिक्किम (नामची व गंगटोक), मेघालय (शिलॉंग व चेरापूंजी) तथा आसाम (गुवाहाटी) स्थान देखे और इन सभी स्थलों में सिक्किम ने सबसे अधिक प्रभावित किया। नाथु ला पास और बाबा हरदेव सिंह के मंदिर के लिये की गयी यात्रा, समुद्र तल से 14,500 फीट पर भीषण बर्फबारी, वहां पर अपने बैंक का एटीएम नज़र आना, सफाई व सुन्दरता के प्रति सिक्किम वासियों का आग्रह जिसका ज़िक्र तो मैं सहारनपुर में हर रोज़ आज भी करता हूं ताकि सहारनपुर वासियों को भी कुछ प्रेरणा मिल सके, सभी रोमांचक रहा है। वैसे मैने थोड़ी बहुत यात्राएं ही की हैं अधिक नहीं। बंगलौर – मैसूर, गोवा, महाबलेश्वर-पूना, जबलपुर – कटनी, चित्रकूट, ओरछा, झांसी, मैहर, इलाहाबाद – सारनाथ, मां वैष्णो देवी दरबार, अमृतसर, जयपुर, उदयपुर, माउंट आबू, इन्दौर, धार, शिमला, मसूरी, नैनीताल – बस ये ही कुछ स्थान याद आ रहे हैं।
9- नये घुमक्कड़ों के लिये क्या संदेश देना चाहेंगे?
@ संदेश देने वाली बात तो कुछ नहीं है, बस यही कह सकता हूं कि आप जहां भी जायें ऐसा व्यवहार करें कि लोग आपके और आपके शहर के बारे में श्रेष्ठ धारणा बनाएं। अनजान लोगों के बीच में जायें तो बिना वज़ह के भी खुशियां बांटते चलें। कोशिश करें कि यात्रा के हर पड़ाव पर नये – नये दोस्त बनते जायें। चाहे वह टैक्सी ड्राइवर हो या होटल का मैनेजर। कैमरा मुझे इस मामले में बहुत सहायक सिद्ध होता है। अपने सामान का और अपने स्वास्थ्य का विशेष ध्यान रखें।
वाह सुशांत सर,,,
जैसा आपका व्यक्तित्व, वैसा ही आपका साक्षात्कार…
मजा आ गया, वैसे मैं आपका पहला लेख ghumakar पर पढकर ही पंख हो गया था।
प्रिय प्रकाश जी,
सच तो ये है कि हम सभी एक दूसरे के पंखे हैं ! आप यदि मेरे पंखे हैं तो मैं भी आपका कम छोटा पंखा नहीं हूं !
सादर,
आज आपके बारे में कुछ नई बातें जानने को मिली आदरणीय सुशांत जी । पहली बात मकान मालिक की बेटी से शादी और जीजाजी के साथ गोआ में हनीमून !! आज जैसे लोगों से मिलकर जीवन धन्य हो जाता है । सहारनपुर रेलवे स्टेशन पर सुबह सुबह सिर्फ मुझसे मिलने आना , मेरे और परिवार के लिए जूस और खाने का सामान लेकर आना । ये अहसास जीवन भर नही भूल सकता । ओरछा में भी पहली बार आपसे मिलकर जो आनंद आया अविस्मरणीय है । ललित जी का आभार एक मस्तमौला घुमक्कड़ और शानदार व्यक्तित्व से मिलवाने के लिए …
प्रिय भाई मुकेश जी,
आप जैसे स्नेहिल व्यक्तित्व हर किसी को पसन्द करें, इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं ! जिनको हम चाहते हैं, उनके बारे में और गहराई से जानना बहुत अच्छा लगता है। वैसे मैं उस दिन स्टेशन पर सिर्फ आपसे नहीं, आपके छोटे भैया, माताजी- पिताजी, धर्मपत्नी और अनिमेश बाबू – सब से ही मिलने की लालसा से गया था। ओरछा में तो उन सब से मुलाकात हो नहीं पाई थी ना ! प्रयास करूंगा कि जल्द ही अगली घुमक्कड़ मीट में आपसे मुलाकात हो !
सुशांत जी आपके बारे में बहुत कुछ नया जानने को मिला इस साक्षात्कार के माध्यम से । बहुत अच्छा लगा । ललित जी का पुनः आभार ये मज़ेदार श्रृंखला शुरू करने के लिए ।
प्रिय संजय एडमिन कौशिक, 😉
अब आपको मैं क्या कहूं सिवाय इसके कि मैं आप से अत्यन्त प्रभावित हूं और हमेशा रहूंगा। हां, ललित जी का तो आभार है ही !
एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व का साक्षात्कार ……।
हार्दिक आभार !
सुशांत जी आपको तो काफी समय से जानता हूँ .दिल्ली के लोधी गार्डन में पहली मुलाकात हुई . मुझे आप मेरी तरह शर्मीले से लगे . लेकिन विस्तार से आज जान पाया हूँ …..शानदार व्यक्तित्व के मलिक .
ललित जी का भी आभार आपसे रूबरू करवाने के लिये .
आफरीन पंडितजी, सुशान्त जी को अपनी तरह शर्मीला समझना, भई वाह, अब तो सारे शर्मीले घुमक्कड़ों का एक समागम होना चाहिए।
प्रिय भाई नरेश सहगल,
आपका इस साक्षात्कार तक आने और इसे पढ़ कर कमेंट छोड़ने के लिये हार्दिक आभार। आप मेरे फेवरिट ब्लॉगर में से एक हैं। उम्मीद है, आपके साथ जल्द ही एक बार फिर बीएसएनएल के सिग्नल तलाश करने का सुअवसर मिलेगा। 🙂
वाह सर.
अपने होमटाउन सहारनपुर वालो का परिचय पढ़कर अलग ही आनंद की अनुभूति हो रही है वकाई बहुत कुछ जानने और समझने को मिलता है जब आप जैसे व्यक्ति का ऐसा साक्षात्कार पड़ने को मिलता है .. ऐसा लग रहा है जैसे कोई सुशिल शांत सिहं ललकार रहा हो ……………..आओ जी लो अपनी जिंदगी
प्रिय पंकज, हार्दिक आभार ! मुझे तो पूरे देश के घुमक्कड़ों के बारे में पढ़ कर ही बहुत आनन्द की अनुभूति होती है। पर हां, जिनसे व्यक्तिगत परिचय हो चुका हो, उनके बारे में अतिरिक्त जानकारी विशेष आह्लादकारी होती है।
आफरीन पंडितजी, सुशान्त जी को अपनी तरह शर्मीला समझना, भई वाह, अब तो सारे शर्मीले घुमक्कड़ों का एक समागम होना चाहिए।
परम श्रद्धेय व आदरणीय त्रिदेव चरण जी,
आपके कमेंट्स का तो मैं पहले ही दिन से मुरीद रहा हूं सो आपने आज भी निराश नहीं किया। आभार !
वाह, आज आपके बारे में जो नही जानते थे वो जान गए । आपका साक्षात्कार पढ़ मुझे बड़ी खुशी हुई । शुभकामनाये आपको धन्यवाद ललित जी को
प्रिय रितेश, अभी तो मैं खुद को ही जानने का प्रयास कर रहा हूं ! मेरे खयाल से ये काफी टफ काम है। तथापि, हार्दिक धन्यवाद ये साक्षात्कार पढ़ने के लिये ! ललित जी को भी हार्दिक आभार।
आपका साक्षात्कार पढ़ मुझे बड़ी खुशी हुई । शुभकामनाये आपको धन्यवाद ललित जी को
बहुत धन्यवाद अभयानन्द सिह्ना ! इससे पहले कि और कुछ लिखूं, आपका साक्षात्कार पढ़ लूं ! 🙂
शानदार घुमक्कड़ी ।आपकी बात ने बचपन में ला खड़ा किया।जब बिगुल बजट थे और अंधेरा हो जाता था तब शाम को ही खाना खा लेते थे और रेडियो पर आकाशवाणी के समाचार आते थे ” अब आप देवकीनन्दन पांडे से समाचार सुनिए।’ ।कितना डर, ओर अचम्भे की स्थिति होती थी।।सबके कान रेडियो पर होते थे।
अधिया परिचय बहुत बढ़िया रहा।