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सुप्रीम कोर्ट ने प्रवर्तन निदेशालय(ED) से पूछा — ‘कब तक चलेगी जांच?’ भूपेश बघेल के बेटे की गिरफ्तारी पर मांगा जवाब

सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को प्रवर्तन निदेशालय (ED) से पूर्व छत्तीसगढ़ मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के बेटे चैतन्य बघेल की गिरफ्तारी पर जवाब मांगा है। चैतन्य बघेल ने अपनी गिरफ्तारी को चुनौती देते हुए कहा है कि उन्हें बिना समन या नोटिस दिए ही गिरफ्तार किया गया, जबकि जांच में सहयोग न करने का आरोप लगाया गया है।

न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जॉयमाल्य बागची की पीठ ने ईडी को नोटिस जारी करते हुए कहा कि एजेंसियों द्वारा “लगातार जांच जारी रखने” की प्रवृत्ति से ट्रायल शुरू ही नहीं हो पाता और आरोपी लंबे समय तक जेल में रहते हैं।

“आपकी जांच आखिर कब खत्म होगी? कब तक ‘फर्दर इन्वेस्टिगेशन’ का हवाला देकर मामले को लटकाया जा सकता है?” — न्यायमूर्ति बागची ने ईडी के वकील अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल एस.वी. राजू से सवाल किया।

राजू ने जवाब दिया कि ईडी को कानून के अनुसार तीन महीने तक जांच जारी रखने का अधिकार है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी मान्यता दी है।

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“बिना बुलाए कैसे कह सकते हैं कि मैंने सहयोग नहीं किया?” — सिब्बल

चैतन्य बघेल की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल और एन. हरिहरन ने दलील दी कि ईडी ने उनके मुवक्किल को कभी भी धन शोधन निवारण अधिनियम (PMLA) की धारा 50 के तहत समन नहीं भेजा।

“जब मुझे पूछताछ के लिए बुलाया ही नहीं गया, तो यह कैसे कहा जा सकता है कि मैंने सहयोग नहीं किया? गिरफ्तारी तभी हो सकती है जब जांच अधिकारी को यह संतोष हो कि अपराध हुआ है — लेकिन बिना बुलाए ऐसा निष्कर्ष कैसे निकाला जा सकता है?” — सिब्बल ने कहा।

उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि ईडी पहले शिकायत दर्ज करती है, फिर गिरफ्तारी करती है, और उसके बाद ‘फर्दर इन्वेस्टिगेशन’ के नाम पर मुकदमे की कार्यवाही को टालती रहती है। “जांच कभी खत्म होती ही नहीं,” अधिवक्ता हरिहरन ने अदालत से कहा।


सुप्रीम कोर्ट ने संयुक्त याचिकाएँ खारिज कीं

अदालत ने हालांकि, भूपेश बघेल और उनके बेटे द्वारा दायर उन अलग-अलग याचिकाओं को स्वीकार करने से इनकार कर दिया, जिनमें ईडी की “टुकड़ों-टुकड़ों में चल रही जांच” पर सवाल उठाया गया था।

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बघेल परिवार की ओर से वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल, ए.एम. सिंहवी और विपिन नायर ने तर्क दिया कि जांच एजेंसी सीआरपीसी की धारा 173(8) और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 193(9) का गलत इस्तेमाल कर रही है।

याचिका में कहा गया —

“इन धाराओं के ज़रिए जांच एजेंसियों को बिना पर्याप्त सुरक्षा उपायों के ‘अतिरिक्त जांच’ करने की असीम शक्ति मिल जाती है, जिससे जांच अनिश्चितकाल तक खिंचती है। यह प्रक्रिया नागरिकों के अनुच्छेद 14, 20 और 21 के तहत प्राप्त मौलिक अधिकारों — समानता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और निष्पक्ष सुनवाई — का उल्लंघन करती है।”

इसके साथ ही, याचिकाकर्ताओं ने यह भी कहा कि PMLA की धारा 44, जो केवल विशेष अदालत में मामलों के संज्ञान और ट्रायल की प्रक्रिया से जुड़ी है, को “फर्दर इन्वेस्टिगेशन” के अधिकार के रूप में नहीं पढ़ा जा सकता।