सुप्रीम कोर्ट ने लोकपाल के अधिकारक्षेत्र पर विचार करने का किया निर्णय, न्यायधीशों पर एफआईआर के मुद्दे पर भी बहस
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम न्यायाधीशों की बेंच ने मंगलवार (18 मार्च, 2025) को यह तय किया कि वह यह विचार करेंगे कि क्या संविधानिक न्यायालयों के न्यायधीश लोकपाल के अधिकारक्षेत्र में आते हैं, जैसे कि प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्री, संसद सदस्य और सरकारी अधिकारियों की तरह। सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति बी.आर. गावई ने अदालत में कहा, “हम लोकपाल के अधिकारक्षेत्र के मुद्दे पर विचार करेंगे।” यह मामला उस स्वमोटो (suo motu) केस से जुड़ा है, जिसे लोकपाल ने जनवरी 27 के आदेश के बाद शुरू किया था, जिसमें लोकपाल ने सेवा में उच्च न्यायालयों के न्यायधीशों के खिलाफ शिकायतों की जांच का अधिकार खुद लिया था।
लोकपाल ने उच्च न्यायालयों के न्यायधीशों को “लोक सेवक” मानते हुए उन्हें लोकपाल और लोकायुक्त कानून, 2013 के तहत अधिकार क्षेत्र में रखा था। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने फरवरी 20 को लोकपाल के आदेश पर रोक लगा दी थी, यह कहते हुए कि यह आदेश न्यायपालिका की स्वतंत्रता को प्रभावित कर सकता है।
इस मामले की सुनवाई के दौरान, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि “सीमित प्रश्न” यह है कि क्या संविधानिक न्यायालयों के न्यायधीश सच में लोकपाल एक्ट के तहत सार्वजनिक सेवक माने जाते हैं।
क्या न्यायधीशों के खिलाफ एफआईआर दर्ज हो सकती है?
वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने अदालत से अपील की कि वह इस बात पर भी विचार करें कि क्या न्यायधीशों के खिलाफ पुलिस थानों में आपराधिक शिकायतें दर्ज की जा सकती हैं। उन्होंने सवाल उठाया, “क्या कोई शिकायत कभी संविधानिक प्राधिकरण के दायरे से बाहर दर्ज की जा सकती है?”
सॉलिसिटर जनरल ने इस प्रस्ताव का विरोध किया और कहा कि अदालत को वर्तमान में केवल यह देखना चाहिए कि क्या संविधानिक न्यायालयों के न्यायधीश सार्वजनिक सेवक माने जाते हैं। उन्होंने 1991 के वी. वीरास्वामी मामले का जिक्र किया, जिसमें यह तय किया गया था कि उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों पर आपराधिक मामले तभी दर्ज किए जा सकते हैं जब भारत के मुख्य न्यायधीश से पूर्व परामर्श लिया जाए।
वी. वीरास्वामी मामला और 1991 का निर्णय
1991 के फैसले में यह कहा गया था कि उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीश “लोक सेवक” होते हैं, लेकिन यदि उनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज किए जाते हैं, तो इसे मुख्य न्यायधीश से पहले परामर्श के बाद ही अनुमति दी जा सकती है। यह निर्णय न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए था और इसे संविधान का एक महत्वपूर्ण तत्व माना गया।
लोकपाल द्वारा उठाए गए कदम
लोकपाल ने इस फैसले में यह तर्क दिया कि उच्च न्यायालयों के न्यायधीश लोकपाल के दायरे में आते हैं, क्योंकि उच्च न्यायालय संसद द्वारा स्थापित एक संस्था है। लोकपाल ने अपने आदेश में यह भी कहा कि 2013 के लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम में न्यायधीशों को किसी स्पष्ट अपवाद के रूप में नहीं रखा गया है।
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अब तक के घटनाक्रम पर विचार करने का निर्णय लिया है, ताकि यह स्पष्ट किया जा सके कि क्या संविधानिक न्यायालयों के न्यायधीशों पर भी लोकपाल का दायरा लागू होता है।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता और लोकपाल के अधिकारक्षेत्र पर जारी बहस
यह मामला न्यायपालिका की स्वतंत्रता और लोकपाल के अधिकारक्षेत्र के बीच एक महत्वपूर्ण बहस को जन्म देता है, जिसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा विस्तृत रूप से जांचा जाएगा। यह निर्णय आने वाले समय में न्यायपालिका की कार्यप्रणाली और लोकपाल के अधिकारों की सीमा पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकता है।