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राष्ट्रीय एवं वैश्विक चुनौतियों का समाधान : कृष्ण और गीता

उमेश चौरसिया

भगवान् श्रीकृष्ण से अधिक व्यापक, व्यावहारिक, सर्वग्राह्य एवं सर्वतोमुखी व्यक्तित्व विश्व के इतिहास में संभवतः कहीं कोई भी नहीं हुआ होगा। लोक और परलोक, आदर्श एवं यथार्थ, कर्म एवं ज्ञान, प्रवृत्ति एवं निवृत्ति, शक्ति और शील, लीला और मर्यादा, यज्ञ एवं युद्ध, वैभव एवं विरक्ति, राजनीति एवं ब्रह्मज्ञान – सभी में श्रीकृष्ण चरमोत्कर्ष पर प्रतिष्ठित आलौकिक महाविभूति हैं। श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व इतना मोहक एवं हृदयस्पर्शी रहा है कि रसखान, रहीम, बीबी चाँद, रैहाना तैय्यबजी जैसे अनेक मुस्लिम भक्तों सहित अनेक सिख गुरूओं और कई पश्चिमी ईसाई भक्तों एवं संतों ने भी श्रीकृष्ण और उनके द्वारा उद्घोषित गीता की श्रद्धापूर्वक अर्चना की है।

संसार में आध्यात्मिक क्षेत्र में गीता जैसा कोई आलौकिक व सर्वमान्य ग्रंथ नहीं है और महापुरूषों में श्रीकृष्ण जैसा कोई व्यक्तित्व नहीं है। आज विश्व को श्रीकृष्ण जैसा ही ईश्वर चाहिए जो शील और सौंदर्य से समन्वित होने के साथ ही सर्वशक्तिमान भी हो, हर कदम पर अन्यायियों और अत्याचारियों से डटकर मुकाबला करने के लिए हमें प्रेरित करे तथा जीवन को समग्रता में जीने का मंत्र देता हो। अब तहमें ऐसा ईश्वर चाहिए जो उदासी, निराशा और मनहूसियत को दूर करते हुए नाच-गाकर और बांसुरी बजाकर जीवन के पल-पल में आनन्द और उल्लास का संचार कर दे। निश्चित ही ईश्वर का यह रूप श्रीकृष्ण के स्वरूप में पूर्णतः विद्यमान है। बालक, शिष्य, मित्र, योद्धा, शासक, राजदूत, तत्वदर्शी, योगेश्वर, सिद्ध पुरूष तथा परमात्मा इत्यादि सभी रूप श्रीकृष्ण के विराट व्यक्तित्व में दिखाई पड़ते हैं और सभी रूपों में उनके जीवन की अद्वितीय महानता दृष्टिगोचर होती है।

स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि श्रीकृष्ण ने धर्म का कभी कोई नाम नहीं दिया। धर्म एक है, संप्रदाय अनेक। जिस क्षण हम उसे एक नाम दे देते हैं, व्यष्टीकृत कर शेष से पृथक कर देते हैं, वह एक संप्रदाय बन जाता है, धर्म नहीं रह जाता। संसार में धर्म केवल एक ही रहा है और अब भी वह एक ही है। उसका कार्य है मानवता के लक्ष्य और प्रयोजन के सम्यक बोध पर विचार करना। श्रीकृष्ण का यही महान् कार्य था- हमारी दृष्टि को स्वच्छ कराना और मानवता की ऊर्ध्वगामी तथा अग्रगामी प्रगति को विशालतर दृष्टि से दिखाना। कृष्ण और उनके संदेश में हमें दो विचार सर्वापरि मिलते हैं। पहला है विभिन्न विचारों का सामंजस्य और दूसरा है अनासक्ति। मनुष्य पूर्णत्व को, सर्वोच्च लक्ष्य को, राजसिंहासन पर बैठे रहकर, सेनाओं का संचालन करते रहकर, राष्ट्रों के निमित्त विराट् योजनाओं को कार्यान्वित करते रहकर प्राप्त कर सकता है।

हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए- ‘ धर्मो रक्षति रक्षितः। ‘ हम धर्म की रक्षा करेंगे तो धर्म भी हमारी रक्षा करेगा। धर्म के अन्तर्गत व्यक्ति का शरीर, परिवार, समाज, राष्ट्र, विश्व, चराचर जगत् और विश्व चेतना का समावेश है। हम शरीर धर्म की पालना करेंगे तो शरीर हमारी रक्षा करेगा। परिवार धर्म के पालन से परिवार हमारी रक्षा करेगा। वैसे ही हम राष्ट्र धर्म का पालन करेंगे, राष्ट्र की सेवा, सुरक्षा व सम्मान करेंगे तो राष्ट्र भी हमारी रक्षा करेगा। राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य निभाए बिना कुछ भी सुरक्षित नहीं रहता। व्यक्ति की चेतना को शुद्ध, परिष्कृत और व्यापक बनाते हुए उसमें चारित्रिक सद्गुणों का विकास करने वाला ही सच्चा धर्म है।

आज विविध प्रकार की असुरी प्रवृतियां और विकृतियां समाज को दूषित कर रही हैं। इस स्थिति से यदि कोई हमें उबार सकता है तो वह है श्रीकृष्ण और गीता | गीता के दर्शन को अपनाकर ही राष्ट्र सांस्कृतिक प्रदूषण से मुक्त हो सकता है। आज सारा विश्व जिन समस्याओं से जूझ रहा है उसे मार्ग दिखाने की क्षमता किसी में है तो वह भगवत्गीता ही है। गीता के चौथे अध्याय में श्रीकृष्ण कहते हैं – यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।। ‘हे भरतवंशी! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं स्वयं का सृजन करता हूँ। अर्थात शरीर धारण करके प्रकट होता हूँ।’ श्रीकृष्ण और गीता का तो अवतरण ही राष्ट्र की रक्षा के लिए, विश्व की रक्षा के लिए हुआ है। मानव मन को ऊर्ध्वमुखी बनाते हुए पूर्णता की ओर, आनन्द की ओर ले जाने के लिए हुआ है।

श्रीकृष्ण उपासना को बड़ा महत्व देते हैं। वे कहते हैं ईश्वर की उपासना करो। वहीं वे स्वयं को ईश्वर मानकर भी बात करते हैं- ‘मेरे मार्ग से भटक कर कोई व्यक्ति नहीं जा सकता। सबको मेरे पास आना ही है। मुझको जो जिस रूप में श्रद्धापूर्वक भजता है, मैं उसे उसी रूप में मिलता हूँ। ….. अनुष्ठान, देवताओं की पूजा ग्रंथ और आडंबर, सब मेरी ओर आने की कड़ियां हैं। बस किसी भी एक कड़ी को पकड़ लो और उसे छूटने मत दो।’ यह सत्य हम भी जानते हैं, किन्तु हम तो बस भटकने और एक- दूसरे पूछने में समय व्यतीत करते रहते हैं ।

अनासक्त कर्म की ओर ले जाते हुए कृष्ण कहते हैं – कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्। — ‘अपना कर्म करो, बिना फल की इच्छा किये ।’ कर्म को स्वयं के लिए नहीं प्रभू के निमित्त करो, तो फिर फल की चिन्ता स्वतः ही मिट जाएगी। ‘मेरा’ का विचार लेकर किया कर्म बेकार है। कर्म तो प्रेम के लिए करो, प्रभू से प्रेम के निमित्त। जो अच्छा लगे वह करो पर उसके प्रति आसक्त मत होओ। अनासक्त प्रेम कभी भी हानि नहीं पहुँचाएगा। व्यक्ति को ईश्वरीय संकल्प पूरा करने में निमित्त मात्र बन जाना चाहिए। भागवान् श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व इतना अनन्तमुखी है कि यह कहना कठिन है कि वे क्या नहीं हैं। योग–योगेश्वर, ज्ञानप्रदाता, सिॠ, साधक, परममित्र, कुशल सारथि, सच्चे सेवक, शक्तिशाली रक्षक, दूरदृष्टा राष्ट्रनिर्माता, आदर्श कर्मयोगी, आदर्श प्रेमी, आदर्श शासक, सफल राजनीतिज्ञ, शूरशिरोमणि, मानवता के गौरव, लोकनायक, लोकशिक्षक…….. वे सभी कुछ तो हैं।

जिस प्रकार श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का ज्ञान देकर उसके हृदय से भ्रम का अंधकार दूर किया था, उसी प्रकार आज भी उनका प्रेरक जीवनचरित और महान् ग्रंथ गीता हम सबके भ्रम दूर कर हमें सकारात्मकता, सद्भाव, सच्चरित्रता, सत्कर्म की ओर ले जाते हुए हमारे जीवनोत्कर्ष के लिए विद्यमान है। आवश्यकता है श्रद्धापूर्वक श्रीकृष्ण के उपदेशों को आचरण में उतारने के संकल्प की। आइये हम भी भारतीय आदर्श महापुरूषों के इस संकल्प को मनपूर्वक दोहराएं – ‘ मेरे रहते मैं देश, धर्म,संस्कृति का नाश नहीं होने दूंगा। देश, धर्म,संस्कृति के प्रति मृत्युपर्यन्त अपने दायित्व को निभाऊंगा।’

लेखक साहित्यकार एवं संस्कृतिकर्मी हैं।

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