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मेरा रंग दे बसंती चोला : 23 मार्च शहीद दिवस

भारतीय स्वाधीनता संग्राम में ऐसे बलिदानी हुये हैं जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन और प्राण तो देश के लिये बलिदान किये ही साथ ही युवा पीढ़ी को स्वाभिमान संघर्ष की प्रेरणा भी दी। क्राँतिकारी सरदार भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव ऐसे ही बलिदानी थे। इनका बलिदान 23 मार्च को हुआ था। इन क्राँतिकारियों का पूरा जीवन राष्ट्र के स्वत्व, स्वाभिमान और साँस्कृतिक चेतना केलिये समर्पित रहा। जब ये महान क्राँतिकारी बलिदान हुये तब भगतसिंह और सुखदेव की आयु तेइस वर्ष और  राजगुरु की आयु बाईस वर्ष थी। वे इतनी कम आयु में उन्होंने क्राँति का जो उद्घोष किया, उसकी गूँज लंदन तक हुई।

इन तीनों के परिवार और परिवेश की पृष्ठभूमि राष्ट्र, संस्कृति और स्वत्व जागरण की थी। इसलिए किशोरवय से ही उनका रुझान स्वाधीनता आँदोलन की ओर हो गया था। बालवय में इनकी शिक्षा आर्यसमाज के विद्यालयों में हुई थी। उन दिनों इन विद्यालयों में निर्धारित पाठ्यक्रम के अतिरिक्त स्वत्व स्वाभिमान और साँस्कृतिक महत्व का संदेश भी दिया जाता था। पंजाब, राजस्थान और उत्तर प्रदेश युवाओं को स्वाधीनता आँदोलन के प्रति रुझान का एक बड़ा कारण ये विद्यालय भी रहे। महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और बलिदानी लाला लाजपत राय भी आर्यसमाज से जुड़े थे ।

यह सही है कि भारत ने दासत्व के अंधकार की सबसे लंबी रात्रि देखी है लेकिन भारतीयों के स्वत्व का संघर्ष हर स्तर पर हुआ। लाखों प्राणों का बलिदान हुआ और परिवारों ने प्रताड़ना सही। संघर्ष की लंबी गाथा में गाँधी जी ने अहिसंक आँदोलन का एक नया अध्याय जोड़ा किन्तु चौरी चौरा काँड के बाद आँदोलन वापस लेने की घोषणा कर दी। जिससे युवाओं में बैचेनी हुई और युवाओं की टोलियाँ पुनः सशस्त्र सशस्त्र आँदोलन की ओर मुड़ गईं। युवाओं का यह क्राँतिकारी आँदोलन देश के हर कोने में आरंभ हुआ। समय के साथ ऐसे क्राँतिकारी युवाओं में परस्पर समन्वय स्थापित हुआ। पंजाब से बंगाल तक क्राँतिकारी युवाओं की इन टोलियों ने उन अंग्रेज अधिकारियों को निशाना बनाने लगीं जो भारतीयों पर क्रूरतम व्यवहार के लिये कुख्यात थे।

पंजाब में क्राँतिकारी आँदोलन की कमान सरदार भगतसिंह और उनकी टोली के हाथ में थी तो उत्तरप्रदेश सहित मध्यभारत की कमान चंद्रशेखर आजाद के हाथ में थी तो बंगाल की कमान क्राँतिकारी सूर्यसेन के हाथ में थी। इन आंदोलनकारियों का संपर्क पूरे देश में था और परस्पर संपर्क सूत्र भी थे। पंजाब में क्राँतिकारी आँदोलन की टोली लाला लाजपत राय से जुड़ी थी तो उत्तरप्रदेश में गणेश शंकर विद्यार्थी से तो बंगाल में सुभाषचंद्र बोस से। पंजाब  उत्तरप्रदेश और बंगाल में इस टोली ने अंग्रेजों को भारत से बाहर करने केलिये अनेक घटनाओं को अंजाम दिया फिर भी चार ऐसी बड़ी घटनाएँ घटीं जिससे लंदन तक को हिला दिया। ये घटनाएँ थीं काॅकोरी कांड, सांडर्स वध, चटगांव शस्त्रागार की लूट और असेंबली बम काँड।

काॅकोरी कांड का नेतृत्व क्राँतिकारी चंद्रशेखर आजाद ने किया तो चटगांव में सरकारी शस्त्रागार को लूटने की योजना का नेतृत्व क्राँतिकारी सूर्यसेन ने किया जबकि सेन्डर्स वध और, असेंबली बम काँड की योजना क्राँतिकारी सरदार भगतसिंह की थी। इन घटनाओं के बाद पूरी ब्रिटिश सरकार हिल गई थी और सरकार पूरी ताकत से क्राँतिकारी आँदोलन का दमन करने में लग गई। अभियान पूरे देश में चला। सरदार भगतसिंह की टोली से अंग्रेज सरकार सर्वाधिक आशंकित थी और इस टोली के दमन के लिये विशेष अभियान चला। इस टोली के प्रति जन सामान्य में  कितना समर्थन था और अंग्रेज सरकार कितनी आशंकित थी इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि तीनों क्राँतिकारियों को फाँसी देने की तिथि 24 मार्च निर्धारित थी। लेकिन एक दिन पहले 23 मार्च को ही फाँसी दे दी गई थी ।

सेन्डर्स और चेन्नन सिंह वध

अंग्रेजी सत्ता उखाड़ फेकने के संकल्प के साथ क्राँतिकारी आँदोलन पूरे देश में आरंभ हो गया था। सरदार भगतसिंह डीएवी कॉलेज में अपने छात्र जीवन से ही इन गतिविधियों से जुड़ गए थे। पर जिन दो बड़ी घटनाओं में उनका सीधा सीधा नाम जुड़ा उनमें पहली है सेन्डर्स और चन्नन सिंह वध। इस घटना की नींव सायमन कमीशन के भारत आने पर पड़ी। अंग्रेजी सरकार ने स्वतंत्रता संग्राम का दबाब करने केलिये कोई बीच का रास्ता निकालने का मार्ग बनाया।  और विभिन्न पक्षों से बात करने एक दल भारत भेजा। इस दल के मुखिया सायमन थे इसलिए इसे “साइमन कमीशन” के नाम से जाना गया। यह दल 1928 में भारत आया। अक्टूबर 1928 को पंजाब पहुँचा। दल का विरोध किया गया।

स्वतंत्रता सेनानियों का तर्क था कि इसमें कोई भ्रतीय प्रतिनिधि नहीं है। मुस्लिम लीग ने दल का समर्थन किया था। इसलिए अंग्रेज सरकार और मुस्लिम लीग के संयुक्त प्रयास से य। दल भारत के विभिन्न स्थानों पर जाकर विभिन्न संगठनों से मिलने लगा। 28 अक्टूबर को यह कमीशन लाहौर पहुँचा। प्रदर्शन आरंभ हुये। 30 अक्टूबर को प्रदर्शन का नेतृत्व लाला लाजपत राय ने किया। जुलूस पर लाठीचार्ज हुआ। दो अंग्रेज अफसरों ने लाजपत राय को लक्ष्य बनाकर बुरी तरह पीटा। लालाजी गंभीर रूप से घायल हो और इन्ही चोटों के कारण 17 नवंबर 1928 को उनका निधन हो गया। लाला लाजपत राय सरदार भगतसिंह सहित पंजाब के सभी क्राँतिकारियों के आदर्श थे।

क्राँतिकारियों ने लालाजी की इस क्रूरता पूर्ण मृत्यु केलिये पंजाब पुलिस उपअधीक्षक स्काॅर्ट और एक अन्य पुलिस अधिकारी सांंडर्स को जिम्मेदार माना और बदला लेने का प्रण किया। क्राँतिकारी चन्द्र शेखर आजाद, सरदार भगतसिंह और अन्य ने मिलकर योजना बनाई। दोनों अधिकारियों की गतिविधियों का अध्ययन करने केलिये टीम जुटाई और दोनों को दंडित करने के लिये 21 दिसम्बर 1928 का दिन निश्चित  हुआ। निर्धारित तिथि और समय पर सभी क्राँतिकारी एकत्र हुये और सभी ने अपना अपना मोर्चा संभाल लिया। इस टोली में चंद्रशेखर आजाद, सरदार भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू समेत कोई छै क्राँतिकारी थे। कुछ अन्य उन साधनों के साथ आसपास एकत्र थे कि सबको सुरक्षित निकाला जा सके।

सामान्य तया ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जॉन सॉन्डर्स और उपपुलिस अधीक्षक जेम्स स्काॅर्ट साथ साथ निकला करते थे। लाला लाजपत राय की पिटाई का आदेश स्काॅर्ट ने दिया था और सेन्डर्स ने लाठियाँ चलाईं थीं। इसलिये दोनों को मारने का निर्णय हुआ था। पर उस दिन अकेला सेन्डर्स निकला। राजगुरू ने गोली चलाई, निशाना सटीक लगा और सेन्डर्स ढेर हो गया। सॉन्डर्स को मारने के बाद यह डीएवी कॉलेज के प्रवेश द्वार से होकर जाने लगा। लेकिन सिपाही चेन्नन सिंह ने पीछा किया। उसे भी गोली मारकर ढेर कर दिया गया और सभी क्राँतिकारी सुरक्षित निकल गये। बाद में इस प्रकरण में कुल 21 लोग गिरफ्तार हुये।

 दिल्ली असेंबली बम कांड

8 अप्रैल,1929 को दिल्ली असेंबली में हुये बम काँड का उद्देश्य किसी को नुकसान पहुंचाना नहीं था। यह जन जागरण के लिये किया गया था। लेकिन इसकी गूंज पूरी दुनियाँ में हुई। सरदार भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त की जोड़ी ने कम तीव्रता एवं तेज आवाज करने वाले बम फेंके और ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के नारे लगाये। बम से निकले धुयें से पूरा हाल भर गया था। भगदड़ मची। उसमें कई लोग घायल भी हुये। दोनों क्राँतिकारी बम फेंकने के बाद नारे लगाते हुये बाहर आये। और आत्मसमर्पण कर दिया। इन्होंने वहाँ पर्चे भी फेके।  जिसका प्रथम वाक्य था कि- “बहरों को सुनाने के लिये विस्फोट के बहुत ऊँचे शब्द की आवश्यकता होती है”। बाद में चले मुकदमे के दौरान क्राँतिकारियों ने कहा था कि  सरकार दिल्ली की असेंबली में ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल’ लाने की तैयारी में थी। ये बहुत ही दमनकारी क़ानून थे और सरकार इन्हें पास करने जा रही था। इस बिल का उद्देश्य  क्रांति के आरंभिक काल में दमन करना था। इसे रोकने और इसके प्रति जन सामान्य को जाग्रत करने के उद्देश से ये बम फेकने गये थे ।

क्राँतिकारी सरदार भगत सिंह

सुप्रसिद्ध क्राँतिकारी सरदार भगतसिंह का जन्म 27 सितंबर 1907 को पंजाब के लायलपुर जिला अंतर्गत बंगा गांव में हुआ था। यह क्षेत्र अब पाकिस्तान में है। पिता किशन सिंह संधू सिक्ख पंथ से संबंधित थे लेकिन आर्यसमाज से भी जुड़े थे। माता विद्यावती धार्मिक प्रवृत्ति की स्वाभिमानी महिला थीं। यह प्रभाव सभी बच्चों पर पड़ा। सरदार भगतसिंह सात बहन भाइयों दूसरे दूसरे क्रम पर थे ।पिता काशीसिंह और चाचा अजीत सिंह भी सार्वजनिक जीवन में थे। वे लाहौर में संपन्न काँग्रेस अधिवेशन में सहभागी हुये और 1914-1915 के आंदोलन में भाग लिया।

बालवय में भगतसिंह की शिक्षा गाँव के ही विद्यालय में हुई और आगे की शिक्षा के लिये लाहौर के दयानंद एंग्लो-वैदिक विद्यालय पढ़ने भेजे गये और महाविद्यालयीन शिक्षा के लिये 1923 में लाहौर के नेशनल कॉलेज में प्रवेश लिया। इस महाविद्यालय की स्थापना दो लाला लाजपत राय ने की थी। इस महाविद्यालय की शिक्षा पूरी तरह भारतीय स्वत्व आधारित थी। किशोर वय भगतसिंह का जो आधार डीएवी स्कूल में अंकुरित हुआ था वह इस महाविद्यालय में पल्लवित हुआ। यह महाविद्यालय क्राँतिकारी आँदोलन का एक प्रकार से मिलन केन्द्र था। अपने परिवार की पृष्ठभूमि और विद्यालय की आरंभिक शिक्षा से स्वत्व के जिस विचार ने आकार लिया उसका क्रियान्वयन इसी महाविद्यालय में हुआ। इस महाविद्यालय में एक ओर उनका संपर्क देशभर के क्राँतिकारियों से संपर्क बना और दूसरी ओर लाला लाजपत राय के निर्देशन में स्वाधीनता संघर्ष में भाग लेने का अवसर मिला।  उन्होंने 1926 में उत्तर प्रदेश और 1927 में बंगाल की यात्रा की। 1928 में सेन्डर्स और चन्नन सिंह वध की योजना बनाई और 1929 में असेम्बली में बम फेका। सेन्डर्स वध के बाद वे अपना वेश बदलकर पहले कलकत्ता गये फिर कानपुर के प्रताप समाचार पत्र में नाम बदलकर काम करने लगे। उन दिनों इस समाचार पत्र के संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी थे ।

क्राँतिकारी राजगुरु

23 मार्च को बलिदान होने वाले दूसरे क्राँतिकारी राजगुरु थे। उनका पूरा नाम शिवराम हरि राजगुरु था। उनका जन्म भाद्रपद के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी सम्वत् 1965 (ईस्वी सन् 1908) महाराष्ट्र के पुणे जिला अंतर्गत खेडा गाँव में हुआ था। जब वे 6 वर्ष हुये तभी पिता का निधन हो गया। परिवार भारतीय पंरपराओं और संस्कृतनिष्ठ था। इसलिये वालवय में ही विद्याध्ययन केलिये  बनारस भेजे गये। जहाँ संस्कृत और वेद सहित हिन्दू धर्म ग्रंन्थों का अध्ययन किया। उनकी स्मरणशक्ति अद्भुत थी। एक बार जो पढ़ लेते वह कंठस्थ हो जाता. वे योगाभ्यास और व्यायाम नियमित करते थे। वे औसत कद काठी के थे पर नियमित अभ्यास से चुस्ती, बल बुद्धि अद्वितीय थी। पुणे की पृष्ठभूमि के कारण शिवाजी महाराज उनके आदर्श थे ।

वाराणसी में विद्याध्ययन के दौरान ही उनका सम्पर्क क्रान्तिकारियों से हुआ। इशमें चन्द्रशेखर आजाद भी थे। राजगुरु आजाद की हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी से जुड़ गये। आजाद ने इनका छद्म नाम रघुनाथ रखा। यहीं इनका परिचय सरदार भगत सिंह और यतीन्द्रनाथ दास आदि से बना और एक टोली बन गई। राजगुरु एक अच्छे निशानेबाज थे। साण्डर्स वध में इन्होंने भगत सिंह तथा सुखदेव का साथ दिया था जबकि चन्द्रशेखर आज़ाद ने इन तीनों को सामरिक सुरक्षा (कवर) प्रदान की थी। सेन्डर्स वध के बाद वे भी वेश बदलकर लाहौर से निकल आये थे और कानपुर आ गये थे ।

क्रन्तिकारी सुखदेव

सुप्रसिद्ध क्राँतिकारी सुखदेव का पूरा नाम सुखदेव थापर था उनका जन्म पंजाब प्राँत के लुधियाना नगर में 15 मई 1907 को हुआ था। पिता रामलाल थापर व माता रल्ली देवी भारतीय संस्कारों के प्रति समर्पित थे। लेकिन इनके जन्म से तीन माह पूर्व ही पिता का स्वर्गवास हो गया था। इनका पालन पोषण ताऊ अचिन्तराम की देखरेख में माता ने किया था। अंचित राम जी भी आर्यसमाज से जुड़े थे। इसलिये संस्कार, स्वत्व और स्वाभिमान का भाव बचपन से जाग्रत हुआ। इनकी आरंभिक शिक्षा लुधियाना में हुई और महाविद्यालयीन शिक्षा के लिये लाहौर के नेशनल कालेज भेजे गये। यहीं उनकी भेंट क्राँतिकारी भगतसिंह और अन्य क्राँतिकारियों से हुई। और जब लाला लाजपत राय के बलिदान का प्रतिशोध लेने के लिये टोली बनी तो वे इसमें सहभागी हो गये। यही नहीं, 1929 में कैदियों के साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार के विरोध में की गयी व्यापक हड़ताल में भी भाग लिया। गाँधी इर्विन समझौते पर इन्होंने एक खुला खत गाँधी जी के नाम अंग्रेजी में लिखकर गाँधी जी से कुछ प्रश्न किये थे।

गिरफ्तारी और बलिदान

सेन्डर्स और चन्नन सिंह वध के बाद तो सभी क्राँतिकारी लाहौर से सुरक्षित निकल गये थे। भगत सिंह और राजगुरु ने अपना वेष बदला भगत सिंह ने अपनी दाड़ी और बाल कटवाए और  टोपी पहन ली। उन्हें सुरक्षित निकाला दुर्गाभाभी ने दोनो एक महाजन पति पत्नि के जोड़े और हाथ में बच्चा लेकर लाहौर से रवाना हुये जबकि राजगुरु ने उनके नौकर के रूप में उनका सामान उठाया। तीनों पहले कानपुर आये वहाँ से ट्रेन बदलकर लखनऊ पहुँचे। लखनऊ से राजगुरु  बनारस के लिए और भगत सिंह एवं दुर्गा भाभी हावड़ा रवाना हुये। कुछ दिन कलकत्ता रहकर वापस लाहौर लौट आये।

अन्य गतिविधियों के साथ दिल्ली असेंबली में बम फेका और गिरफ्तारी दी। इस घटना की गूंज लंदन तक हुई। पूरे देश में गिरफ्तारियाँ हुई और छापे पड़े। सहारनपुर बम फैक्ट्री तक पुलिस पहुँची। कुछ क्राँतिकारी पुलिस प्रताड़ना से भयभीत हुये और पुलिस को सूचनाएँ मिलीं। देशभर में कुल 272 गिरफ्तारियाँ हुई। अलग अलग प्रकरणों में अलग अलग अदालतों में मुकदमें चले। 15 अप्रैल 1929 को, पुलिस ने लाहौर बम फैक्ट्री की खोज की, जिसके कारण सुखदेव, किशोरी लाल और जय गोपाल सहित एचएसआरए के अन्य सदस्यों को गिरफ्तार हुये। पहले सरदार भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त पर असेम्बली बम काँड का ही मुकदमा था फिर भगतसिंह सिंह, सुखदेव, राजगुरु और 21 अन्य पर सॉन्डर्स की हत्या का आरोप लगाया गया। दिल्ली जेल से लाहौर जेल भेज दिया गया। लाहौर जेल में राजनैतिक कैदियों के साथ अमानुषिक व्यवहार के विरूद्ध भूख हड़ताल आरंभ हुई। इसकी चर्चा देशभर में हुई। सभी क्राँतिकारियों के प्रति जन समर्थन भी बढ़ा।

पहले असेंबली बम काँड का फैसला आया जिसमें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई और फिर 10 जुलाई 1929 से सेन्डर्स वध का मुकदमा शुरू हुआ। इस मुकदमें में सरदार भगतसिंह के अतिरिक्त 27 अन्य क्राँतिकारियों पर सेन्डर्स और चन्नन सिंह का वध एवं स्कॉट की हत्या की साजिश रचने का मुकदमा चला। इस मुकदमें में तीन क्राँतिकारियों सरदार भगतसिंह, सुखदेव थापर और राजगुरु को फाँसी की सजा सुनाई गई। फाँसी के लिये 24 मार्च 1931 की तिथि तय की गई। लेकिन विरोध प्रदर्शन आरंभ हो गये। जिन्हे देखते हुये एक दिन पहले 23 मार्च 1931 को शाम 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दे दी गई और जनरोष से बचने के लिये इनके पार्थिव शरीर को जेल के पीछे ही अंतिम संस्कार कर दिया गया।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।

One thought on “मेरा रंग दे बसंती चोला : 23 मार्च शहीद दिवस

  • March 25, 2025 at 21:19
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    बहुत बढ़िया लेख…

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