संघर्षशील मनुष्य की संवेदनशील अभिव्यक्ति : स्व. मधु धांधी
भूले -बिसरे कवि स्वर्गीय मधु धान्धी की कविताएं, (जन्म दिवस 21 जून )
साहित्यिक प्रतिभाओं के मामले में छत्तीसगढ़ की धरती प्रारंभ से ही बहुत धनवान है। स्वर्गीय मधु धान्धी भी यहाँ की इन प्रतिभाओं में से थे। जीवन की आपाधापी में समाज और वर्तमान साहित्यिक बिरादरी ने भले ही उन्हें भुला दिया हो, उनसे जुड़ी यादें भले ही कुछ धुंधली हो गयी हों और नई पीढ़ी के अधिकांश रचनाकार अपने इस प्रतिनिधि कवि की रचनाधर्मिता से अनजान हों, लेकिन जानने वाले जानते हैं कि हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में समान रूप से लिखने वाले मधु धान्धी बीसवीं सदी के सातवें-आठवें दशक में छत्तीसगढ़ के साहित्यिक क्षितिज पर एक चमकदार सितारे की तरह तेजी से उभर रहे थे।
उनका जन्म 21 जून 1951 को वर्तमान बलौदाबाजार-भाटापारा जिले के ग्राम पिसीद (विकास खंड-कसडोल) में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा दुर्ग और पिथौरा में और बी.ए. पूर्व तक कॉलेज की पढ़ाई महासमुन्द में हुई। उन्होंने एक सरकारी योजना के तहत मध्यप्रदेश के नौगांव (जिला -छतरपुर ) स्थित मत्स्योद्योग प्रशिक्षण संस्थान में मछली पालन का तकनीकी प्रशिक्षण भी प्राप्त किया। हालांकि वहाँ से लौटकर इस व्यवसाय को अपनाने के बजाय वह हमेशा काव्य सृजन में ही लगे रहे।
आंचलिक कवि सम्मेलनों में उनकी काव्य प्रतिभा शोहरत की बुलंदियों को छूने लगी थी, उनका लेखन कार्य लगभग दस वर्षों तक चला और अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएं प्रकाशित भी होती रहीं। आकाशवाणी के रायपुर केन्द्र से समय-समय पर उनकी रचनाओं का प्रसारण भी होता रहा, लेकिन दुर्भाग्यवश, पता नहीं किस बात से मर्माहत होकर किन भावुक पलों में उन्होंने 3 अप्रैल 1977 को वर्तमान महासमुन्द जिले के अपने गृहग्राम खुटेरी (विकासखंड -पिथौरा) में आत्मदाह कर लिया ?
उस वक्त वह सिर्फ़ 26 वर्ष के थे। मित्रों ने उनके साहित्यिक योगदान को यादगार बनाए रखने के लिए पिथौरा में उनकी स्मृति में साहित्य एवं सांस्कृतिक समिति का गठन किया था। समिति के तत्वावधान में उनकी 13 हिन्दी और 12 छत्तीसगढ़ी कविताओं का संकलन ‘हॄदय का पंछी’ वर्ष 1977 में प्रकाशित किया गया, जो उनका पहला और इकलौता काव्य संग्रह है।
किसी घने जंगल में या किसी रेगिस्तान में राह से भटके मुसाफ़िर की बेचैनी हो, चाहे खेतों में पसीना बहाकर भी दिन रात ग़रीबी की पीड़ा झेलते किसानों और मज़दूरों का दुःख-दर्द, मधु धान्धी की कविताएं हर हाल में आज के संघर्षशील मनुष्य की संवेदनशील अभिव्यक्ति का पर्याय है। उनकी रचनाओं में देशभक्ति की भावनाओं के साथ मानवीय प्रेम, मिलन और विछोह के अलग-अलग रंग भी हैं।
अपने नाम के अनुरूप मधुर स्वरों में अपने सुमधुर गीतों के जरिए सुनने वालों के दिल की गहराइयों में उतर जाना उनकी एक बड़ी विशेषता थी। ग़रीबों को और ज़्यादा ग़रीब और धनवानों को और भी अधिक अमीर बनाने वाली समाज-व्यवस्था में कोई भी सजग और संवेदनशील साहित्यकार आम जनता की पीड़ा को अपने शब्दों की वाणी दिए बिना नहीं रह सकता।
मधु धान्धी भी आम जनता के कवि थे। इस नाते आम जनों की आँखों से बहता पानी उन्हें भी झकझोरता था। तभी तो आर्थिक विषमताओं से घिरे आज के मेहनतकश मनुष्य की व्यथा से विचलित होकर उन्होंने लिखा था-
“कितना खटना पड़ता है तब
मानव को रोटी मिलती है ।
कितने उघरे देह यहाँ हैं ,
बरसों में धोती मिलती है।।
भूखे को कब रोटी मिलती ,
कब नंगे को वस्त्र मिला है ।
हम बंदी ,धन वाले शासक,
कैदी को कब अस्त्र मिला है ।।”
वास्तव में रोटी से वंचित, धोती से वंचित और कैदियों जैसी ज़िन्दगी जीने वाले इस देश के मेहनतकशों की हालत देखकर भला कौन यकीन करेगा कि हम एक आज़ाद मुल्क के निवासी हैं? तभी तो मधु धान्धी ने अपनी इस रचना में आगे लिखा था–
“यहाँ सांस तक रहन रखे हैं ,
धन वालों का ईश्वर साथी ।
इनके ही घी के दियों में
बैठे प्रभु हैं बनकर बाती ।।
मित्र मुझे विश्वास नहीं है
बहुत सुखी यह देश है मेरा ।
कुछ सड़कों में काट रहे हैं,
किया कुछों ने रैनबसेरा ।।”
समाज की बदहाली के लिए ज़िम्मेदार असामाजिक तत्वों की उन्हें गहरी पहचान थी। एक सजग रचनाकार के रूप में उन्होंने अपनी साहित्यिक ज़िम्मेदारी का निर्वहन करते हुए ऐसे तत्वों को झिंझोड़ कर बेनकाब किया। एक सम्पन्न नेता और एक निर्धन व्यक्ति की मौत के विरोधाभास को उन्होंने ‘चल बसा निर्धन’ शीर्षक अपनी एक कविता में कुछ इन शब्दों में व्यक्त किया है —
“कर गए हैं वो तो बीमा लाख भर का ,
घर उनके ना रहे कोई कमी में ।
खा रहे कुछ और कुछ हैं फेंक देते ,
या लुटा दें सारा धन ,चाहे रमी में ।।
दिवस बीते ,फिर से देखी एक अर्थी ,
फूल की क्या बात ,कांटे भी नहीं थे ,।
कब मरा ,कैसे मरा ,यह कौन जाने ,
रेडियो संदेश भी बाँटे नहीं थे।
मैंने सोचा हो नहीं सकता ये नेता ,
जैसे कोई दे रहा था खड़ा भाषण ,
यह नहीं कर पाया होगा कोई बीमा
चल बसा निर्धन बिना पाए ही राशन ।”
देश के किसान कभी अनावृष्टि तो कभी अतिवृष्टि से पीड़ित होते रहते हैं। इन प्राकृतिक आपदाओं ने छत्तीसगढ़ के किसानों को भी कई बार तोड़ा है। अकाल का सामना करते किसानों के दर्द को मधु धान्धी ने अपने एक छत्तीसगढ़ी गीत में कुछ इस तरह अभिव्यक्ति दी है-
“फेर परगे संगी अकाल ,कइसे करबो ,
दुकाल एसो फेर परगे ना ।
पानी के दिन भागिस
त आगिस जाड़ ।
बिन घर के कतको ल
कर डारिस बाढ़ ।।
दू बेरा कतको त नइ पावैं भात ।
बिन ओन्हा ,चेंदरा के
काटत हन रात ।।
फेर आगे संगी जंजाल ,
कइसे करबो
ए जाड़ बैरी जर गे हे ना ।।”
मधु धान्धी का रचना संसार दरअसल प्रगतिवाद और छायावाद का अदभुत संयोजन है। उनकी कविताओं की दुनिया में जहाँ देश की सामाजिक-आर्थिक विसंगतियों पर प्रहार करती प्रगतिवादी रचनाएं हैं, वहीं छायावादी काव्य धारा से निकली उनकी कविताएं कहीं प्रकृति प्रेम तो कहीं संयोग और वियोग श्रृंगार के अलग-अलग रंगों में उभरकर कई भावुक दृश्यों का निर्माण करती हैं। प्रयोगधर्मिता भी उनके कला पक्ष की एक बड़ी ख़ूबी है, लेकिन वह कृत्रिम नहीं, बल्कि स्वाभाविक है। उनकी अभिव्यक्ति के रूप, रंग और रस पहाड़ी झरनों की तरह बिल्कुल नैसर्गिक हैं। बानगी देखिए-
“मेरी पीड़ा ने आँसू के
आभूषण हैं त्याग दिए,
और हँसी को अपने आँगन
का मेहमान बना डाला ।
घिरा मेघ से गगन सघन है ,
हुए नयन के रीते कोर ,
पता नहीं ,विश्वास मुझे है
जाने ले जाए किस ओर ।
फिर भी आशाएं वरमाला
लिए खड़ी हैं द्वार पर ,
निर्निमेष हैं भाव लोटते
सपनों के अंगार पर ।”
उनके इकलौते काव्य संग्रह ‘हॄदय का पंछी’ के इसी शीर्षक वाले उनके एक गीत की इन पंक्तियों में उनकी भावनाओं को महसूस कीजिए-
“मेरे मुरझाए फूलों को
मत अपना अपमान समझकर
बहुत दूर से मैं लाया हूँ ,
कसम तुम्हें , ठुकरा न देना ।
बरसों बाद हॄदय का पंछी
पास तुम्हारे ले आया हूँ,
टूटा मन है और न टूटे ,
यह कहकर बहला न देना ।”
उन्होंने छत्तीसगढ़ी में भी अनेक भावपूर्ण, सुमधुर गीत लिखे। अपने प्रियतम के इंतज़ार में व्याकुल प्रियतमा की भावनाएं मधु के इस गीत में कुछ इन शब्दों में प्रकट होती हैं –
“कहिके गे हावै आहां अषाढ़,
आँखी होगे बदरा ,दिन मोर होगे पहार ।
कछु नई सुहावै रे जर जुड़हा घाम ,
ठोसरा मारै संगी ले -ले तोर नावं।
मन के बारी हा होगे कछार ,
आँखी होगे बदरा ,दिन मोर होगे पहार।”
इसी तरह नायिका के वियोग में बेचैन नायक की अभिव्यक्ति –
“जब सुरता के फांस पिराही
नइ काहीं जब तोला भाही ,
रोज घठौन्दा जाये बेरा
मन ला पथरा कस कर लेबे ।
जानत हांवव मोर बिना तयं
तन ला कचरा कस कर लेबे ।
मोर सुरता के वृंदावन मा
मन ला बदरा कस कर लेबे ।”
इसी कड़ी मे बिदाई (गौना )के पहले एक बेटी और माँ के हॄदय के उदगार मधु के एक गीत में कुछ इस तरह प्रकट हुए हैं —
“बांचे हे चार दिन, गवनवा हो ही ।
दाई झन रोबे तयं, जाहूं ससुरार ,
इहैं असन पाहूँ मैं उहाँ दुलार ।
आँसू लुका के मोर भइया रोही ।
बांचे हे चार दिन, गवनवा होही ।
आँसू मा लुगरा के अँचरा भर गे,
आँखी के काजर आँसू मा जर गे।
बेटी मोर सुन्ना अंगनवा होही ।
बांचे हे चार दिन, गवनवा होही ।”
अपने कृतित्व और व्यक्तित्व से उन्होंने अनेक वरिष्ठ कवियों को प्रभावित किया था। उनके निधन पर शोक प्रकट करते हुए धमतरी निवासी कवि और लेखक नारायणलाल परमार (अब स्वर्गीय) ने मुझे एक पत्र में मधु धान्धी के प्रथम कविता संग्रह ‘हॄदय का पंछी’ का उल्लेख करते हुए लिखा था– ” इस संकलन में मधु की जितनी भी रचनाएं संकलित हो पाई हैं, वे निःसन्देह कवि की गहरी अनुभव क्षमता का परिचय देती हैं। आज छत्तीसगढ़ में उभरती पीढ़ी के जितने भी लोग कविताएँ लिख रहे हैं, उनमें मधु का स्वर मुझे सर्वाधिक ईमानदार और प्रभावी लगा।”
स्वर्गीय मधु धान्धी के इस काव्य संग्रह की कविताओं पर बिलासपुर के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. विनय कुमार पाठक की टिप्पणी इस प्रकार है —
“एक ‘हॄदय का पंछी’ पिथौरा को भी उपलब्ध हुआ, किन्तु जैसे ही उसके पर निकलने आरंभ हुए थे, काल-कराल ने उसके पंख काट दिए। छत्तीसगढ़ का ‘सुवा’ अपनी वाणी में शब्द उच्चरित कर ही रहा था कि उसका कंठ अवरुद्ध हो गया। युग की वक्र दृष्टि का शिकार हो गया ‘हॄदय का पंछी’, किन्तु उसकी साधना आज भी जीवित है-युग की शक्ति को चुनौती देने के लिए।”
वहीं राजधानी रायपुर निवासी प्रदेश के सुप्रसिद्ध गीतकार रामेश्वर वैष्णव ने लिखा था -“मधु धान्धी एक दुलारा कवि, एक प्यारा इंसान। पैरी कवि सम्मेलन की प्रथम मुलाकात में ही मुझमें अपेक्षाएं बो गया। सधा हुआ नादित स्वर, जमी हुई लेखनी , उसके अंदर एक बहुत बड़ा कवि संभावनाओं के द्वार खटखटा रहा था। मगर अफ़सोस! अखिल भारतीय स्तर को छूते-छूते उसकी ख्याति एक अविस्मरणीय गुमनामी में बदल गयी। छत्तीसगढ़ का सशक्त गीतकार उठ गया ।”
अपने अल्पकाल के साहित्यिक जीवन में मधु धान्धी की कुछ रचनाओं का छत्तीसगढ़ के कुछ समाचार पत्रों के अलावा नईदिल्ली की ‘सरिता’ और ‘मुक्ता’ जैसी राष्ट्रीय पत्रिकाओं में भी प्रकाशन हुआ।
मरणोपरांत उनका परिचय सुप्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य क्षेमचन्द्र सुमन द्वारा सम्पादित और वर्ष 1981-82 में प्रकाशित ‘दिवंगत हिन्दी सेवी ग्रंथ’ में भी छपा, जिसमें देश के विभिन्न राज्यों के हजारों दिवंगत कवियों और लेखकों का सचित्र परिचय शामिल है। लेकिन क्या सिर्फ़ इतना ही पर्याप्त है ?
मधु जैसे अनेक दिवंगत कवियों और विभिन्न साहित्यिक विधाओं के दिवंगत रचनाकारों की प्रकाशित, अप्रकाशित रचनाओं का समग्र मूल्यांकन अभी बाकी है। क्या उनकी पांडुलिपियों और प्रकाशित कृतियों का संग्रहालय भी बनवाया जा सकता है, ताकि वहाँ उनकी रचनाओं को सुव्यवस्थित रूप से प्रदर्शित करते हुए उन्हें सुरक्षित भी रखा जा सके?
क्या प्रदेश के विश्वविद्यालयों के भाषा और साहित्य विभागों द्वारा ऐसा किया जा सकता है? अगर ऐसा हो सका तो मुझे विश्वास है कि इस प्रकार का संग्रहालय शोध छात्र-छात्राओं के लिए भी बहुत उपयोगी साबित होगा। साहित्यिक संस्थाएं भी इसके लिए अपने स्तर पर पहल कर सकती हैं। संभावनाओं पर विचार किया जाना चाहिए।