संसद बना अखाड़ा है – सप्ताह की कविता
समसामयिक राजनीति, सामाजिक विडंबनाओं और मानसिक संकीर्णताओं पर तीखा व्यंग्य करती शुभदा पाण्डेय की कविता सत्ता की सच्चाई को उजागर करती है। प्रत्येक पंक्ति में गहरे अर्थ छिपे हैं जो पाठकों को सोचने पर मजबूर करते हैं। यह रचना हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था, नैतिकता और जनचेतना पर गंभीर प्रश्न उठाती है।
संसद बना अखाड़ा है।
मुर्दा गड़ा उखाड़ा है।
सेना के वीरोत्सव पर।
छोटी सोच बघाड़ा है।
घर के सारे लोगों में।
दुश्मन पर बंटवारा है।
सत्ता की लोलुपता पर।
स्वारथ रटा पहाड़ा है।
जीवन शक्ति बढ़ाने को।
बहुत कामगर काढ़ा है।
बीत रही हैं बरसाते।
आएगा अब जाड़ा है।
बोल नहीं जो पाते है।
बुद्धिहीन बस पाड़ा है।
अगुआ बनने को इच्छुक।
बांध रहे वो नाड़ा है।
बिना प्रयोजन के अक्सर।
बजते यहाँ नगाड़ा है।
