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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा केशव हेडगेवार : विशेष आलेख

कुछ प्रतिभाओं को प्रकृति अतिरिक्त ऊर्जा के साथ संसार में भेजती है। वे जीवन के हर मोड़ पर कीर्तिमान बनाते हैं, नई राह बनाते हैं। आयु और परिस्थिति उनके कार्यों में आड़े नहीं आती, जमाना उनके पीछे चलता है। कोई कल्पना कर सकता है ग्यारह वर्षीय बालक की संकल्पशक्ति की जो प्रताड़ना की बिना परवाह किये अपने विद्यालय में वंदे मातरम का उद्घोष करे और विद्यालय से निष्कासित करने पर भी विचलित न हो। डा केशव बलिराम हेडगेवार ऐसी ही अलौकिक प्रतिभा के धनी थे ।

उनका जन्म 1889 की चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को हुआ था। उस वर्ष यह तिथि 1 अप्रैल को थी जबकि इस वर्ष यह तिथि 30 मार्च को पड़ रही है। उनके पिता बलिराम पंत हेडगेवार वैदिक विद्वान थे और माता रेवतीबाई भारतीय परंपराओं और स्वत्व के लिये पूर्णतः समर्पित ग्रहणीं थीं। परिवार में धर्म संस्कृति पर सदैव चर्चा होती। जो विद्वान घर आते वे भी विदेशी सत्ताओं द्वारा भारतीय समाज में विघटन पैदा करने, संस्कार हीनता का वातावरण बनाने और राष्ट्रीय संस्कृति पर प्रतिदिन हो रहे आघात पर भी चर्चा करते। इसी वातावरण में बालक केशव ने होश संभाला। वे बचपन से बड़े कुशाग्र बुद्धि थे, उनकी स्मरणशक्ति और किसी विषय का विश्लेषण करने की प्रतिभा भी अद्भुत थी। परिवार ने उनके शिक्षण की समानान्तर व्यवस्था की थी। विद्यालयीन शिक्षा शासन के नियमों और पाठ्यक्रम के अनुरूप हुई। लेकिन घर की शिक्षा भारतीय संस्कृति और संस्कारों के अनुरूप दी गई। शिक्षा की ये दोनों धाराएँ परस्पर विपरीत तो थीं लेकिन बालक केशव ने दोनों धाराओं में स्वयं को पारंगत बनाया।

अंग्रेजीकाल में भारत के सभी विद्यालयों में भी ब्रिटेन के राजा के प्रति समर्पण की प्रार्थना हुआ करती थी। यह बात बालक केशव को अच्छी नहीं लगती थी। एक दिन प्रार्थना के बाद उन्होंने वंदेमातरम का उद्घोष कर दिया इनका अनुसरण कुछ अन्य बच्चों ने भी किया। वंदेमातरम के जयघोष से पूरे विद्यालय में उथल पुथल मच गई। तब केशव पाँचवी कक्षा के विद्यार्थी थे। शिक्षक ने प्रताड़ित किया और क्षमा याचना के लिये दबाव डाला। पर केशव टस से मस न हुये। उन्होंने क्षमा नहीं माँगी तो उन्हें विद्यालय से निष्कासित कर दिया गया। यह घटना इतनी प्रचारित हुई कि नागपुर के किसी विद्यालय में उन्हें प्रवेश न मिला। परिवार की एक शाखा पुणे में भी रहती थी। पिता ने बालक को पढ़ने के लिये पूना भेज दिया। यह घटना 1901 की है। वस्तुतः महाराष्ट्र में कोई न कोई शक्ति सदैव रही जो स्वाभिमान जागरण की प्रेरक रही। कभी समर्थ स्वामी रामदास तो कभी शिवाजी महाराज और फिर पेशवाओं ने यह धारा बनाये रखी। उन दिनों यह कार्य लोकमान्य तिलक कर रहे थे।

तिलक जी एक ओर स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय थे तो दूसरी सांस्कृतिक जागरण के अभियान भी चला रहे थे। तिलक जी ने 1890 के आसपास शिवाजी उत्सव और गणेशोत्सव की परंपरा आरंभ की जो नासिक और पुणे से मुम्बई, वर्धा, नागपुर और अमरावती जैसे नगरों तक भी पहुँच गयी। कहने के लिये यह आयोजन सार्वजनिक पूजन आरती केलिये था पर इन आयोजनों में राष्ट्र संस्कृति के प्रति स्व गौरव का स्मरण कराने वाली सामग्री का वितरण होता था। किशोर वय केशव और उनका पूरा परिवार राष्ट्र जागरण के इस अभियान में बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रहे थे। इससे बालक केशव का आत्मविश्वास बढ़ा और आत्म गौरव का भाव नस नस में प्रवाहित होने लगा। इस अंतःशक्ति से ही वे वंदेमातरम कहने पर मिली प्रताड़ना से तनिक भी विचलित न हुये और शान से घर आ गये। उन्ही दिनों नागपुर में प्लेग फैल गया। माता पिता दोनों इस बीमारी की चपेट में आये। कुछ अंतर से माता और पिता दोनों का निधन हो गया यह घटना 1902 की है।

अब बालक केशव  का स्थाई निवास पुणे हो गया। यहाँ उन्होंने पुणे नेशनल स्कूल में आगे की पढ़ाई आरंभ की। पिता भले संसार से विदा हो गये थे पर उनकी एक सीख सदैव मार्ग दर्शन करती रही। केशव को पढ़ने केलिये पिता जब नागपुर से विदा कर रहे थे तब समझाईश दी थी कि “पहले पढ़ाई पूरी कर लो उसके बाद अन्य काम” ।

पिता का साया उठ गया था पर केशवजी ने पिता की इस सीख का पालन जीवन भर किया। उन्होंने मन लगाकर पढ़ाई की और अपने लक्ष्य निर्धारित करके आगे बढ़े। उनका अध्ययनशील स्वभाव था। उन्होने अपनी पढ़ाई के साथ सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का भी अध्ययन किया। उन दिनों चाफेकर बंधुओं के बलिदान से पुणे का वातावरण बहुत गर्म था। असंतोष को दबाने केलिये अंग्रेजों के अत्याचार बढ़ रहे थे। वहीं तिलक जी का सामाजिक जागरण का अभियान भी चल रहा था। इसी वातावरण में केशव जी ने अपनी विद्यालयीन शिक्षा पूरी की और मेडिकल की पढ़ाई के लिये 1910 में कलकत्ता चले गये। कलकत्ता में वे युवाओं की अनुशीलन समिति के संपर्क में आये। यह समिति बंगाल में क्राँतिकारियों के लिये काम करती थी। केशव जी अनुशीलन समिति में सक्रिय हुये। उन्होंने 1915 मेडिकल की डिग्री प्राप्त की और नागपुर लौट आये। यहाँ लौटकर उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता ली और काँग्रेस की गतिविधियों से जुड़ गये। यद्यपि परिवार जन चाहते थे कि वे डाँक्टरी पढ़कर आये हैं कोई औषधालय खोल लें या सरकारी औषधालय से जुड़ जायें और विवाह कर लें। पर डा केशव ने ये दोनों काम न कियै। वे पूरी तरह राष्ट्र और संस्कृति की सेवा में समर्पित हो गये। काँग्रेस में वे उस टोली के समर्थक थे जो गर्म दल की मानी जाती थी। इस दल के नेता तिलकजी थे।

डाक्टर केशव जी पूरा समय कांग्रेस को देने लगे। विदर्भ में घूम घूमकर सभायें करते और लोगों को जागरूक करके काँग्रेस से जोड़ते। 1916 में काँग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में सम्मिलित हुये। 1920 में नागपुर में आयोजित काँग्रेस अधिवेशन की तैयारियों का अधिकाँश दायित्व इन्हीं के ऊपर था। इन्होंने नागपुर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव रखा पर संयोगवश पारित न हो सका। 1921 में असहयोग आंदोलन के लिये उन्होंने पूरे क्षेत्र में सभायें की। लोगों को जाग्रत किया और आँदोलन से जोड़ा। वे गिरफ्तार हुये और एक वर्ष जेल में रहे। 12 जुलाई 1922 में रिहा हुये। वे अपने कार्यों से समाज और कांग्रेस में कितने लोकप्रिय थे इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि जब डा केशव हेडगेवार जेल से रिहा हुये और उनके स्वागत के लिये सभा का आयोजन हुआ। उस सभा में पं मोतीलाल नेहरू और हकीम अजमल खाँ जैसे नेता सम्मिलित हुये। लेकिन इसी वर्ष उनके काँग्रेस के कुछ नेताओं से मतभेद आरंभ हुये। इसका कारण असहयोग आंदोलन में खिलाफत आँदोलन को जोड़ना था।

डा केशव हेडगेवार का मानना था संघर्ष केवल राष्ट्र और उसकी स्वतंत्रता के लिये हो इसे धार्मिक मुद्दों से अलग रखा जाये। राष्ट्रधर्म सबसे ऊपर है। अन्य धार्मिक विन्दु केवल उस सीमा तक ही रहना चाहिए जहाँ तक राष्ट्रीय आंदोलन को सहायता मिले। अभी यह आँदोलन चल ही रहा था कि देश के विभिन्न भागों से साम्प्रदायिक दंगों के समाचार आने लगे। विशेषकर मालाबार से, जहाँ धार्मिक आधार पर एक वर्ग के लोगों को निशाना बनाया गया। हत्या लूट बलात्कार और बलपूर्वक धर्मान्तरण के समाचार आये। अपनी पढ़ाई के दौरान भी वे बंगाल में इस प्रकार की घटनाओं के बारे में सुन चुके थे। उन्होंने डा बालकृष्ण शिवराम मुजे और स्वामी श्रृद्धानंद के साथ मालावार की यात्रा की। वहाँ का दृश्य देखकर व्यथित हो गये। लौटकर अपनी बात से वरिष्ठ नेताओं को अवगत कराया गाँधी जी से भी मिले। लेकिन वरिष्ठ जनों में किसी ने भी इस हिंसा को गंभीरता से न लिया अपितु कुछ ने तो यह प्रचार भी किया कि जो लोग मारे गये वे अंग्रेजों के समर्थक थे।

ऐसा प्रचार करने वाली लाॅबी वही थी जिसने गाँधी जी को खिलाफत आँदोलन को काँग्रेस से जोड़ने केलिये तैयार किया था। यह लाॅबी फिर सफल हुई और मालाबार के पीड़ितों के प्रति किसी की सहानुभूति प्रकट नहीं हुई। डाॅ केशव हेडगेवार को लगा कि यह समस्या इसलिये है कि समाज में राष्ट्र और संस्कृति की प्राथमिकता का भाव कमजोर है। यदि इनके मन में राष्ट्र और संस्कृति के प्रति प्रबल भाव होता यह सब न होता। उन्हें लगा कि आने वाली पीढ़ी में राष्ट्र और संस्कृति को सर्वोपरि मानने का भाव जगाना होगा। इसके लिये उन्होंने 27 सितम्बर 1925 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की नींव रखी। यह विजय दशमीं का दिन था। इस तिथि के बाद उनकी भूमिका दोहरी रही। वे राष्ट्र भाव और साँस्कृतिक चेतना के जागरण के लिये राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विस्तार में तो लगे और साथ ही अंग्रेजों से भारत की मुक्ति के लिये काँग्रेस में भी सक्रिय रहे। यह डाॅ हेडगेवार के व्यक्तित्व की विशेषता थी कि

सामाजिक जागरण के लिये सक्रिय लगभग सभी संस्थाएँ और उनके प्रमुख उन्हें अपना विश्वस्त मानते थे। इनमें आर्य समाज, सशस्त्र क्राँति आँदोलनकारी आदि  सभी प्रमुख संस्थाएँ भी।

1928 में सैंडर्स वध के बाद भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव विभिन्न स्थानों पर अज्ञातवास में रहे तब राजगुरु नागपुर आये। डाॅ हेडगेवार ने ही उनके रहने की व्यवस्था अपने निकटस्थ भैय्या जी ढांणी के घर की थी ।

1929 में डाॅ हेडगेवार काँग्रेस के लाहौर अधिवेशन में सम्मिलित हुये। इसी अधिवेशन में पहली बार पूर्ण स्वराज्य का संकल्प पारित हुआ था। लाहौर से लौटकर डाॅ हेडगेवार ने सभी स्थानों की यात्रा की और सभी संघ शाखाओं में पूर्ण स्वराज्य का संकल्प पारित कराया। 1930 तक महाराष्ट्र के अधिकांश स्थानों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विस्तार हो गया था।

1930 में नमक सत्याग्रह आरंभ हुआ। डाक्टर हेडगेवार ने जोर शोर से हिस्सा लिया। वे यवतमाल में गिरफ्तार हुये। इस बार नौ माह जेल में रहे।

जेल से रिहा होकर पुनः संघ कार्य को विस्तार दिया। महाराष्ट्र की सीमा सै बाहर संघ का राष्ट्र व्यापी स्वरूप बना। 1934 में गाँधी जी संघ शिविर में आये। उन्होंने अनुशासन और सामाजिक एकत्व भाव की प्रंशसा की। 1940 में डाक्टरजी का स्वास्थ्य बिगड़ा। बीमारी की अवस्था में भी वे संघ शिक्षा वर्ग में आये। अंततः 21 जून 1940 को उन्होंने शरीर त्याग दिया। उनके द्वारा संस्थापित राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ आज विश्व की सबसे बड़ी अशासकीय संस्था है। अनेक सत्ताओ॔ की कुदृष्टि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर रही। स्वयंसेवकों पर व्यक्तिगत आक्रमण और हत्याएँ भी हुई। संस्थागत हमले भी हुये, प्रतिबंध भी लगे पर राष्ट्र और संस्कृति की सेवा के लिये समर्पित संघ और उसके स्वयंसेवकों की गति कभी न रुकी।

One thought on “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा केशव हेडगेवार : विशेष आलेख

  • March 30, 2025 at 09:58
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    शत शत नमन🙏🙏🙏

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