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भारतीय स्वाभिमान, स्वाधीनता और संस्कृति की प्रतीक : वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई

स्वाभिमान, स्वाधीनता और संस्कृति की रक्षा के लिये भारत में असंख्य बलिदान हुए हैं, तब जाकर हमने 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता का सूर्योदय देखा। इन बलिदानों में रानी लक्ष्मीबाई का अनूठा बलिदान भी है, जिन्होंने अपनी अंतिम श्वास तक संघर्ष किया।

स्वत्व-रक्षा के लिये अपना पूरा जीवन समर्पित करने वाली महारानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवम्बर 1828 को बनारस में हुआ था। बचपन से ही वे बहुत ऊर्जावान तथा सबसे अलग थीं। इसीलिए उनका नाम मणिकर्णिका रखा गया। उनके पिता मोरोपंत तांबे एक वीर और साहसी व्यक्ति थे। उनके पूर्वजों ने भी हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना के लिए संघर्ष किया था।

भारत राष्ट्र के सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति समर्पित माता भागीरथी देवी भी अस्त्र-शस्त्र चलाना जानती थीं, ताकि विषम परिस्थिति में अपने स्वाभिमान की रक्षा कर सकें। माता संस्कृत की विद्वान और धार्मिक विचारों की थीं। इसलिए मणिकर्णिका को वीरता, साहस और राष्ट्र संस्कृति के प्रति समर्पण का भाव परिवार के संस्कारों से मिला था। किंतु माता की मृत्यु इनके बालपन में ही हो गई थी। इसलिए पालन-पोषण का दायित्व पिता के जिम्मे आया।

पिता ने माता और पिता — दोनों का दायित्व निभाया। वे जहाँ भी जाते, बेटी उनके साथ रहती थी। बालिका का साहस, ऊर्जावान सक्रियता और बातचीत में अपना पक्ष रखने की संकल्पवान शैली सबको प्रभावित करती थी। इसलिए वे जहाँ जातीं, सबको आकर्षित करतीं। उनके इन्हीं गुणों के कारण उनका नाम ‘छबीली’ रख दिया गया। वे पिता के साथ पेशवा के दरबार भी जातीं और दरबार की बारीकियों से परिचित हो गई थीं।

समय के साथ वे बड़ी हुईं और 1842 में उनका विवाह झाँसी के महाराज गंगाधर राव से हो गया। विवाह के बाद उनका नाम लक्ष्मीबाई हुआ। उन्हें एक पुत्र हुआ, लेकिन उस बालक की मृत्यु मात्र चार माह में ही हो गई। आगे चलकर महाराज भी बीमार रहने लगे। इससे राज्य संचालन के लगभग सभी कार्य रानी लक्ष्मीबाई ही देखने लगीं।

1853 में महाराज का स्वास्थ्य अत्यंत गिर गया, तब उन्होंने एक बालक को गोद लेने का निर्णय लिया। एक बालक गोद लिया गया, जिसका नाम दामोदर राव रखा गया। महाराज के निधन के बाद इस बालक का औपचारिक राज्याभिषेक कराकर महारानी पूर्ववत् राजकाज चलाने लगीं। लेकिन अंग्रेजों को यह नागवार गुज़रा। उन्होंने बालक को गोद लेने और उसे शासन का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया तथा झाँसी राज्य को ब्रिटिश शासन का अंग बनाने की घोषणा कर दी। अंग्रेजों ने सेना भेजकर बलपूर्वक झाँसी नगर और किले पर कब्जा कर लिया। विवश होकर रानी को अपने परिवार सहित झाँसी का किला छोड़कर रानी महल आना पड़ा।

वे परिस्थिति देखकर किले से महल में तो आ गईं, परन्तु उन्हें अपने स्वाभिमान और पूर्वजों की परंपरा पर आघात लगा। उन्होंने नाना साहब पेशवा से संपर्क किया और अपना राज्य पुनः प्राप्त करने की योजना बनाई। सेना की भर्ती करतीं, तो अंग्रेजों को संदेह होता, इसलिए उन्होंने महिला ब्रिगेड बनाना शुरू किया, जिसका नेतृत्व झलकारी बाई को दिया।

1857 में अवसर देख उन्होंने धावा बोला और किले पर पुनः अधिकार कर लिया। रानी के सत्ता में लौटते ही झाँसी के पुराने सैनिक भी उनके साथ आ जुटे। रानी ने अपना झंडा फहराया और राजकाज आरंभ कर दिया। उन्होंने राज्य संचालन की वही प्रक्रिया घोषित की, जो शिवाजी महाराज ने हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना के समय की थी। इसके साथ महारानी ने सेना की भर्ती भी आरंभ कर दी।

जिन दिनों वे स्वयं को सशक्त और संगठित कर रही थीं, उन्हीं दिनों ओरछा और दतिया के राजाओं ने झाँसी पर एक साथ हमला कर दिया। यह हमला सितंबर 1857 के अंत में हुआ, जो अक्टूबर के प्रथम सप्ताह तक चला। इतिहासकारों का मानना है कि इन दोनों राजाओं ने अंग्रेजों के इशारे पर यह हमला किया था, ताकि रानी की शक्ति को कमजोर किया जा सके। रानी ने इस आक्रमण का डटकर मुकाबला किया और इस दोतरफा हमले को विफल कर दिया। हमलावर सेनाओं को लौटना पड़ा।

इस युद्ध में रानी को विजय तो मिली, पर वे आंतरिक रूप से कमजोर हो गईं। उन्हें आर्थिक और सैन्य — दोनों क्षति हुई। उन्होंने फिर धन और सेना जुटाना आरंभ किया, किंतु अधिक समय नहीं मिला। जनवरी 1858 में अंग्रेजों ने झाँसी को घेरना शुरू कर दिया। रानी ने सामना करने के लिये सेना की भर्ती तेज कर दी। दुर्भाग्यवश, कई विश्वासघाती भी उसमें शामिल हो गए।

अपने जासूसों की किले में जमावट करके अंग्रेजों ने मार्च 1858 के आरंभ में झाँसी पर जोरदार हमला किया। रानी ने वीरता से मुकाबला किया, किंतु एक रात विश्वासघाती दूल्हा जू ने किले का दक्षिणी द्वार खोल दिया और अंग्रेजी फौज भीतर आ गई। उन्होंने नगर, किले तथा रानी महल पर पुनः कब्जा कर लिया।

परिस्थिति को देखते हुए वीरांगना झलकारी बाई ने घेरा बनाकर रानी को उनके दत्तक पुत्र दामोदर राव के साथ सुरक्षित बाहर निकाला। झलकारी बाई की कद-काठी रानी से बहुत मिलती थी। इसलिए उन्होंने रानी का ध्वज लिया और उनकी शैली में ही युद्ध करने लगीं। इससे अंग्रेजी सेना भ्रमित हो गई और झलकारी बाई को ही रानी समझकर घेरने लगी। इसी का लाभ उठाकर रानी झाँसी से सुरक्षित निकल गईं।

झाँसी से निकलकर रानी कालपी पहुँचीं। यहाँ तात्या टोपे के मार्गदर्शन में पुनः सेना गठित करना आरंभ किया। वे अपनी झाँसी को मुक्त कराने के अभियान में लग गईं। कालपी क्रांतिकारियों का प्रमुख केंद्र बन गया था। झाँसी में क्रांति को पूरी तरह कुचलने के बाद अंग्रेजों ने मई 1858 में कालपी को घेरना आरंभ किया और जून के पहले सप्ताह में धावा बोल दिया। अंग्रेजों के पास नौ तोपखानों के साथ ओरछा, दतिया तथा भोपाल की सेनाओं का भी सहयोग था।

कालपी का किला तोपों की मार न सह सका। रानी युद्ध करते हुए बाहर निकलीं और ग्वालियर पहुँचीं। ग्वालियर की सेना उनके साथ आ गई। महाराज ग्वालियर भले ही खुलकर सामने न आए, लेकिन उन्होंने किला खाली कर दिया और सेना भी रानी के अधीन हो गई।

अंग्रेजों ने ग्वालियर पर हमला बोला। रानी 18 जून 1858 को ग्वालियर में कोटा की सराय क्षेत्र में युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुईं। उनका अंतिम संस्कार पुजारी की सहायता से नवाब बाँदा ने किया। यहाँ आज भी उनकी समाधि बनी हुई है। नवाब बाँदा बाजीराव पेशवा के वंशज थे, जो समय के साथ धर्मांतरित हो गए थे। बाद में नवाब बाँदा ने अंग्रेजों से संपर्क करके रानी के दत्तक पुत्र दामोदर राव को मध्यप्रदेश के इंदौर में बसाने का प्रबंध किया। यह परिवार आज भी इंदौर में निवास करता है।

वीरांगना रानी के चरणों में कोटिशः नमन।