जानिए रक्षा बंधन की शुरुवात कहां से हुई : विशेष आलेख

श्रावण मास की पूर्णिमा जब चांद अपने पूर्ण यौवन पर होता है तब रक्षा बंधन का त्यौहार हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। चाहे बंगाल हो या महाराष्ट्र, मद्रास हो या राजस्थान या मध्यप्रदेश सभी जगह यह त्यौहार बड़ी धूमधाम और पवित्रता के साथ मनाया जाता है। बंगाल में तो यह त्यौहार शक्ति का प्रतीक माना जाता है।
रक्षा बंधन प्रमुख रूप से भाई बहन के अटूट रिश्तों और विश्वास का पावन त्यौहार है। बहन द्वारा भाई की कलाई में बांधा गया ‘रक्षा कवच‘ जहां भाई की सुरक्षा करता है वहीं उन्हें बहन की रक्षा के वचन को स्मरण कराता है और भाई इस अटूट बंधन को आखिरी क्षण तक निभाने का प्रयास करता है।
वह बहनों की खातिर भाई अपने प्राण तक देने को तत्पर रहता है। कहना न होगा कि धागे के बंधन से भाई बहन का प्यार बंधा होता है, आत्मा बंधी होती हैं। इस त्यौहार में ‘राखी‘ बांधने की परंपरा होती है। बहन अपने भाई को, ब्राह्मण अपने यजमान को और प्राचीन काल में ऋषिगण राजाओं को रक्षा सूत्र बांधते थे जो व्यक्ति विशेष के प्रति शुभकामनाओं का प्रतीक है।
सर्व रोगो नाशमनं सर्व शुभ विनाशकम।
सक्रिय क्रिते नान्देकम पाशमनं रक्षा कृता भवेत्।।
भविष्य पुराण में बताया गया है कि रक्षा कवच बांधने की प्रथा की शुरूवात महाराज इंद्र की पत्नी शचि ने किया था। जब देव और दानवों के बीच युद्ध चल रहा था तब इंद्राणी ने अपने पति की विजय कामना के लिए उसके दाहिने हाथ में रक्षा सूत्र और चांवल-सरसों को बांधकर उनकी सुरक्षा और विजय की कामना की थी जिससे वे असुरों पर विजय प्राप्त कर सके थे।
एक दूसरी किंवदंती के अनुसार कण्व ऋषि के आश्रम में जब शकुंतला को राजा दुष्यंत श्रापवश पहचानने से इंकार करने के बाद रहने लगी। वहां उसके गर्भ से ‘भरत‘ पैदा हुआ। ऋषि उनके हाथ में रक्षा सूत्र बांधकर उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा कि -‘मां-बाप और गुरू के अलावा इस रक्षा सूत्र को जो कोई स्पर्श करेगा उसे वह सर्प बनकर डस लेगा‘, इससे बालक की सुरक्षा होगी। तब तक रक्षा सूत्र कितने लोगों को सर्प बनकर डस चुका था।
बालक भरत शेर, चीता और अन्य जानवरों के साथ खेला करता था। श्राप से मुक्ति पाकर राजा दुष्यंत शकुंतला को खोजते कण्व ऋषि के आश्रम में पहुंचे। वहां इस अद्भूत बालक को देखकर आश्चर्य चकित हो उठे। उन्होंने देखा कि उसके हाथ से रक्षा कवच गिर गया है। राजा उसे उठाकर उसके हाथ में पुनः बांध दिया। ऋषि कन्याओं ने इस दृश्य को देखकर यह जान लिया कि यही भरत के पिता राजा दुष्यंत हैं। इस रक्षा सूत्र ने बिछड़े पति पत्नी और बच्चे को मिला दिया।
रक्षा सूत्र को सामान्य बोलचाल की भाषा में राखी कहा जाता है जो वेद के संस्कृत शब्द ‘रक्षिका‘ का अपभ्रंश हैं। इसका अर्थ है- रक्षा करना, रक्षा करने को तत्पर रहना या रक्षा करने का वचन देना।
श्रावण मास की पूर्णिमा का महत्व इस बात से और बढ़ जाता है कि इस दिन पाप पर पुण्य, कुकर्म पर सत्कर्म और कष्टों के उपर सज्जनों का विजय हासिल करने के प्रयासों का आरंभ हो जाता है। ऐसा भी माना जाता है कि लंका पर चढ़ाई करने के लिए श्रीरामचंद्र जी ने इसी दिन को चुना था जिससे उन्हें लंका पर विजय मिली।
यही कारण है कि लोग इस दिन वरूण देव की पूजा करते हैं और शुभ कार्य की शुरूवात करते हैं। दक्षिण भारत में इस दिन न केवल हिंदू वरन मुसलमान, सिक्ख और ईसाई सभी समुद्र तट पर नारियल और पुष्प चढ़ाते हैं। इसके पीछे मान्यता है कि नारियल में तीन आंखें होती हैं जो भगवान शिव के प्रतीक हैं।
सांस्कृतिक परंपरा
राखी की भी एक संस्कृति होती है। राखी का वर्तमान स्वरूप इस सांस्कृतिक यात्रा का ही परिणाम है। नारी देवी हुआ करती थी, सती होती थी। उन्हें अपने सत् पर अटूट विश्वास था। उन्हें उनका सत् ही शक्ति प्रदान करता था। जब राजे-रजवाड़े हुआ करते थे तब लड़ाई में जाने के पूर्व रानियां राजा की आरती उतारकर उन्हें ढाल और तलवार सौंपकर उनके मस्तक में दही और चावल का तिलक लगाकर उनके दाहिने हाथ में रक्षा सूत्र बांधकर उनकी विजय की कामना करती थी। रणक्षेत्र में जाने के पहले वह अपने पति से कहती थी-‘मेरे सतीत्व का प्रतीक यह रक्षा सूत्र आपकी रक्षा ही नहीं करेगी वरन आपको शक्ति भी प्रदान करेगी और आपकी विजय होगी।‘
यह सही है कि पहले नारियां सती हुआ करती थीं, सत् ही उनका धर्म था, पति उनके लिए देवतुल्य था। यही उनका संबल था इसलिए वह सबला थी। उन्हें किसी के संरक्षण की आवश्यकता नहीं थी। अपने धर्म और सतीत्व से शक्तिमय सबला अपने देवतुल्य पति की रक्षा भी करती थी। भारतीय संस्कृति में ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे जहां पति की रक्षा प्रतिव्रता नारी के सतीत्व से हुई है।
तब नारियां पूजनीय हुआ करती थीं। सुलोचना, अनसुईया और सुलक्षणा का सतीत्व और सात्विक ओज समाज के लिए रक्षा कवच का काम करता था। तब नारी प्रबला थी। विद्या, बुद्धि, ज्ञान, तप और पवित्रता आदि हर दृष्टि से उनका व्यक्तित्व सबल था। वह रक्षा के लिए किसी से याचना नहीं करती थी अपितु रक्षा का वरदान देती थी।
राखी की संस्कृति का इतना उदात्त आरंभ निश्चय ही भारतीय संस्कृति का गौरवशाली पक्ष रहा है। समय परिवर्तन के साथ ही परिस्थितियां बदल गईं, मनोभावों में बदलाव आया। विदेशी आक्रमण, सत्ता परिवर्तन और दमन चक्र में नारी पिसती चली गई और वह पूजनीय से भोग्या हो गई। नारियों का सात्विक ओज समाप्त होता गया।
सबला नारी आज अबला हो गई और प्रतिकूल परिस्थितियां आखिर उन्हें कमजोर बना दिया। पुरुष प्रधान समाज में नारी एकदम असुरक्षित हो गई और उनकी सुरक्षा का भार पिता, भाई और पति पर आ गया। पति की रक्षा के लिए उनकी कलाई में रक्षा कवच बांधने वाली नारी आज स्वयं की रक्षा के लिए भाइयों की कलाई पर राखी बांधती हैं।
राखी एक पवित्र बंधन
हिंदू धर्मावलंबियों के संस्कारिक कार्यों और विशेष समारोह आदि में धागे को पवित्र स्थान दिया गया है। मनुष्य के साथ धागे का संबंध गर्भ में आने के बाद से लेकर उसके मृत्यु संस्कार (अंत्येष्ठि) तक होता है। उपनयन संस्कार और अंतिम संस्कार ये दोनों धागे के अटूट बंधन पर आधारित होते हैं। धागा केवल अचेतन वस्तु न होकर सिल्क या सूत के कई तारों को पिरोकर तैयार होता है। यह भावनात्मक एकता का प्रतीक है।
इसीलिए इसे पवित्र माना जाता है। धागे से संपादित होने वाले संस्कारों में उपनयन संस्कार, विवाह और रक्षा बंधन प्रमुख हैं। पुरातन काल से वृक्षों को रक्षा सूत्र बांधने की परंपरा है। बरगद के वृक्ष को स्त्रियां धागा लपेटकर रोली, अक्षत, चंदन, धूप और दीप दिखाकर पूजा कर अपने पति के दीर्घायु होने की कामना करती हैं। आंवले के पेड़ पर धागा लपेटने के पीछे मान्यता है कि इससे उनका परिवार धन धान्य से परिपूर्ण होगा।
इस तरह हम देखते हैं कि धागे का उपयोग प्राचीन काल से होता आया है। यह धागा मात्र नहीं है जिसे भाई की कलाई में बांधकर पैसे की कामना करें बल्कि यह तो शक्ति का प्रतीक है। वह भाइयों को इतनी शक्ति देता है कि वह अपनी बहन की रक्षा करने में समर्थ हो सके।
राघव, डागा कालोनी,
चांपा-495671 (छ.ग.)