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प्राचीन छत्तीसगढ़ के रचयिता प्यारेलाल गुप्त की साहित्य साधना

प्रो अश्विनी केशरवानी

प्यारेलाल गुप्त जी का जन्म 17 अगस्त 1891 में कबीरधाम जिलान्तर्गत कवर्धा से 15 कि.मी. पर स्थित ग्राम पिपरिया में हुआ। उनके पिता श्री कुशलप्रसाद गुप्त एक शिक्षक थे। नौकरी की तलाश में उनका परिवार पिपरिया से रतनपुर आ गया था। उनकी प्राथमिक शिक्षा रतनपुर में हुई। आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें बिलासपुर आना पड़ा। यहां उन्होंने मेट्रिक पास की लेकिन पारिवारिक समस्या के कारण वे आगे की पढ़ाई जारी नहीं रख सके।

परिस्थितियां उन्हें पढ़ाई को अधूरा छोड़कर जीविका के साधन तलाशने पर मजबूर कर दिया। वे 20 वर्ष की अल्पायु में ही सरकारी नौकरी में आ गये थे। उन्होंने अपने पिता के सादगीपूर्ण जीवन को अपनाया। उनमें लेखन का संस्कार पिता से विरासत में मिला। उल्लेखनीय है कि उनके पिता ने ‘राधाकृष्ण विहार‘ नामक काव्य की रचना ब्रजभाषा में की थी, जो प्रकाशित नहीं हो सकी थी।

बाल्यावस्था से ही प्यारेलाल जी लिखने लगे थे। उनकी पहली कहानी ‘लाल बैरागिन‘ काशी से निकलने वाली मासिक पत्रिका ‘इन्दु‘ में प्रकाशित हुई। इस कहानी से उन्हें लोगों की सराहना मिली और उनकी लेखनी चलने लगी। गुप्त जी ने साहित्य की प्रायः सभी विधाओं पर अपनी लेखनी चलायी है। उनकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुस्तक ‘प्राचीन छत्तीसगढ़‘ है।

रविशकर वि”वविद्यालय रायपुर से सन् 1973 में प्रकाशित इस ग्रंथ में प्रागैतिहासिक काल से लेकर आधुनिक युग के पूर्व तक का श्रृंखलाबद्ध इतिहास है। इस ग्रंथ में न केवल प्राचीन छत्तीसगढ़ का इतिहास बल्कि सांस्कृतिक परम्पराओं, लोक कथाओं, पुरातत्व और साहित्य का उल्लेख है। इस ग्रंथ को ‘छत्तीसगढ़ का इनसाइक्लोपीडिया‘ माना जा सकता है। उन्होंने छत्तीसगढ़ की पदयात्रा करके इस ग्रंथ के लिए सामग्री जुटायी थी।

इसके अलावा फ्रांस की राज्यक्रांति का इतिहास, ग्रीस का इतिहास, बिलासपुर वैभव, श्रीविष्णुस्मारकयज्ञ, सुखी कुटुम्ब (उपन्यास), सरस्वती (मराठी से अनुदित उपन्यास), लवंगलता (सामाजिक उपन्यास), पुष्पहार (कहानी संग्रह), एक दिन (नाटक), सहकारी सभा हिसाब किताब दर्पण, स्व. लोचनप्रसाद पांडेय की जीवनी प्रकाशित कृतियां हैं।

फ्रांस की राजक्रांति का इतिहास और ग्रीस का इतिहास हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग की परीक्षाओं में लगभग 25 वर्षो तक पाठ्य पुस्तक के रूप में अनुशासित थी। समाचार पत्र-पत्रिकाओं और आकाशवाणी से उनकी रचनाओं का प्रकाशन एवं प्रसारण होता था। पंडित शुकलाल पांडेय ‘छत्तीसगढ़ गौरव‘ में श्री प्यारेलाल गुप्त के बारे में लिखते हैं-

बुधवर रामदयालु, स्वभाषा गौरव केतन।
ठाकुर छेदीलाल विपुल विद्यादि निकेतन।
द्विजवर सुन्दरलाल मातृभाषा तम भूषण।
बाबू प्यारेलाल देश छत्तीसगढ़ भूषण।
लक्ष्मण गोविन्द रघुनाथ युग महाराष्ट्र नर-कुल-तिलक।
नृप चतुर चक्रधर लख जिन्हें हिन्दी उठती है किलक।।163।।

उल्लेखनीय है कि प्यारेलाल गुप्त को ‘छत्तीसगढ़ भूषण‘ कहा जाता है। कदाचित् किसी साहित्यिक संस्था के द्वारा उन्हें यह सम्मान प्रदान किया गया था। इसके अलावा उन्हें हिन्दी ग्रंथमाला कार्यालय वाराणसी से सर्वश्रेष्ठ कहानी लिखने का रजत पदक मिला। सन् 1966 में भारतेन्दु साहित्य समिति बिलासपुर द्वारा अभिनन्दन पत्र प्रदानकर अभिनन्दन ग्रंथ लोकार्पित किया गया।

14 सितंबर 1971 को हिन्दी दिवस के अवसर पर उन्हें हिन्दी साहित्य मंडल देशबंधु संघ रायपुर द्वारा सम्मान पत्र प्रदान किया गया। बेमेतरा के महाविद्यालयीन हिन्दी साहित्य परिषद द्वारा अभिनन्दन पत्र प्रदान किया गया। मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के राजनांदगांव सम्मेलन में उन्हें अभिनन्दन पत्र प्रदान किया गया। इसके अलावा वे कई साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित हुए। “धरती के सिंगार” की एक बानगी पेश है :-

सावन भादों निखर रहे हैं, धरती के सिंगार में
नूतन पी के पनप रहे हैं, हर पौधे के प्यार में।

‘रत्नपुर महिमा‘ लिखकर वहां की महत्ता को रेखांकित करने का सद्प्रयास किया है-
मुकुट है जिसका राम पहाड़ी
विक्रम (भिखमा) दुलहरा जिसके कुंडल
गले में बसते श्री वृद्ध शंभू
पश्चिम दिशा में है श्री भवानी
श्री भैरव जिसके द्वार हैं रक्षक
हृदय पर बसते बिट्ठल प्रभू हैं
जो था कहाता लहुरी काशी
विद्वज्जनों की शुभ राजधानी।

श्री प्यारेलाल गुप्त ने रतनपुर, बिलासपुर, कोरबा और रायपुर में रहकर साहित्यिक साधना किया। डा. रामकुमार बेहार कहते हैं कि ‘बाबु प्यारेलाल गुप्त रत्नपुर के रत्न, रायपुर के प्यारे और छत्तीसगढ़ के लाल थे। छत्तीसगढ़ को अपने इस लाल पर गर्व है। छत्तीसगढ़ का समाज, धर्म, दर्शन, इतिहास, वन, खनिज सबके बारे में पर्याप्त जानकारी रखने वाले गुप्त जी को सांस्कृतिक चेतना के संवाहकों में गिना जाना ही उनका सही मूल्यांकन होगा।‘ वे पंडित लोचनप्रसाद पांडेय के बहुत अच्छे मित्र थे। श्री जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु‘ के सानिघ्य में भी आये।

बिलासपुर के भारतेन्दु साहित्य समिति के संस्थापकों में से एक हैं और जीवनपर्यन्त प्रधान सचिव रहे। श्री द्वारिकाप्रसाद तिवारी ‘विप्र‘ के निकट सहयोगी थे। विप्र जी उन्हें अपने साहित्यिक सचेतक मानते थे। डा. रमेन्द्रनाथ मिश्र इतिहास के विद्यार्थी होने के नाते गुप्त जी के बहुत निकट रहे। वे छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य सम्मेलन बिलासपुर और संभागीय सम्मेलन के अध्यक्ष रहे। वे महाकोसल इतिहास परिषद के सहायक सचिव और बाद में अध्यक्ष थे। वे 22 वर्षो तक बिलासपुर सहकारी बैंक के व्यवस्थापक रहे।

‘प्राचीन छत्तीसगढ़‘ के प्राक्कथन में रविशंकर विशवविद्यालय रायपुर के तत्कालीन कुलपति श्री जगदीशचन्द्र दीक्षित ने लिखा है :-‘प्राचीन काल से लेकर मराठा युग एवं ब्रिटिश काल के आरंभ युग तक के इतिहास को संकलित करके एक कृति में प्रस्तुत करने का प्रथम प्रयास श्री प्यारेलाल गुप्त ने अपने ग्रंथ ‘प्राचीन छत्तीसगढ़‘ में किया है। इस ग्रंथ के प्रणयन में लेखक को निरंतर सात वर्ष तक परिश्रम करना पड़ा, गुप्त जी का यह प्रयास निःसंदेह शलाघनीय है।‘
सुप्रसिद्ध इतिहासकार श्री ओ. पी. भटनागर ने श्री प्यारेलाल गुप्त की प्रशंसा में लिख है-‘ गुप्त जी का प्राचीन छत्तीसगढ़ अपने ढंग का अनूठा ग्रंथ है। छत्तीसगढ़ पर अनेक ग्रंथ और लेख लिखे गये हैं मगर गुप्त जी जैसा मेहनत किसी ने नहीं किया है।

सुप्रसिद्ध साहित्यकार पद्मश्री मुकुटधर पांडेय जी गुप्त जी के बारे में लिखते हैं -‘स्व. प्यारेलाल गुप्त जी उन बहुत थोड़े लोगों में से थे जिन्होंने यश या धन के लोभ से नहीं, केवल कर्तव्य बुद्धि से हिन्दी की सेवा की थी। जीविका का साधन मानकर हिन्दी की सेवा करने वालों की संख्या आज कम नहीं है, पर गुप्त जी ने जिस समय हिन्दी की सेवा आरंभ की उस समय समाज की कुछ और ही स्थिति थी। उस समय त्याग और सेवा की भावना को लेकर ही लोग साहित्य के क्षेत्र में कार्य करते थे, आर्थिक लाभ का कोई प्र”न ही नहीं था।‘

वे आगे लिखते हैं -‘वे मेरे स्व. पूज्याग्रज पंडित लोचनप्रसाद पांडेय के मित्रों में से थे। मैं उनसे सन् 1915 में परिचित हुआ। सन् 1917-18 के लगभग वे श्री दीनानाथ दाऊ के साथ प्रथम बार हमारे गांव बालपुर पधारे थे। 6-7 घंटे लगातार बैलगाड़ी में बैठकर रायगढ़ से लगभग 20 मील दूर बालपुर पहुंचे थे, तब कोई बस सर्विस नहीं थी। आजकल तो लोग इतने आत्म केंद्रित हो रहे हैं कि सबसे पहिले अपना आराम देखते हैं। इतना कष्ट उठाकर गांव पहुंचना उनके विशुद्ध साहित्य प्रेम का परिचायक था।

दूसरी बार वे सन् 1929 में हमारे पूज्य पितृदेव द्वारा स्थापित ग्राम पाठशाला की स्वर्ण जयंती उत्सव पर बालपुर आये थे। उन्होंने आत्मप्रचार व स्वविज्ञापन से दूर अंतिम समय तक हिन्दी की सेवा की और 14 मार्च 1976 को कभी न भरने वाली रिक्तता बनाकर स्वार्गारोहण किये। स्व. गुप्ता जी का आज तक सही मूल्यांकन नहीं हो सका है।

आज जब छत्तीसगढ़ पृथक अस्तित्व के साथ एक पूर्ण प्रदेश है तब उनकी दुर्लभ और अप्राप्य ‘प्राचीन छत्तीसगढ़‘ का पुर्नप्रकाशन किया जाना समीचीन ही नहीं बल्कि अपरिहार्य है। उनके हिन्दी और छत्तीसगढ़ी काव्य और अन्य कृतियों को संग्रहीत कर ‘प्यारेलाल गुप्त ग्रंथावली‘ प्रकाशित किया जाना चाहिये। साथ ही उनके नाम पर हर साल शासन द्वारा पुरस्कार दिया जाना चाहिये। यही उनके प्रति सही श्रद्धांजलि होगी और उनका ग्रंथ हर पाठक के हाथ में होगा, तभी उनका सही मूल्यांकन हो सकेगा।

लेखक छत्तीसगढी लोकसंस्कृति के जानकार हैं।

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