बूँद-बूँद सागर : लाला जगदलपुरी की काव्य साधना का प्रतिबिंब

(ब्लॉगर एवं पत्रकार )
जब हृदय के आकाश में भावनाओं के बादल उमड़ते हैं और व्याकुल होकर बरसने लगते हैं, तब उनकी बूंदों से छोटी-छोटी कविताएँ जन्म लेती हैं। ये कविताएँ एकत्र होकर एक ऐसे महासागर का रूप ले लेती हैं, जिसमें संवेदना की लहरें गहराइयों तक उतरती हैं। छत्तीसगढ़ के राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त कवि लाला जगदलपुरी की ऐसी ही सैकड़ों भावबूँदों का संग्रह है – ‘बूँद-बूँद सागर’, जो इस वर्ष प्रकाशित हुआ है।
इस संकलन में 43 लघु कविताएँ, बस्तर अंचल की प्रमुख सम्पर्क बोली हलबी की 9 तथा भतरी बोली की 7 कविताओं के हिंदी रूपांतरण सम्मिलित हैं। इसके साथ ही हिंदी में रचित 23 गीतों एवं ग़ज़लों को भी संग्रह में स्थान दिया गया है। लाला जी की 38 क्षणिकाएँ इस संकलन की विशेष पहचान हैं, जो उनकी बहुआयामी काव्य साधना को प्रमाणित करती हैं। इसके अतिरिक्त, संग्रह में उनके मुक्तक, दोहे, कुंडलियाँ भी सम्मिलित हैं, जो उनके विपुल साहित्यिक कौशल का परिचय देते हैं।
पुस्तक का नाम भले ही ‘बूँद-बूँद सागर’ है, किन्तु इसकी हर कविता में भावनाओं का एक महासागर लहराता प्रतीत होता है। संग्रह का संपादन लाला जी के अनुज स्व. केशव लाल श्रीवास्तव के पुत्र विनय कुमार श्रीवास्तव ने किया है, जो अत्यंत सराहनीय कार्य है। लाला जी के निधन (14 अगस्त 2013) के पश्चात घर में बिखरी उनकी रचनाओं को सहेजकर विनय जी ने चार पुस्तकों का संपादन किया, जिनमें से यह एक है।
‘बूँद-बूँद सागर’ के अतिरिक्त तीन अन्य प्रकाशित पुस्तकें हैं – (1) बिखरे मोती, (2) आंचलिक कविताएँ : समग्र, और (3) बाबा की भेंट (बच्चों की कविताओं का संकलन)। इन संग्रहों में लाला जी की अप्रकाशित रचनाओं के साथ-साथ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाएँ भी शामिल हैं।
यह संकलन कुल 261 पृष्ठों का है, जिसमें पृष्ठ 57 से 261 तक उनकी कविताओं को प्रस्तुत किया गया है। लिटिल बर्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक ₹299 मूल्य की है।
संग्रह की पहली कविता ‘बूँद भर की प्यास’ है, जो 26 अप्रैल 1947 को साप्ताहिक ‘वीर’ तथा मार्च 2001 के ‘संकल्प रथ’ के अंक में प्रकाशित हुई थी। कवि मानता है कि मनुष्य की प्यास तो बूँद भर की होती है, परंतु उसकी अभिलाषा समुद्र को भी सोख लेना चाहती है।
बूँद भर की प्यास!
पर समुंदर सोख लेने की
अमिट अभिलाष।
भ्रांत नौका, श्रांत नाविक,
क्षीण रे पतवार।
पार जाने की बड़ी ज़िद
और जलधि अपार।
एक सुख की चाह में
कितने सुखों का नाश,
बूँद भर की प्यास!
लाला जी आधुनिक सभ्यता में अकेले होते जा रहे इंसानों के प्रति भी गहरी संवेदना रखते हैं। ‘बढ़त’ शीर्षक कविता में वे मानवीय एकाकीपन की पीड़ा को बख़ूबी उकेरते हैं—
भीड़ इतनी बढ़ी, इतनी बढ़ी,
कि सड़कों सब संकुचित हो गईं,
और आदमी अकेला पड़ गया।
कोलाहल इतना बढ़ा,
कि शांति कोलाहल को समर्पित हो गई।
संपर्क इतना बढ़ा कि
अपने आप से भेंटने का
किसी के पास अवसर अब नहीं रहा।
यह कविता साहित्यिक पत्रिका ‘सूत्र’ (दिसंबर 1999–फरवरी 2000) में प्रकाशित हुई थी।
उनकी अतुकांत कविताओं में व्यंग्य भी है। ‘राजनीति’ शीर्षक कविता में वे कहते हैं—
नींद न आई, सपने आए,
प्यार न आया, अपने आए।
पाँच बरस में एक बार वे,
घर-घर माला जपने आए।
‘धत्तेरे की’ कविता में वे समकालीन सामाजिक विडंबनाओं को तीखे व्यंग्य में ढालते हैं—
चोर-चोर मौसेरे भाई,
धत्तेरे की।
बँटवारे में हाथा-पाई,
धत्तेरे की।
साँठ-गाँठों में, लफ़्फ़ाज़ी में
पहला नंबर –
दो नंबर की करें कमाई,
धत्तेरे की।
उनके ‘कुर्सी’ विषयक मुक्तक विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, जो 1962 में ‘नोंक-झोंक’ पत्रिका में प्रकाशित हुए थे—
दिमाग जो उड़ा तो एरोप्लेन हो गया,
दिल जो चला तो चलते-चलते ट्रेन हो गया।
हरगिज़ वो आदमी का कभी हो नहीं सकता,
चेयर का हो गया जो चेयरमेन हो गया।
ग़ज़ल विधा में भी उनका लेखन सशक्त रहा है। उनकी एक छोटी ग़ज़ल देखें—
हर मुश्किल, मुश्किल ही तो है,
कितनी झेलें, दिल ही तो है।
ताड़ पिलाता डट कर ताड़ी,
तिल का क्या है, तिल ही तो है।
जब-जब आयी बाढ़ नदी में,
ले डूबा साहिल ही तो है।
उनकी हलबी कविता का हिंदी अनुवाद—
सूरज रे भाई सूरज,
उसकी क्या शाम,
उसकी क्या सुबह,
दोनों उसके लिए बराबर हैं।
भतरी बोली में रचित ‘कुल्हाड़ी’ शीर्षक कविता भी गहरे सामाजिक व्यंग्य की मिसाल है—
वह लकड़ी फाड़ती है,
*पेट पालती है।
किसी के पेट को नहीं मारती।
किसी जलसे में जाकर
फीता नहीं काटती।
इसीलिए वह कंधे पर
बैठती है।
पुस्तक में आठ पृष्ठों में संपादक विनय श्रीवास्तव ने लाला जी की साहित्यिक यात्रा, उपलब्धियों और प्रकाशित कृतियों का गहन परिचय दिया है। वे केवल कवि नहीं, बल्कि एक सशक्त गद्य-शिल्पी, इतिहासकार और लोकसंस्कृति के सजग अध्येता भी थे।
उनकी अन्य काव्य कृतियों में ‘मिमियाती ज़िन्दगी – दहाड़ते परिवेश’ (1983), ‘ज़िन्दगी के लिए जूझती ग़ज़लें’ (2005), ‘आंचलिक कविताएँ’ (2005), तथा गद्य कृतियों में ‘बस्तर : इतिहास एवं संस्कृति’ (1994), ‘हलबी लोककथा संग्रह’ (1972) उल्लेखनीय हैं।
लाला जगदलपुरी की साहित्यिक चेतना में लोक और समकालीनता का सुंदर समन्वय है। वे भाव और विचार, व्यंग्य और संवेदना के ऐसे सर्जक हैं, जिनकी कविताएँ आज भी मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए संघर्षरत दिखाई देती हैं।
उन्हें शत-शत नमन।