कठपुतली नेपाल मुखौटा, तो आंखें चीन की : शशांक शर्मा

कभी सांस्कृतिक एवं धार्मिक दृष्टि से भारत का सबसे विश्वासपात्र पड़ोसी देश नेपाल अब भारत विरोधी व्यवहार कर रहा है। पड़ोसियों के बीच अनबन होना कोई बड़ी बात भी नहीं है किन्तु जब दुनिया को कोरोना संकट भयभीत किए हुए है और सभी देश अपने नागरिकों को इस महामारी से बचाने का प्रयत्न करने में लगी हैं, ऐसे समय नेपाल संसद विधेयक पारित कर सीमा के क्षेत्रों को अपने नक्शे में मिला लेने की कार्यवाही करे तो थोड़ा आश्चर्य तो होता है। वह भी ठीक उस समय जब चीन की सेना अक्साई चीन के क्षेत्र में अतिक्रमण करने का प्रयास कर रहा हो। जैसे ही यह दोनों घटनाएं मीडिया में प्रसारित होती हैं, वैसे ही देश का एक विशेष समूह जिसमें विरोधी राजनीतिक पार्टियां भी शामिल हैं नरेन्द्र मोदी सरकार पर ग़ैर ज़िम्मेदाराना टिप्पणी करने लगते हैं। क्या इन घटनाओं के पीछे एक सोच काम कर रही है या महज़ नेपाल और चीन का भारत विरोधी व्यवहार एक संयोग ही है?

सबसे पहले देश के उन बौद्धिक टिड्डे दलों की टिप्पणियों की चर्चा करें, जिनके अनुसार मोदी सरकार के पहले नेपाल और भारत के संबंध अति मधुर थे। भारत सरकारों की में विदेश नीतियां कभी आम आदमी की चर्चा का विषय नहीं रहा इसलिए पूर्व काल में सब अच्छा था और मोदी सरकार के समय से ही पड़ोसी देशों से संबंध बिगड़े हैं जैसी चर्चा सोशल मीडिया पर चलाई जा रही हैं। भारत की स्वतंत्रता के पहले ब्रिटिश शासन में वर्ष 1816 में सागौली की संधि हुई थी जिसके जरिए भारत और नेपाल की सीमा रेखा तय की गई थी। स्वतंत्रता के बाद 1950 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पं नेहरू ने नेपाल से शांति व मित्रता समझौता किया था, लेकिन इसके बाद ही नेपाल में भारत का विरोध शुरू हो गया था।

नेपाल में 1950 में राजशाही व्यवस्था थी और राणा वंश का शासन था, तब भारत नेपाल में राजनैतिक सुधार करने और लोकतंत्र स्थापना के लिए दबाव बना रहा था। इसका परिणाम हुआ कि 1950 के अंत में नेपाल में जनविद्रोह हो गया, राणा वंश को खत्म कर त्रिभुवन राजा बने। वहां वंशानुगत प्रधानमंत्री पद को समाप्त कर लोकतांत्रिक प्रणाली लागू की गई। 1951 में जब पं नेहरू नेपाल की यात्रा पर गए थे तभी राजा त्रिभुवन ने नेपाल को भारत में विलय करने का प्रस्ताव रखा था लेकिन नेहरू जी ने इसे अस्वीकार कर दिया। आज अगर वह प्रस्ताव स्वीकार कर ली गई होती तो दक्षिण एशिया का परिदृश्य ही अलग होता। ऐसा भी नहीं हुआ कि पं नेहरू के महान त्याग को नेपाली राजनीति में सम्मान मिला। इसके बाद चीन नेपाल में अपनी राजनीति शुरू कर दी। भारत नेपाल के बीच गंडक परियोजना का जमकर विरोध हुआ, 1959 आते आते जब भारत चीन के संबंध बिगड़ने लगे तो नेपाल कांग्रेस चीन से दोस्ती बढ़ाने का प्रस्ताव करने लगी। सह सही बात भी है, हर देश ताकतवर दोस्त चाहता है। नेपाल में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का प्रभाव बढ़ने लगा। आखिरकार 2007 में माओवादियों की चीन की सत्ता हथिया ली और भारत में मूक शासन करने वाले दर्शक बन कर तमाशा देखते रहे।

नेपाल ने जिन क्षेत्रों को अपने नक़्शे में शामिल करने का विधेयक पारित किया है, वह विवाद तो 1950 में नहीं था। 1998 में आधिकारिक तौर पर नेपाल सरकार ने कालापानी क्षेत्र पर अपना दावा पेश किया। तब से अब तक 22 वर्ष गुजर चुके, अचानक नेपाल इतना बड़ा फैसला एकतरफा कैसे कर रहा है? इसे समझने के लिए आइंस्टाइन बुद्धि की आवश्यकता नहीं है।

स्व.अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार ने वर्ष 2000 में प्रधानमंत्री स्तर पर चर्चा कर सीमा विवाद को 2002 तक सुलझाने का संकल्प लिया। इसके बाद वर्ष 2001 में नेपाल के राजा सहित पूरे परिवार की हत्या हो गई, नेपाल की राजनीति में भूचाल आ गया। नेपाल में राजशाही का अंत कर लोकतंत्र की स्थापना करने की मांग होने लगी। इधर नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी और माओवादियों ने राजनीतिक हत्याएं शुरू कर दी।

इस बीच भारत में डॉ मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए की सरकार बनी, यह बताना जरूरी है कि इस सरकार को भारत के कम्यूनिस्ट पार्टियां अपना समर्थन दे रही थी। स्वतंत्रता के बाद भारत का प्रत्येक प्रधानमंत्री नेपाल की यात्रा कर दोनों देशों के परस्पर संबंध को बेहतर करने की दिशा में अपनी भूमिका निभाई, यहां तक कि अल्प समय के लिए प्रधानमंत्री बने मोरारजी देसाई व चन्द्रशेखर ने भी नेपाल की आधिकारिक यात्रा की। क्या यह आश्चर्य का विषय नहीं है कि 2004 से 2014 तक दस साल प्रधानमंत्री रहे डॉ मनमोहन सिंह ने एक बार भी नेपाल की यात्रा नहीं की! यही वह समय था जब नेपाल की सत्ता पर चीन समर्थित माओवादियों का कब्जा हो गया। वहीं नरेन्द्र मोदी 2004 में प्रधानमंत्री बने तब से पिछले 6 वर्षों में उन्होंने छह बार नेपाल की यात्रा की है, इसका मतलब क्या है? हमने अपनी आंखों के सामने नेपाल जैसे मित्र देश को चीन के चंगुल में फंसने के लिए छोड़ दिया। अब वे लोग जिनकी मंशा नेपाल को चीन का उपनिवेश बनाने की थी नेपाल के वर्तमान निर्णय को लेकर नरेन्द्र मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं।

अब यह समझना आसान है कि नेपाल इस संकट के समय भारत के विरूद्ध कार्यवाही क्यों कर रहा है? नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत एक वैश्विक शक्ति बनने की राह में है, वहीं दूसरी ओर कोरोना फैलाने का आरोप झेल रहा चीन दुनिया की आंख की किरकिरी बना हुआ है। चीन की अर्थव्यवस्था भी डावाँडोल है और चीनी कम्यूनिस्ट पार्टी की राजनीति में भी संकट हैं, उपर से हांगकांग में चीन का विरोध बढ़ता ही जा रहा है। वहीं भारत ने पाकिस्तान पर सैन्य कार्रवाई करने के बाद जम्मू- कश्मीर में लागू धारा 370 को खत्म कर जो राज्य से केन्द्र शासित प्रदेश बनाने की कार्यवाही की है, उससे चीन परेशान है। उसकी परेशानी पाक अधिकृत कश्मीर के कारण है जहां से होकर चीन का निर्माणाधीन मार्ग गुजरता है और ग्वादर बंदरगाह को जोड़ता है। भारत अब पाक अधिकृत कश्मीर को वापस भारत के नक़्शे पर लाने की दिशा में जुटा हुआ है। पिछले दिनों पीओके क्षेत्र के लिए मौसम की जानकारी देना भारत में शुरू हो गया है। इन तमाम कारणों से बौखलाया चीन लद्दाख से लगे अक्सई चीन क्षेत्र पर कब्जा करने की चाल चल रहा है। इसके पीछे चीन की दबाव बनाने की कूटनीति है।

चीन को इस बात से भी परेशानी है कि भारत ने लिपुलेख तक सड़क बना ली है, इससे भारत से मानसरोवर की यात्रा पर जाने वाले भारतीय के लिए न केवल दूरी कम हो गई, बल्कि चीन से होकर जाने की निर्भरता नहीं रहेगी। संभव है चीन के लोगों का रोजगार इस निर्माण से छीन जाय। भारत की सेना जिस तरह से सीमा पर सड़क व अन्य अधोसंरचना को मजबूत कर रही है, उससे भी चीन को चिढ़ होना स्ववभविक है। ऊपर से कोराना संकट के चलते चीनी अर्थव्यवस्था चौपट हो रही है, ऊपर से दुनिया भर की कंपनियां चीन छोड़कर भारत आने पर विचार कर रहीं हैं। तमाम कारणों से चीन का भारत से नाराज़ होना तो बनता ही है।

अब नेपाल भारत से अपने संबंध क्यों खराब कर रहा है, इस सवाल का जवाब भी चीन की साजिश में है। दरअसल पिछले कुछ महिनों से नेपाल में राजनैतिक घमासान चल रहा है। नेपाली कम्यूनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता प्रधानमंत्री के पी शर्मा ‘ ओली’ से इस्तीफ़ा मांग रहे थे, इस पर चीन ने नेपाली कम्यूनिस्ट नेताओं को ओली का विरोध नहीं करने की हिदायत दी। चीन के अतिक्रमण के विरूद्ध भारतीय प्रतिवाद और कोरोना के लिए चीन विरोधी गुट में भारत को शामिल कर लेने और भारत में चीन के आयात को रोकने व आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था की नीति से चीन को होने वाले संभावित नुकसान के विरूद्ध नेपाल का भारत विरोधी रवैया भारत के प्रति चीन का प्रतिकार है।

अभी नेपाल संसद की कार्रवाई हुई उसमें केवल नाम नेपाल का है, उसे मुखौटा समझिए, भारत की ओर जो नेपाल की ओर से आंखें तरेरी जा रही है, वह मुखौचे के पीछे चीन की आंखें हैं। उनके समर्थन में भारत के भी कम्यूनिस्ट अपनी सेवा चीन के षडयंत्र को हमेशा की तरह दे रहे हैं। लेकिन याद रहे आज 1962 वाला भारत नहीं है, वह दुश्मन से डरता नहीं, लड़ता है जरूरत होने पर घर में घुसकर मारता भी है।

शशांक शर्मा, रायपुर राजनैतिक विश्लेषक 9425520531