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सोशल मीडिया बनाम परम्परागत पत्रकारिता: चुनौतियाँ और संभावनाएँ

आचार्य ललित मुनि

सोशल मीडिया का उदय और पत्रकारिता पर इसका प्रभाव

आधुनिक युग में सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के तीव्र विकास ने समाज के हर क्षेत्र को प्रभावित किया है, और पत्रकारिता भी इससे अछूती नहीं रही। परम्परागत पत्रकारिता, जो कभी समाचार पत्रों, रेडियो और टेलीविजन के माध्यम से जनता तक सूचनाएँ पहुँचाने का प्रमुख साधन थी, अब सोशल मीडिया के उदय के साथ नई चुनौतियों का सामना कर रही है। सोशल मीडिया ने जहाँ एक ओर सूचना के प्रसार को लोकतांत्रिक बनाया है, वहीं दूसरी ओर इसने परम्परागत पत्रकारिता की विश्वसनीयता, प्रासंगिकता और आर्थिक स्थिरता पर गंभीर प्रश्नचिह्न लगाए हैं।

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स जैसे फेसबुक, ट्विटर (अब X), इंस्टाग्राम और यूट्यूब ने सूचना के उत्पादन, वितरण और उपभोग के तरीके को पूरी तरह बदल दिया है। पहले जहाँ समाचार संगठनों के पास सूचना के प्रसार का एकाधिकार था, वहीं अब कोई भी व्यक्ति अपने स्मार्टफोन के माध्यम से समाचार बना सकता है और उसे विश्व भर में फैला सकता है। यह लोकतंत्रीकरण जहाँ सकारात्मक है, वहीं इसके कई नकारात्मक प्रभाव भी हैं।

परम्परागत पत्रकारिता में समाचारों की विश्वसनीयता सुनिश्चित करने के लिए सख्त सम्पादकीय प्रक्रियाएँ और तथ्य-जाँच के मानक होते थे। समाचार संगठनों में प्रशिक्षित पत्रकार और सम्पादक यह सुनिश्चित करते थे कि जनता तक केवल सत्यापित और सटीक जानकारी ही पहुँचे। इसके विपरीत, सोशल मीडिया पर सूचनाएँ बिना किसी सम्पादकीय निगरानी के प्रसारित होती हैं। यहाँ झूठी खबरें (फेक न्यूज़), अफवाहें और गलत सूचनाएँ तेजी से फैलती हैं।

उदाहरण के लिए, 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के दौरान सोशल मीडिया पर फर्जी खबरों का व्यापक प्रसार देखा गया, जिसने जनमत को प्रभावित किया। भारत में भी, व्हाट्सएप और फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म्स पर अफवाहों के कारण सामाजिक तनाव और हिंसा की घटनाएँ सामने आई हैं। परम्परागत पत्रकारिता के लिए यह एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि जनता का एक बड़ा वर्ग अब सोशल मीडिया को प्राथमिक समाचार स्रोत के रूप में देखने लगा है, भले ही उसकी विश्वसनीयता संदिग्ध हो।

सोशल मीडिया ने समाचार चक्र को अत्यधिक तीव्र कर दिया है। पहले समाचार पत्र अगले दिन छपते थे, और टेलीविजन समाचार भी कुछ घंटों के अंतराल पर प्रसारित होते थे। लेकिन अब सोशल मीडिया पर समाचार सेकंडों में विश्व भर में फैल जाता है। इस तीव्रता ने परम्परागत पत्रकारिता पर दबाव डाला है कि वे भी तुरंत समाचार प्रदान करें। इस जल्दबाजी में तथ्यों की जाँच और गहन विश्लेषण की प्रक्रिया अक्सर प्रभावित होती है, जिससे पत्रकारिता की गुणवत्ता पर असर पड़ता है।

किसी बड़ी घटना के तुरंत बाद सोशल मीडिया पर उससे संबंधित अपुष्ट जानकारी और वीडियो वायरल हो जाते हैं, जबकि परम्परागत समाचार संगठन उस जानकारी को सत्यापित करने में समय लेते हैं। इस बीच, जनता पहले से ही सोशल मीडिया की जानकारी पर प्रतिक्रिया दे चुकी होती है, जिससे परम्परागत पत्रकारिता की प्रासंगिकता कम होती प्रतीत होती है।

सोशल मीडिया ने परम्परागत पत्रकारिता के आर्थिक मॉडल को भी हिला दिया है। पहले समाचार संगठन विज्ञापनों और ग्राहकों की सदस्यता के माध्यम से अपनी आय अर्जित करते थे। लेकिन अब अधिकांश विज्ञापन राजस्व डिजिटल प्लेटफॉर्म्स जैसे गूगल और फेसबुक की ओर चला गया है। एक अध्ययन के अनुसार, 2020 तक गूगल और फेसबुक ने वैश्विक डिजिटल विज्ञापन बाजार का लगभग 60% हिस्सा हासिल कर लिया था।

इसके परिणामस्वरूप, समाचार संगठनों को अपनी आय में भारी कमी का सामना करना पड़ा है। कई समाचार पत्रों ने अपने कर्मचारियों की संख्या में कटौती की है या पूरी तरह से बंद हो गए हैं। भारत में भी कई क्षेत्रीय समाचार पत्र इस आर्थिक संकट का शिकार हुए हैं। साथ ही, सोशल मीडिया पर मुफ्त सामग्री की उपलब्धता ने पाठकों को समाचार पत्रों की सदस्यता लेने से हतोत्साहित किया है।

सोशल मीडिया ने पाठकों के समाचार उपभोग के तरीके को भी बदला है। आज के पाठक छोटी, आकर्षक और दृश्यात्मक सामग्री को प्राथमिकता देते हैं। लंबे, गहन विश्लेषणात्मक लेखों की माँग कम हो रही है। सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो, मीम्स और संक्षिप्त पोस्ट्स ने पाठकों का ध्यान खींच लिया है।

इसके विपरीत, परम्परागत पत्रकारिता में गहन शोध और विस्तृत लेखन पर जोर दिया जाता है। यह बदलता व्यवहार परम्परागत पत्रकारिता के लिए एक चुनौती है, क्योंकि समाचार संगठनों को अब पाठकों को आकर्षित करने के लिए सोशल मीडिया की शैली को अपनाना पड़ रहा है। इससे पत्रकारिता की गहराई और गुणवत्ता पर असर पड़ सकता है।

सोशल मीडिया के युग में पत्रकारों पर कई तरह के दबाव बढ़े हैं। एक ओर, उन्हें तीव्र गति से समाचार प्रदान करने की अपेक्षा की जाती है, और दूसरी ओर, उनकी सामग्री को सोशल मीडिया पर वायरल होने योग्य बनाना पड़ता है। इसके अलावा, पत्रकारों को अब ऑनलाइन ट्रोलिंग, उत्पीड़न और धमकियों का सामना करना पड़ता है।

भारत में कई पत्रकारों ने सोशल मीडिया पर अपनी रिपोर्टिंग के लिए नफरत भरे संदेश और धमकियाँ प्राप्त की हैं। यह न केवल उनके मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है, बल्कि उनकी निष्पक्षता और स्वतंत्रता पर भी असर डालता है।

इन चुनौतियों के बावजूद, परम्परागत पत्रकारिता के लिए कई रास्ते उपलब्ध हैं, जिनके माध्यम से यह अपनी प्रासंगिकता और प्रभाव को बनाए रख सकती है। अब परम्परागत समाचार संगठनों को डिजिटल युग की वास्तविकताओं को स्वीकार कर रहे हैं। अधिकतर अखबार वेब साइट्स पर आ चुके हैं ताकि वे सोशल मीडिया के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकें। कई समाचार संगठन अब ट्विटर और इंस्टाग्राम पर सक्रिय हैं, जहाँ वे संक्षिप्त समाचार अपडेट्स और वीडियो साझा करते हैं। इसके साथ ही, पॉडकास्ट और वेबिनार जैसे नए प्रारूपों को अपनाकर भी पाठकों का ध्यान आकर्षित किया जा सकता है।

सोशल मीडिया पर गलत सूचनाओं के प्रसार को रोकने के लिए परम्परागत पत्रकारिता को अपनी विश्वसनीयता को और मजबूत करना होगा। तथ्य-जाँच इकाइयों की स्थापना और पारदर्शी सम्पादकीय प्रक्रियाएँ इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम हो सकते हैं।

आर्थिक स्थिरता के लिए समाचार संगठनों को नए राजस्व मॉडल्स तलाशने होंगे। पत्रकारों को सोशल मीडिया के युग में काम करने के लिए नए कौशल, जैसे कि डिजिटल पत्रकारिता, डेटा विश्लेषण और मल्टीमीडिया स्टोरीटेलिंग, सिखाने की आवश्यकता है। साथ ही, उनकी ऑनलाइन सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कानूनी और तकनीकी उपाय किए जाने चाहिए।

सोशल मीडिया की सतही और त्वरित सामग्री के विपरीत, परम्परागत पत्रकारिता को गहन और विश्लेषणात्मक सामग्री पर ध्यान देना चाहिए। लंबे लेख, खोजी पत्रकारिता और डेटा-आधारित कहानियाँ पाठकों को आकर्षित कर सकती हैं, जो सोशल मीडिया पर उपलब्ध नहीं होतीं।

सोशल मीडिया का उदय परम्परागत पत्रकारिता के लिए एक दोधारी तलवार साबित हुआ है। जहाँ इसने सूचना के प्रसार को लोकतांत्रिक बनाया है, वहीं इसने विश्वसनीयता, आर्थिक स्थिरता और पत्रकारों की स्वतंत्रता पर गंभीर चुनौतियाँ खड़ी की हैं। फिर भी, परम्परागत पत्रकारिता के पास अभी भी वह गहराई, विश्वसनीयता और नैतिकता है, जो सोशल मीडिया को चुनौती दे सकती है। डिजिटल परिवर्तन को अपनाकर, तथ्य-जाँच को मजबूत करके और नए राजस्व मॉडल्स की खोज करके परम्परागत पत्रकारिता न केवल इन चुनौतियों का सामना कर सकती है, बल्कि सूचना के इस नए युग में अपनी प्रासंगिकता को और सशक्त बना सकती है।

सोशल मीडिया और परम्परागत पत्रकारिता के बीच एक संतुलित सह-अस्तित्व संभव है, बशर्ते दोनों एक-दूसरे के पूरक बनें और जनता तक सटीक, विश्वसनीय और उपयोगी सूचनाएँ पहुँचाने के साझा लक्ष्य की ओर काम करें।