वैदिक आर्य संस्कृति की स्थापना का आधार भगवान् परशुराम
परशुरामजी का अवतार भगवान नारायण का पहला पूर्ण अवतार है। जो सर्वाधिक व्यापक और प्रचंड है। संसार का ऐसा कोई कोना, कोई क्षेत्र या कोई देश ऐसा नहीं जहाँ भगवान् परशुरामजी की स्मृति या चिन्ह नहीं मिलते हों। उन्होंने शाँति और मानवता की स्थापना के लिये पूरी पृथ्वी की सतत यात्राएँ की। विश्व में वैदिक आर्य संस्कृति की स्थापना का आधार भगवान् परशुरामजी ही हैं।
भगवान् परशुरामजी का चरित्र वैदिक और पौराणिक इतिहास में सबसे व्यापक है। उन्हे नारायण के दशावतार में छठे क्रम पर माना गया। वे पहले पूर्ण अवतार हैं। वे चिरंजीवी हैं। उनकी उपस्थित हरेक युग में मिलती है। उनका अवतार सतयुग के समापन और त्रेता आरंभ के संधि क्षण में हुआ अर्थात सतयुग के समापन और त्रेता आरंभ के निमित्त भगवान परशुराम जी हैं। वह वैशाख शुक्ल पक्ष तृतीया तिथि थी। उनका
अवतार अक्षय है इसलिये उनके अवतार दिवस की यह तिथि “अक्षय तृतीया” कहलाई। इस तिथि का प्रत्येक पल शुभ होता है। इस तिथि पर किसी भी कार्य आरंभ के लिये शुभ मुहुर्त देखने की आवश्यकता नहीं होती। उनका अवतार एक प्रहर रात्रि के शेष रहते हुआ इसलिये यह क्षण ब्रह्म मुहूर्त कहलाया। उनकी उपस्थिति सतयुग के समापन से आरंभ होकर कलियुग के अंत तक रहने वाली है।
इतना व्यापक और कालजयी चरित्र किसी देवता, ऋषि अथवा अवतार का नहीं है। उन्होंने ही वह शिव धनुष राजा जनक को दिया था जिसे भंग करके रामजी ने माता सीता का वरण् किया। परशुराम जी ने ही परीक्षा लेने के बहाने विष्णुधनुष रामजी को दिया था। इसी धनुष से लंकापति रावण का उद्धार हुआ।
संदीपनि आश्रम में भगवान् श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र और गीता का ज्ञान भी देने वाले भी परशुरामजी हैं। यह उल्लेख भी पुराणों में है कि धर्म रक्षा के लिये कलयुग में जब कल्कि नारायण का कल्किअवतार होगा तब उन्हें शस्त्र और शास्त्र का ज्ञान देने के निमित्त भी भगवान परशुराम जी ही होंगे।
भगवान् परशुरामजी का अवतार ऋषिकुल में हुआ हैं। पिता महर्षि जमदग्नि हैं और माता देवी रेणुका हैं। महर्षि जमदग्नि आदिऋषि महर्षि भृगु के वंशज हैं तो देवी रेणुका सूर्यवंशी प्रतापी सम्राट राजा रेणु की पुत्री हैं। भगवान् परशुरामजी पांच भाई और एक बहन हैं।
भगवान् परशुरामजी के सात गुरू हैं। पहली गुरू माता रेणुका हैं, दूसरे गुरु पिता महर्षि जमदग्नि। तीसरे गुरू महर्षि चायमान, चौथे गुरु महर्षि विश्वामित्र, पाँचवे गुरु महर्षि वशिष्ठ, छठें गुरु भगवान् शिव और सातवें गुरु भगवान् दत्तात्रेय हैं। भगवान् शिव की भक्ति तो पूरा संसार करता है पर उनके एकमात्र शिष्य भगवान् परशुरामजी हैं।
उन्हे चिर यौवन अर्थात वे कभी वृद्ध नहीं होंने, मनव्यापक गति से संसार का भ्रमण करने का वरदान और धर्म की स्थापना के लिये दिव्य परशु भगवान शिव ने ही प्रदान किया था। उन्हें “श्रीविद्या” का ज्ञान भगवान दत्तात्रेय से प्राप्त हुआ जो उन्होंने संसार को दिया। शक्ति की उपासना भी भगवान परशुराम जी से आरंभ हुई।
भगवान परशुराम जी ने ही शक्ति आराधना का ज्ञान महर्षि सुमेधा को दिया। आगे चलकर महर्षि सुमेधा ने आगे शक्तिसाधना के ग्रंथ रचे। दुर्गा सप्तशती उसी का अंश है। भगवान परशुराम जी के ज्ञान, साधना, शक्ति, ओजस्विता और तेजस्विता के आगे कोई नहीं ठहर पाया। उनके आगे चारों वेद चलते हैं। पीठ पर अक्षय तीरों से भरा तूणीर है। एक हाथ में शस्त्र हैं तो दूसरे में शास्त्र। वे श्राप देने और दंड देने दोनों में समर्थ हैं।
यह क्षमता किसी अन्य अवतार अथवा या ॠषि में नहीं हैं। उन्होंने प्रत्यक्ष युद्ध करके आतताइयों का हनन् किया है, तप करके शिवजी को प्रसन्न किया है। उन्होंने समाज निर्माण के लिये दो बार विश्व यात्रा की है। ऋषि रूप में वेद ऋचाओं का सृजन भी किया है। ऋग्वेद के दसवें मंडल का एकसौ दसवां सूक्त भगवान् परशुरामजी द्वारा ही सृजित है।
क्रोध या क्षत्रिय हरण का कथन कूटरचित
भारत विश्व में विश्वगुरु और सबसे समृद्ध राष्ट्र रहा है। संसार का ऐसा कोई देश नहीं जहाँ वैदिक आर्यों की उपस्थिति के चिन्ह न मिलते हों। लेकिन भारत को भारत में अशक्त करने केलिये भारतीय आदर्श पात्रों और मानविन्दुओं को कलंकित करने के लिये आदर्श चरित्र गाथा में अनेक कूटरचित कथाएँ जोड़कर विवादास्पद बनाने का कुचक्र चला। आक्रामण कारियों का घोषित नारा था “बाँटो और राज करो” इसके अंतर्गत ही भगवान परशुराम जी की गाथा में कुछ प्रसंग जोड़े। जो पूरी तरह असत्य और भ्रामक हैं।
भगवान् परशुरामजी पर दो आक्षेप लगाये जाते हैं एक यह कि उन्होंने क्षत्रियों का क्षय किया दूसरा यह कि वे बहुत क्रोधी थे। ये दोनों आक्षेप असत्य हैं और समाज में भेद पैदा करने के लिये कुछ विदेशी षडयंत्रकारियों द्वारा रचित हैं ताकि भारतीय समाज को विभाजित कर भारत को दास बना सकें। लेकिन अब दासत्व का अंधकार छट गया है। हम स्वतंत्रता के सूरज तले सत्य खोज सकते हैं। हमें स्वयं अध्ययन करके समस्त भ्रांतियों का निवारण करना चाहिए।
इन दोनों प्रश्नों पर शास्त्रों में पर्याप्त प्रमाण है। श्रीमद्भागवत में दुष्टं क्षत्रम् और दुष्ट क्षत्रपम् शब्द आये है। एक का अर्थ “दुष्ट राज्य” है और दूसरे का अर्थ “दुष्ट राजा” पुराण कथाओं में तीन शब्द आतें हैं क्षत्र, क्षत्रप और क्षत्रिय। इन तीनों शब्दों में अंतर होता है। क्षत्र यनि राज्य, क्षत्रप यनि राजा और क्षत्रिय यनि राज्य के लिये समर्पित। राज्य के समर्पित सेना का आधार जन्म या जाति नहीं होता था।
जो छत्र अर्थात राज्य की सेवा सुरक्षा के लिये समर्पित हो वह क्षत्रिय। यदि शब्द दुष्ट क्षत्रम् आया है तो इसका आशय ऐसे राज्य से है जो दुष्टता करते थे। महाभारत के एक प्रसंग में भगवान् शिव ने आदेश दिया कि “तुम मेरे समस्त शत्रुओं का वध करो”। संस्कृत में शब्द चाहे “क्षत्र” आया हो या “क्षत्रपम्” लेकिन हिन्दी अनुवाद में सीधा क्षत्रिय ही लिखकर भ्रम फैलाया गया।
परशुराम जी के संदर्भ में क्षत्रिय शब्द का पहली बार कालिदास के रघुवंश में हुआ और यहीं से क्षत्रिय विनाश के किस्से चल पड़े। इसके बाद जो साहित्य रचा गया उसमें इस वर्णन का विस्तार होता गया और भारतीय समाज जनों के मस्तिष्क में बिठा दिया गया।
हम इस बात पर विचार ही नहीं करते कि परशुरामजी नारायण के अवतार हैं क्षत्रिय की उत्पत्ति नारायण के बाहुओं से हुई तो क्या नारायण स्वयं अपनी बाहुओं का विनाश करने के लिये अवतार लेंगे? परशुराम अवतार में उनकी माता देवी रेणुका क्षत्रिय राज्यकन्या हैं, उनकी दादी देवी सत्यवती क्षत्रिय हैं, भृगु वंश की अनेक ऋषि कन्याएं क्षत्रियों को ब्याहीं तब भला वे कैसे क्षत्रिय विनाश अभियान छेड़ सकते हैं।
इसके अतिरिक्त एक बात और नारायण जब भी अवतार लेते हैं। उनके अवतार के जीवन की प्रत्येक कार्य का कहीं न कहीं निमित्त होता है। यदि किसी अवतार में पत्नि वियोग होना है, वानरों का साथ लेना है, एक ही विवाह करना या एक से अधिक विवाह करना या रणछोड़ का आक्षेप लगना सब निर्धारित होता है। इसीलिए नारायण के अवतार के कार्यों को “कर्म” नहीं “लीला” कहा जाता है।
नारायण के किसी प्रसंग में, किसी शास्र में यह उल्लेख नहीं आया कि कभी वे क्षत्रिय हंता बनेंगे। अतएव यह भ्रामक बात समाज को मन से निकालनी होगी। समाज को बाँटने के यूँ भी कम षडयंत्र नहीं हो रहे। अतएव हमें जाग्रति के साथ सत्य को समझाना चाहिए।
उन पर दूसरा आक्षेप लगता है क्रोधी होने का। लोग कहते हैं कि भगवान परशुरामजी बहुत क्रोधी हैं। यह आक्षेप भी तथ्य हीन है। क्रोध राक्षसों को आता है दैत्यों को आता है। क्रोध तमोगुण है। हमारे प्रत्येक शास्त्र में क्रोध से दूर रहने को कहा गया है। क्रोध को अग्नि कहा गया है। जिस प्रकार अग्नि सबसे पहले अपने ही केन्द्र को जलाती है ठीक उसी प्रकार क्रोध भी उसी व्यक्ति को पहले नष्ट करता है जो क्रोध करता है।
परशुरामजी नारायण का अवतार हैं। नारायण तो सदैव मुस्कुराते हैं, क्रोध कभी नहीं करते। तब उनका कोई अवतार क्रोध करेगा ? पुराणों परशुराम जी लिये रोष शब्द आया है। उन्होंने “रोष में भरकर उन्होंने दुष्टों का नाश किया”। “रोष” क्रोध नहीं होता रोष सतोगुणी है जबकि क्रोध तमोगुणी।
गुस्सा तीन प्रकार का। माता का और गूरू का गुस्सा सतोगुणी होता है जिसे रोष कहते हैं। पिता और राजा का गुस्सा रजोगुणी होता है जिसे कोप कहते हैं। जबकि दुष्टों और दानवों का गुस्सा अहंकार से उत्पन्न होता है यह तमोगुणी होता है इसे क्रोध कहते है।
भगवान् परशुरामजी नारायण का अवतार हैं, ऋषि हैं गुरू हैं उनका गुस्सा रोष है। संस्कृत में रोष शब्द ही आया है जिसका हिन्दी अनुवाद क्रोध के रूप में कर दिया। इसी से भ्रान्तियाँ फैली। जिन्हे समाज को बाँटने के लिये योजनापूर्वक प्रचारित किया गया। अतएव हमें हमारे आराध्य, परंपरा और मानविन्दुओं के बारे में फैलाई गई भ्रांतियों को समझना होगा।
सबसे व्यापक अवतार : पूरे विश्व में चिन्ह
भगवान परशुराम जी से संबंधित प्रसंग और चिन्ह पूरे संसार में मिलते हैं। उनके विभिन्न नामों में एक नाम भृगुराम भी है। यह शब्द अपभ्रंश होगा बगराम बना। अफगानिस्तान में भी बगराम नामक स्थान है यहां विमानतल भी बना है। एक बगराम नगर ईराक में भी है। लैटिन अमेरिका की खुदाई में श्रीयंत्र जैसी आकृति निकली है। इसे “मायन” सभ्यता का अंश माना गया है।
भगवान परशुराम जी के कहने पर मय दानव पाताल गया था। संभवतः मय दानव के नाम से ही लैटिन अमेरिका की “मायन सभ्यता” विकसित हुई होगी। रोम की खुदाई में पत्थर पर उकेरी गई एक ऐसी आकृति निकली जिसके कंधे पर धनुष बाण है और परशु जैसा शस्त्र भी। यद्यपि इस आकृति के सिर पर टोप तो रोमन परंपरा कि ही पर परशु और धनुष बाण धारण करने वाले एक मात्र परशुराम जी हैं। ( इसका विवरण श्री पीएन ओक की पुस्तक वैदिक विश्व का इतिहास में है)।
रूस या रशिया नाम “ऋषिका” शब्द का अपभ्रंश हो सकता है। पर इस पर व्यापक शोध की आवश्यकता है। आयरलैंड की खुदाई में शिवलिंग की आकृति से मिलती जुलती एक पाषाण आकृति मिली है। यह संभावना प्रबल होती है कि “आयर” शब्द “आर्य” से बना और भगवान परशुराम जी ने पूरे विश्व में शिवलिंग स्थापना की यह उसकी का अंश होगा। चूँकि अंग्रेजी भाषा के वर्णाक्षर को आकृति भले कुछ हो पर उनके उच्चारण और उपयोग की ध्वनि तो संस्कृत के वर्णाक्षर की ही है।
मैक्समूलर की एक पुस्तक है “हम भारत से क्या सीखें”। इस पुस्तक के अनुसार संसार का ज्ञान भारत से ईरान पहुँचा और ईरान से पूरे विश्व में। इस कथन से भी यह धारणा प्रबल होती है कि विश्व में जो “ऋषि” “परशु” से मिलते जुलते शब्द या चिन्ह मिलते हैं वे सब परशुराम जी से ही संबंधित हो सकते हैं। इस प्रकार भगवान परशुराम जी अवतार विश्व व्यापक है, सबसे प्रचण्ड है और संसार में अधर्म का नाश करके सत्य की स्थापना करने वाला है।
लेखक टिप्पणीकार एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं।