हंसा चल रे अपने देश : मनकही

समय चक्र की बीसवीं शताब्दी नेअपने इक्कीसवें साल में प्रवेश कर लिया। पिछला वर्ष थोड़ा अच्छा और बहुत कष्टदायक, भयावह रहा और निराशाजन्य वातावरण में मानो सारा संसार जीवन का रस लेना ही भूल गया। जैसे रात-दिन,  सुख-दुःख का क्रम चलता रहता है, सूर्य प्रतिदिन प्रकाश बिखेर कर समस्त जीवों को जीवन संवारने का  एक अवसर पुनः प्रदान करता है ठीक इसी तरह जीवन में संकट से समाधान और समाधान से कर्मठता आती है। किसी भी उपलब्धि को प्राप्त करने के लिए संघर्ष अपेक्षित है तभी सफलता प्राप्त होती है। मनुष्य के धैर्य, बुद्धि एवं विवेक की परीक्षा प्रतिकूल समय में ही होती है। प्रारम्भ में वह पलायन करना चाहता है लेकिन  जीवन तो संघर्ष से चलायमान है।

 

वर्तमान की इन विषम परिस्थितियों ने मनुष्य के जीवन की सच्चाई उजागर कर गंभीरता से सोचने के लिये मजबूर कर दिया कि जीवन का खेल कहाँ समाप्त हो जाये पता नहीं।

 

पानी केरा बुलबुला, अस मानुस की जात ।

देखत ही छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात ।।

 

जीवन क्या है? जन्म से मरण तक कि यात्रा ही तो है। मनुष्य अपने जीवनकाल में अनेक बार यात्रा करता है एवं यात्रा में जाने से पूर्व सभी आवश्यक सामग्री को समेटता और सहेजता है ताकि उसकी यात्रा सुखद हो। जीवनयात्रा भी ऐसी ही होती है। जीव जन्म लेता है, चिंतारहित बचपन फिर इठलाता यौवन, बस यही समय उन्मुक्त हंसता और खिलखिलाता  होता है।फिर कहानी शुरू होती है नून, तेल, लकड़ी और ढेरों जिम्मेदारियों की, जिसे पूरी करना अति आवश्यक होता है।

 

कर्त्तव्य निर्वहन करते कब प्रौढ़ावस्था की दहलीज पर पहुंच जाता है और जीवन का सही अर्थ अनुभवों से ज्ञात होता है। मनुष्य को जब चीजे समझ आती हैं तब तक जीवन का पूर्वार्ध बीत चुका होता है। तब उसे महसूस होता है कि उसने अपनी जिम्मेदारियां तो पूरी ही नहीं की। समय कम, काम अधिक है। जीवन की शाम न जाने कब ढल जाए और उसके कार्य अधूरे ही रह जाएंगे। तब मनुष्य पुनः स्वयं को शारिरिक एवं मानसिक रूप से तैयार कर उत्तरदायित्वों के निर्वहन हेतु  तत्पर होता है।

 

मनुष्य जैसे यात्रा से पूर्व सारी चीजों को समेटना प्रारंभ कर देता है। वैसे ही जीवन यात्रा समाप्त होने से पूर्व जीवन मे जो मान-सम्मान, पद, प्रतिष्ठा, ईमानदारी, सभी कुछ सहेजने का  समय आ जाता है। मन में एक साध रहती है  किसी के साथ अन्याय न हो। ईमानदारी से जितना बन पड़े उतना काम तो कर लें क्योंकि दो दिन का जग मेला, अब चला चली का बेरा। मनुष्य अच्छे कर्म के द्वारा ही आने वाली पीढ़ियों के समक्ष अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत कर सदैव याद किया जाता है।

 

मनुष्य अपनी पारिवारिक, सामाजिक सभी प्रकार के उत्तरदायित्व को पूरा करने में स्वयं की अभिलाषाओं का दमन करता चला जाता है। प्रत्येक मनुष्य जीवन के झंझावातों को झेलेते जिम्मेदारियों को पूरी करते हुए, एक ऐसी मानसिक स्थिति में पहुंच जाता है, जहां वह कुछ समय सिर्फ और सिर्फ अपने साथ ही शांतिपूर्ण बिताना चाहता है। जो अकेलापन कभी दुःख का कारण हुआ करता था वही अच्छा लगने लगता है। जीवनयात्रा के खट्टे-मीठे अनुभवों के साथ कर्त्तव्य निर्वहन पश्चात जीवन के उत्तरार्ध का शेष समय स्वयं को देते हुए मन की उन इच्छाओं को पूरी करना चाहता है जो परिस्थितिवश मन में ही दब कर रह गई थीं  किंतु थोड़ी ही सही पर खुशी तो मिलेगी।

 

मेरा मानना है कि जीवन का पूर्वार्ध जैसा भी रहा हो परंतु उत्तरार्ध बहुत अच्छा रहना चाहिए ताकि कोई पछतावा न रहे क्योंकि ‘जिंदगी मिलेगी न दुबारा’ और जो पल हम जीते हैं वही वर्तमान है, वही अपना होता है इसलिए वर्तमान के एक-एक पल की मौज लें, खुलकर जियें, क्योंकि अतीत लौटता नहीं और भविष्य किसी ने देखा नहीं, जो है बस यही एक पल है। इन्ही पलों का आनंद लेते हुए जीवन की यात्रा को  सार्थकता के साथ पूर्णता प्रदान करें।

आलेख

श्रीमती रेखा पाण्डेय (लिपि)
व्याख्याता हिन्दी
अम्बिकापुर, छत्तीसगढ़

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *