बिठूर की तेरह वर्षीय बलिदानी नायिका मैनादेवी : स्वातंत्र्य समर
1857 का स्वाधीनता संग्राम भारत के इतिहास का ऐसा अध्याय है, जिसमें जन-जन की पीड़ा, बलिदान और पराक्रम की गाथाएँ दर्ज हैं। इस महायुद्ध में जहाँ वीर योद्धाओं ने अंग्रेज साम्राज्य की नींव हिला दी, वहीं अनेक निर्दोष स्त्रियों, बच्चों और ग्रामीणों को अंग्रेजों की क्रूरता का शिकार होना पड़ा। पराधीनता काल केवल सल्तनत के रक्तरंजित अत्याचारों से ही नहीं, बल्कि अंग्रेजी शासन की निर्ममता और अमानवीयता से भी भरा पड़ा है। उन्हीं भयावह घटनाओं में से एक हृदयविदारक प्रसंग है—बिठूर की तेरह वर्षीय बालिका मैनादेवी का बलिदान।
नाना साहब और कानपुर का विद्रोह
1857 की क्रांति में कानपुर एक प्रमुख केंद्र था। यहाँ से ही विद्रोह की लहरें देशभर में फैलने लगीं। इस संग्राम की बागडोर नाना साहब पेशवा के हाथों में थी। उनके साथी तात्या टोपे ने संन्यासियों और ग्राम पुरोहितों के माध्यम से पूरे भारत में क्रांति के संदेश फैलाए। परिणामस्वरूप कानपुर में वातावरण तैयार हुआ और नाना साहब ने सत्ता अपने हाथों में ले ली।
नाना साहब स्वभावतः उदार थे। उन्होंने सभी अंग्रेज परिवारों को सुरक्षित आगरा भेजने की योजना बनाई थी। इसके लिए लगभग दो सौ नावों की व्यवस्था की गई थी। किंतु सत्तीचौरा घाट पर अचानक कुछ सैनिकों के विद्रोह से अनेक अंग्रेज परिवार मारे गए। इस घटना ने अंग्रेज शासन को उग्र प्रतिशोध के लिए उकसा दिया।
अंग्रेजी दमन और बिठूर की घेराबंदी
लंदन तक जब यह समाचार पहुँचा, तो अंग्रेज शासन ने जनरल नील और जनरल हैवलॉक को कानपुर भेजा। ये दोनों सेनाएँ क्रूरता के लिए कुख्यात थीं। अंग्रेजों ने कानपुर और आसपास के गाँवों में नरसंहार शुरू कर दिया। शहर को पूरी तरह घेर लिया गया, संपर्क मार्ग बंद कर दिए गए, और खाद्य सामग्री तक रोक दी गई।
अंग्रेजों का लक्ष्य केवल विद्रोह दबाना नहीं था, बल्कि उस “सत्तीचौरा कांड” का प्रतिशोध भी लेना था। इस प्रतिशोध की आग जल्द ही बिठूर तक पहुँची, जहाँ नाना साहब का किला था। यद्यपि नाना साहब पहले ही वेश बदलकर अज्ञातवास को चले गए थे, परंतु उनकी दत्तक पुत्री मैनादेवी किले में रह गई।
13 वर्षीय बालिका की वीरता
इतिहासकारों के मत भिन्न हैं—कुछ का कहना है कि नाना साहब अपनी पुत्री को साथ ले जाना चाहते थे, पर वह जिद करके रुक गई। अन्य मानते हैं कि नाना साहब जब कानपुर से निकले, तब बिठूर पहुँचे ही नहीं थे और बाद में अपने सैनिकों को मैनादेवी को लेने भेजा, किंतु तब तक अंग्रेजी सेना ने किला घेर लिया था।
अंग्रेज सैनिकों ने किले पर तोपों की वर्षा की, महल ध्वस्त कर दिया और भीतर प्रवेश कर लूटपाट व हत्याएँ शुरू कर दीं। इस विनाशलीला के बीच मैनादेवी को पकड़कर पहले आउटरम और फिर जनरल हैवलॉक के सामने लाया गया।
यातनाएँ और अमर बलिदान
हैवलॉक ने बालिका से नाना साहब का पता पूछना शुरू किया। किंतु मैनादेवी को नाना साहब के ठिकाने की कोई जानकारी नहीं थी। अंग्रेजों ने अपनी क्रूरता की सारी हदें पार कर दीं—
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बालिका को खंभे से बाँधकर गर्म सलाखों से दागा गया।
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जलती हुई त्वचा पर नमक और मिर्च छिड़की गई।
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दो दिनों तक उसे पेड़ से बाँधकर बिना जल तक दिए यातनाएँ दी गईं।
फिर भी इस तेरह वर्षीय बालिका ने अपने स्वाभिमान और साहस को नहीं खोया। अंततः 3 सितंबर 1857 को अंग्रेजों ने उस पर घासलेट डालकर जीवित जला दिया।
बलिदान की गूँज
मैनादेवी का यह बलिदान अंग्रेजों की निर्ममता का सबसे भयावह उदाहरण है। उनके बलिदान के बाद बिठूर किले को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया गया और जो भी जीवित मिला, उसे मार डाला गया। नाना साहब को पकड़ने के लिए एक लाख रुपए का इनाम घोषित किया गया, किंतु वे कभी अंग्रेजों के हाथ नहीं आए। इतिहासकारों के अनुसार नाना साहब बाद में नेपाल में या मध्यप्रदेश के पीलूखेड़ी गाँव में साधुवेश में जीवन के अंतिम दिन बिताए।
मैनादेवी मात्र तेरह वर्ष की थीं, किंतु उन्होंने जिस धैर्य और साहस से अंग्रेजों की अमानवीय यातनाओं का सामना किया, वह अद्वितीय है। उनका बलिदान केवल एक बालिका का बलिदान नहीं, बल्कि भारत की उस आत्मा का प्रतीक है जो स्वतंत्रता के लिए प्राणों की आहुति देने से भी पीछे नहीं हटी।
आज भी जब हम इस प्रसंग को पढ़ते हैं, तो हृदय द्रवित हो उठता है। मैनादेवी जैसी नन्हीं शहीदों की गाथाएँ हमें याद दिलाती हैं कि हमारी स्वतंत्रता कितने अमूल्य बलिदानों से प्राप्त हुई है।