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क्यों पुरातात्विक स्थल महेशपुरअपने हालत पर बहा रहा है आँसू

अम्बिकापुर/ लखनपुर से १८ किमी दूर और उदयपुर से करीब १४ किमी दूर सघन वनों के बीच बसाया गया ये स्थान जिसे महेशपुर के नाम से जाना और पहचाना जाता है आज अपने वस्तुस्थिति पर आंसू बहाते नजर आता है । भगवान शंकर को समर्पित ये स्थान जहाँ सदियों से न जाने कितने ऋषि मुनियों ने भगवान भोलेनाथ की पूजा और उपासना की है जिसके प्रत्यक्ष प्रमाण हमे इस जगह पर देखने को मिलते हैं। एक समय पूर्व भक्तिमय यह स्थान आज वर्तमान में अपने स्थिति में सुधार की बाट जोहता नजर आता है।

महेशपुर को स्थानीय लोग एक ऐसे स्थान के रूप में देखते हैं जो मन को शांति देने लायक है। इस स्थान पर शायद अब तक कम ही लोगो की निगाह पड़ी हो छत्तीसगढ़ में पढ़ाये जाने वाले इतिहास के पुस्तक के सिलेबस का एक भाग बन चुके इस जगह के बारे में केवल शब्दों के माध्यम से ही पढ़ा और समझा गया है जबकि असल मायनो में ये छत्तीसगढ़ के उस स्वर्णिम युग की गवाही देता है जिस समय भक्ति के मार्ग पर चलने वाले लोगो की कमी नही थी।

महेशपुर के इतिहास के बारे में बताया जाये तो करीब ०८ से १० वी सदी के आसपास यहाँ के मंदिरों में की गई कारीगरी आपको इसके समृद्ध और संपन्न इतिहास की गवाही देता है। इतिहासकारों की माने तो इस जगह की बनावट कल्चुरी शासन काल से मेल खाती नजर आती है । इस जगह की विशेषता यह है कि इस जगह में खुदाई के दौरान बड़ी संख्या में शिवलिंग तथा मंदिरों के अवशेष सहित कई सारी कलाकृतियाँ प्राप्त हुई हैं। इस जगह पर जिस समय खुदाई की उस समय काफ़ी अहम कलाकृति ज़मीन के अंदर से प्राप्त हुई जिसके बाद इस जगह को सहेजने की कवायद प्रारम्भ हुई ।

इस जगह के विषय में स्थानीय लोगो का मानना है कि किसी समय में इस स्थान पर शैशव संप्रदाय के लोग काफ़ी संख्या में रहे होंगे जिन्होंने इस जगह पर मंदिरों का निर्माण किया। कुछ लोगो का मानना है कि यहाँ काफ़ी संख्या में मूर्ति बनाने वाले कारीगर रहते थे जिन्होंने भगवान शिव की काफ़ी सारी शिवलिंग की रचना की तथा उन्हें इसी स्थान पर मंदिर के माध्यम से संजोया तथा बाद में यहा से चले गए । अब इन बातों में कितनी सच्चाई है ये तो वो ही जाने। लेकिन इस बात से कदापि इंकार नही किया जा सकता की ये जगह किसी समय में काफ़ी सुदर और मनमोहक था।

अब बात करे इस जगह के अस्तित्व में आने की तो सन् २००८ में एक टीले की खुदाई से यह जगह अस्तित्व में आया जिसके बाद लगातार खुदाई से कई बहुमूल्य वस्तुयें इस जगह से निकलकर सामने आयीं। इन वस्तुओं में पत्थरों के धारदार हथियार सहित कई सारी वस्तुएँ शामिल हैं। महेशपुर में खुदाई कि बाद बड़ी संख्या में इस जगह से मिले कलाकृतियों को सहेजने का दौर चला जिसे जिला संग्रहालय सहित स्थानीय संग्रहालय में आज भी देखा जा सकता है ।

इस जगह को पुराने समय के दंडक वन का प्रवेश द्वार भी माना जाता है साथ ही यह भी कहा जाता है कि राम वनगमन के दौरान प्रभु श्री राम ,अनुज लक्ष्मण और माता सीता इसी स्थान से होते हुए स्थानीय रामगढ़ (उदयपुर) में अपना कुछ समय बिताया था। जिसके कारण इस जगह की महत्ता और भी बढ़ जाती है। चूँकि यह स्थान दण्डकारण्य का प्रवेश द्वार था तो इस जगह से ही दण्डकारण्य में प्रभु श्रीराम के वनगमन की कहानी शुरू हुई थी।

इस जगह को सहेजने में बड़ा अहम भाग अदा किया स्थानीय प्रशासन ने जिसमें तत्कालीन कलेक्टर सरगुजा श्रीमती ऋतु सेन मैडम जिनके प्रयास से इस जगह पर चार चांद लग गए । अंधेरों में रहने वाला यह स्थान सोलर प्लेटों की ऊर्जा से प्रकाशमान हुआ तथा आसपास साफ़ सफ़ाई एवं कई सारी सुविधाओं का श्रेय उन्हें ही जाता है ।उनके जाने के बाद इस जगह की वर्तमान स्थिति यह है कि यहाँ संग्रहीत चिह्नित पत्थरों तथा कई सारी अपभ्रंश कलाकृतियाँ या तो गायब हो चुकी हैं या फिर रखरखाव के अभाव में समाप्ति की ओर अग्रसर हैं।

जिले में प्रशासन के कई जिलाधीश बदले परंतु इस जगह की तस्वीर नहीं बदल पायी । इस जगह पर खुदाई से मिली कलाकृतियों को सहेजने के लिए बनाये गए छोटे संग्रहालय के गेट को सामाजिक तत्वों के द्वारा तोड़ दिया गया है साथ ही इस संग्रहालय के भवन की छत भी अब काफ़ी जर्जर हालत में है ।वही इस जगह पर मौजूद जैन धर्म के ११ वें तीर्थंकर महाप्रभु की मूर्ति के आसपास भी साफ़ सफ़ाई का आभाव साफ़ तौर से देखा जा सकता है।

बड़े संग्रहालय में रखी मूर्तियाँ जिन्हें सीमेंट की मदद से दीवारों से चिपका कर रखा गया है आज साफ़ सफ़ाई के आभाव में धूल फाँकती नजर आती हैं । वर्तमान स्थिति कितनी बदतर हो चुकी है इस बात का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि मुख्य मंदिर के समीप लगे पौधे अब पानी के आभाव में सूखने लगे हैं जबकि ट्यूबवेल से पौधों को पानी दी जा सकती है।

वैसे देखा जाए तो महाशिवरात्रि और कुछ विशेष मौकों पर श्रद्धालुओं की भारी भीड़ अपने आराध्य के दर्शन पाने उमड़ती है परंतु अगर सुविधाओं की बात की जाए तो वह इस स्थान पर आज इतने प्रयासों के बाद भी शून्य नजर आती है । अब इस जगह को संरक्षित करने और सहेजने की जिम्मेदारी किसकी है यह तो स्वयं भोलेनाथ ही जाने,परंतु समय रहते अगर इस जगह को नही सहेजा गया तो यह स्थान वास्तविकता में कम और लोगो की बातों में ज़्यादा नजर आएगी और उस समय न प्रशासन के पास इसे सहेजने के लिए कुछ बाक़ी रहेगा और न स्थानीय जनप्रतिनिधियों के पास।

सावन पाण्डेय

संवाददाता अम्बिकापुर

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