स्वाभिमान और स्वतंत्रता के प्रतीक महाराणा प्रताप का शौर्य

भारतीय इतिहास में स्वाभिमान और स्वतंत्रता के प्रतीक के रूप में महाराणा प्रताप अमर हैं। उनका जन्म 9 मई 1540 को कुम्भलगढ़, राजस्थान में हुआ और उन्होंने अपने जीवन में मुगल सम्राट अकबर की अधीनता स्वीकार करने से साफ इनकार कर दिया। उनकी वीरता, विशेष रूप से हल्दीघाटी के युद्ध में, और मेवाड़ की स्वतंत्रता के लिए उनकी अटूट प्रतिबद्धता ने उन्हें एक किंवदंती बना दिया।
राजस्थान का राजपूत समाज का एक बड़ा हिस्सा महाराणा प्रताप का जन्मदिन पंचांग के हिसाब से मनाता है क्योंकि सन 1540 में 9 मई के दिन ज्येष्ठ शुक्ल की तृतीया तिथि थी। इस हिसाब से साल 2025 में महाराणा प्रताप की 485 वीं जयंती 29 मई 2025 को है।
महाराणा प्रताप का जन्म महाराणा उदय सिंह और महारानी जयवंता कंवर के यहाँ हुआ। बचपन में उन्हें ‘कीका’ के नाम से जाना जाता था। उस समय मेवाड़ मुगल आक्रमणों और आंतरिक कलह से जूझ रहा था। उनके पिता ने चित्तौड़गढ़ छोड़कर उदयपुर को नई राजधानी बनाया था, क्योंकि चित्तौड़ पर मुगलों का कब्जा हो चुका था। प्रताप की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया गया, जिसमें युद्धकला, शस्त्र विद्या, घुड़सवारी, और रणनीति शामिल थी। बचपन से ही वे हथियारों और घुड़सवारी के प्रति उत्साही थे, जिसने उन्हें एक कुशल योद्धा बनाया। उनकी माँ और गुरुओं ने उन्हें राजपूत मूल्यों जैसे साहस, सम्मान, और स्वाभिमान के महत्व को सिखाया।
1572 में, अपने पिता की मृत्यु के बाद, प्रताप ने मेवाड़ की गद्दी संभाली। उनके राज्याभिषेक में विवाद उत्पन्न हुआ, क्योंकि उदय सिंह ने अपने छोटे पुत्र जगमाल को उत्तराधिकारी बनाना चाहा था। लेकिन मेवाड़ के सरदारों ने परंपराओं का पालन करते हुए प्रताप का समर्थन किया। उस समय मेवाड़ की स्थिति नाजुक थी। मुगल सम्राट अकबर ने भारत के कई राज्यों को अपने अधीन कर लिया था, और कई राजपूत शासक, जैसे आमेर के राजा, अकबर की अधीनता स्वीकार कर चुके थे। लेकिन प्रताप ने मेवाड़ की स्वतंत्रता को सर्वोपरि माना और मुगलों के सामने झुकने से इनकार कर दिया।
16वीं शताब्दी में, अकबर ने भारत में अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए सैन्य और कूटनीतिक दोनों रणनीतियाँ अपनाईं। उन्होंने कई राजपूत राज्यों को वैवाहिक गठबंधनों और कूटनीति के माध्यम से अपने अधीन किया। लेकिन महाराणा प्रताप ने अकबर के सभी प्रस्तावों को ठुकरा दिया। अकबर ने चार बार दूत भेजे—जलाल खान (1572), मान सिंह (1573), भगवान दास (1573), और तोदर मल (1573)—लेकिन प्रताप ने स्पष्ट कर दिया कि वे केवल अपनी मातृभूमि के प्रति वफादार रहेंगे। उन्होंने अकबर को ‘बादशाह’ कहने से इनकार किया और उसे ‘तुर्क’ कहकर संबोधित किया, जो उनकी दृढ़ता और स्वाभिमान को दर्शाता है। इस इनकार ने मेवाड़ और मुगलों के बीच युद्ध को अपरिहार्य बना दिया।
18 जून 1576 को हल्दीघाटी का युद्ध मेवाड़ और मुगल सेना के बीच लड़ा गया, जो भारतीय इतिहास के सबसे प्रसिद्ध युद्धों में से एक है। प्रताप की सेना में लगभग 3,000 घुड़सवार और 400 भील धनुर्धर थे, जबकि मुगल सेना, जिसका नेतृत्व राजा मान सिंह और आसफ खान कर रहे थे, में 5,000 से 10,000 सैनिक थे। युद्ध की शुरुआत में, प्रताप की सेना ने आक्रामक हमला किया और मुगलों को पीछे धकेल दिया। उनके वफादार घोड़े चेतक ने अद्भुत साहस दिखाया। एक प्रसिद्ध घटना में, चेतक ने मान सिंह के हाथी के मस्तक तक छलांग लगाई, जिससे प्रताप को हमला करने का मौका मिला।
हालांकि, संख्याबल में भारी अंतर के कारण मेवाड़ की सेना को पीछे हटना पड़ा। युद्ध में भारी नुकसान हुआ—मेवाड़ के लगभग 1,600 और मुगलों के 3,500 से 7,800 सैनिक मारे गए। युद्ध के अंत में, चेतक ने एक 26 फीट चौड़े नाले को पार करके प्रताप को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया, लेकिन खुद गंभीर रूप से घायल होकर वीरगति को प्राप्त हुआ। इतिहासकारों के बीच युद्ध के परिणाम पर विवाद है—कुछ इसे मुगल जीत मानते हैं, लेकिन प्रताप की रणनीति और उनकी सेना की वीरता ने इसे नैतिक जीत बना दिया। इतिहासकार जेम्स टॉड ने इसे ‘राजपूतों का थर्मोपाइली’ कहा, जो उनकी साहसिकता को रेखांकित करता है।
हल्दीघाटी के युद्ध के बाद, महाराणा प्रताप ने अरावली की पहाड़ियों और जंगलों में शरण ली। यह उनके जीवन का सबसे कठिन समय था। वे और उनके परिवार को भोजन के लिए घास की रोटियाँ और जंगली पानी पर निर्भर रहना पड़ा। एक प्रसिद्ध कथा के अनुसार, उनकी बेटी को भूख से रोते देख प्रताप ने आत्मसमर्पण करने का विचार किया, लेकिन उनके समर्थकों ने उन्हें प्रेरित किया। इस दौरान, उनके वफादार समर्थक भामाशाह ने 2.3 लाख रुपये और 20,000 आशरफियाँ दान कीं, जिससे प्रताप ने अपनी सेना को पुनर्गठित किया।
प्रताप ने छापामार युद्ध की रणनीति अपनाई, जिसमें वे मुगल ठिकानों और आपूर्ति रेखाओं पर आकस्मिक हमले करते थे। उनकी इस रणनीति ने मुगलों को मेवाड़ में स्थायी नियंत्रण स्थापित करने से रोका। उनकी सेना में भील और अन्य स्थानीय समुदायों का महत्वपूर्ण योगदान था, जिन्होंने पहाड़ी क्षेत्रों में मुगलों को परेशान किया।
प्रताप की दृढ़ता और रणनीतिक कौशल ने उन्हें मेवाड़ के कई क्षेत्रों को मुक्त करने में सफलता दिलाई। 1582 में, दिवेर छापली की लड़ाई में उन्होंने मुगल सेनापतियों सुल्तान खान और बहलोल खान को हराया। इस जीत को जेम्स टॉड ने ‘मेवाड़ का मैराथन’ कहा, क्योंकि इसने मुगलों के 36 ठिकानों को समाप्त कर दिया। 1585 तक, प्रताप ने उदयपुर सहित मेवाड़ के अधिकांश हिस्सों पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। यह उनकी सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक थी, क्योंकि उन्होंने मुगल साम्राज्य की विशाल शक्ति के सामने अपनी स्वतंत्रता को पुनः स्थापित किया।
महाराणा प्रताप ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष मेवाड़ की रक्षा और पुनर्गठन में बिताए। 19 जनवरी 1597 को, एक शिकार दुर्घटना में घायल होने के कारण उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के समय, मेवाड़ एक बार फिर स्वतंत्र और सशक्त था। उनके पुत्र अमर सिंह ने उनकी विरासत को आगे बढ़ाया, हालांकि बाद में उन्हें मुगलों के साथ संधि करनी पड़ी।
महाराणा प्रताप की कहानी केवल एक शासक की नहीं, बल्कि स्वाभिमान और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष की है। उन्हें ‘हिंदूशिरोमणि’ के रूप में जाना जाता है, जो उनके हिंदू गौरव और स्वतंत्रता की रक्षा में उनकी भूमिका को दर्शाता है। उनकी वीरता ने मराठा शासक शिवाजी महाराज और ब्रिटिश शासन के खिलाफ बंगाल के स्वतंत्रता सेनानियों को प्रेरित किया। साहित्य में, उनकी कहानियाँ श्यामनारायण पांडेय की कविता ‘चेतक की वीरता’ और लोकगीतों में अमर हैं।
स्वामी विवेकानंद ने कहा, “महाराणा प्रताप वीरता के प्रतीक हैं। उनका जीवन हम सभी के लिए प्रेरणा का स्रोत है।”
महाराणा प्रताप का जीवन हमें सिखाता है कि सच्चा नेतृत्व केवल सत्ता में नहीं, बल्कि सिद्धांतों और मूल्यों की रक्षा में निहित है। उन्होंने यह दिखाया कि विपरीत परिस्थितियों में भी दृढ़ता और विश्वास के साथ लक्ष्य प्राप्त किए जा सकते हैं। उनकी कहानी सामाजिक एकता का भी प्रतीक है, क्योंकि उन्होंने भील और अन्य स्थानीय समुदायों को अपने संघर्ष में शामिल किया।
विकिपीडिया – महाराणा प्रताप
वेबदुनिया – महाराणा प्रताप की वीरता
भारत डिस्कवरी – महाराणा प्रताप का इतिहास
लेवरेज एजु – महाराणा प्रताप के उद्धरण