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शुभदा पाण्डेय की काव्यात्मा पुस्तक ‘महाकुंभ के माणिक मृगमन’ पर एक समीक्षात्मक दृष्टि

प्रसिद्ध साहित्यकार, संवेदनशील कवयित्री और आत्मीय व्यक्तित्व की धनी शुभदा जी भारतीय साहित्यिक संसार की एक सशक्त उपस्थिति हैं। वे एक बहुआयामी व्यक्तित्व की स्वामिनी हैं—लेखनी, संवेदना और आत्मीयता से परिपूर्ण। उनकी जिजीविषा और जीवन दृष्टि प्रेरणादायक है। भारत के हर कोने में वे एक यात्रिक बनकर पहुँची हैं, पर वहां पहुँचकर वे केवल पर्यटक नहीं रहीं, बल्कि उसी भूमि की बनकर रह गईं। बनजारों की तरह कंधे पर थैला डाले वे न जाने कितनी यात्राओं की साक्षी बनी हैं, पर हर यात्रा को उन्होंने आत्मा से जिया है।

उनकी आत्मीयता का प्रभाव इतना गहन है कि वे जहाँ भी जाती हैं, वहां रिश्तों की बुनियाद रखती हैं—तन-मन से उन्हें संजोती हैं। वे न केवल कितनी ही संतानों की मानस जननी हैं, बल्कि एक गुरु, एक मार्गदर्शक के रूप में भी अनगिनत शिष्यों की पथप्रदर्शक हैं।

आज का यह अवसर उनकी सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘महाकुंभ के माणिक मृगमन’ के लोकार्पण का है, जो न केवल एक काव्यसंग्रह है, बल्कि एक आध्यात्मिक यात्रा का जीवंत दस्तावेज भी है। महाकुंभ—यह शब्द सुनते ही मन में श्रद्धा, भीड़, आस्था, गंगा और अध्यात्म की मिली-जुली छवि बनती है। यह यात्रा लाखों श्रद्धालुओं के लिए एक धार्मिक अनुष्ठान हो सकती है, पर शुभदा जी के लिए यह एक जीवंत अनुभव, एक आध्यात्मिक मंथन और आत्म साक्षात्कार की प्रक्रिया रही।

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बहुतों ने महाकुंभ में डुबकी लगाई होगी, गंगाजल और प्रसाद लेकर लौटे होंगे, कुछ ने डिजिटल माध्यमों से तस्वीरें साझा की होंगी, लेकिन शुभदा जी ने इस पूरे अनुभव को मन से जिया, आत्मा से पिरोया और साहित्यिक भाषा में लिपिबद्ध किया। यही भावनात्मक और आध्यात्मिक गहराई उनकी पुस्तक ‘महाकुंभ के माणिक मृगमन’ की आत्मा है।

यह कृति 28 सजीव कविताओं और दो महत्वपूर्ण आलेखों—‘महाकुंभ में सूर्य का महत्व’ तथा ‘महाकुंभ में अखाड़ों का प्रतिपाद्य’ से सुसज्जित है। साथ ही पुस्तक में सम्मिलित छायाचित्र इस अनुभव को और भी जीवंत बना देते हैं।

पुस्तक की भूमिका में शुभदा जी स्वीकार करती हैं—“अब तक की यात्रा में बहुत कुछ छूटा, पर ऐसा ज़रूर कुछ मिला जिससे आत्मीयता बनी रही।” यह वाक्य ही इस संपूर्ण रचना का सार है। गंगा को वे केवल एक नदी नहीं, बल्कि ‘मां’ और ‘औषधि’ मानती हैं। हर सनातनी के घर में जिस गंगाजल को पवित्रता का प्रतीक माना जाता है, वही गंगा इस पुस्तक की चेतना में प्रवाहित होती है।

पुस्तक की कविताएँ गंगा के विविध रूपों को प्रस्तुत करती हैं:

  • अक्षय वट, झूंसी, फाफामऊ, भारद्वाज आश्रम, नागवासुकी—इन स्थलों के माध्यम से सांस्कृतिक स्मृतियाँ और लोकविश्वास उभरते हैं।

  • गंगा की अदालत, हिजड़ों की दुआ, महाकुंभ में भाषाएं, गंगा का रंगमंच, समुद्र मंथन, नक्षत्रों का शाही नहान, परंपराओं की पुनरावृत्ति—जैसी कविताएं पाठकों को एक अलग ही गहराई में ले जाती हैं।

  • गंगा में खोई मां, महाकुंभ से लौटती शालिनी फुआ जैसी कविताएं पारिवारिक स्मृतियों और करुणा से भरपूर आत्मीय भावों को रेखांकित करती हैं।

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कविता ‘विश्वास की पराकाष्ठा’ विशेष उल्लेखनीय है। यह वह अनुभूति है जो किसी तीर्थ या स्थल की भौगोलिकता से नहीं, बल्कि वहाँ से उपजे अध्यात्म से आती है। यही कारण है कि दुनिया के किसी अन्य देश में स्नान को महोत्सव या पर्व का रूप नहीं मिला—क्योंकि वहां गंगा नहीं है।

गंगा का रंगमंच, जैसा कि शुभदा जी कहती हैं, सबसे प्राचीन और सबसे अद्यतन मंच है। उन्होंने गंगा से संवाद किया है और उसे अनुभूत किया है कि यह नदी केवल बहती नहीं, बल्कि सुनती भी है

कविताओं में पौराणिक और सांस्कृतिक गहराइयाँ हैं—प्रयाग की महिमा, समुद्र मंथन, रामचरितमानस के प्रसंग। कविताएं संदेश देती हैं—“मनुष्य का संकल्प ही उसे लक्ष्य की ओर ले जाता है”

पुस्तक में महाकुंभ में भाषाएँ नहाती हुई प्रतीत होती हैं, मानो शब्द भी आस्था की डुबकी लगाकर पुनर्जन्म पा रहे हों। एक अन्य सुंदर बिंब है—“कन्याओं का जीवन नदी की तरह होता है, जो इस पाट से उस पाट की ओर बहते हुए नया घर अपना बना लेता है।” यह कविता कन्याओं के जीवन की व्यथा और सौंदर्य, दोनों को गहराई से छूती है।

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और अंत में, शुभदा जी की लेखनी का एक और आयाम उल्लेखनीय है—उनकी घटनाओं की प्रस्तुति में कहीं भी राजनीतिक रंग नहीं होता। चाहे दादी-नानी के युग की स्मृतियाँ हों या आधुनिक अनुभव, वे उन्हें उसी निष्कलुषता और संवेदनशीलता से उतारती हैं जैसी किसी श्रवणशील साक्षी ने उन्हें जिया हो।

पुस्तक ‘गंगा में तिरोहित होता मन’ कविता से आरंभ होती है और ‘संगम का भक्तिकाल’ पर समाप्त होती है। इसके उपरांत दो गहन आलेख और अंत में महाकुंभ यात्रा के छायाचित्र इस पुस्तक को पूर्णता प्रदान करते हैं।

यह केवल एक कविता संग्रह नहीं, बल्कि आस्था, अनुभव और आत्मा की यात्रा है। शुभदा जी की लेखनी की रचनात्मकता बनी रहे और वे साहित्य को इसी तरह समृद्ध करती रहें, यही हमारी शुभकामनाएं हैं।

– प्रोफेसर (डाॅ.) बीना शर्मा
केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा