बिजली या गाज, होता है तड़ितपात

आजकल गाज बहुत ज्यादा गिर रही हैं। गिरती तो पहले भी थी मगर इससे इतने ज्यादा लोगों की जिंदगानियाँ नहीं जाती थीं जितनी वर्तमान में जा रही हैं।

किसी के यहां आयकर चोरी के छापे या किसी प्रेमी-प्रेमिका के बीच हुई धोखेबाजी से किसी की जिंदगी में गिरने वाली गाज की बात नहीं, आसमानी बिजली की बात कर रहा हूं। पहले आकाश में बिजली की भीषण लपलपाहट और फिर थोड़ी देर बाद बादल की जोरदार गड़गड़ाहट। कभी-कभी बिजली इतनी नजदीक ; इतनी तड़तड़ा के गिरती है कि जी घबरा कर भगवान् का नाम ले उठता है।

कल शाम जब मैहर से लौट रहा था तो दो बार ऐसा हुआ। आज अखबार पढ़ रहा हूं कि कल मैहर में शारदा माता मंदिर परिसर के बरम चौरा और दूसरी तरफ बिरसिंहपुर के चकरा गांव में बिजली गिरी। बरम बाबा तो बिजली झेल ले गए मगर चकरा के दो नौजवान इसके शिकार हो गए। एक मौके पर ही जिन्दगी से हाँथ धो बैठा जबकि दूसरा झुलसा हुआ जिला अस्पताल में गंभीर भर्ती है।

कहते हैं कि जब आसमान में बारिश वाले बादल हवा के साथ यहां-वहां विचरण करते हैं तो इनमें से विपरीत एनर्जी वाले बादल आपस में तेज गति से टकराते हैं तो तीव्र प्रकाश पैदा होता है और फिर इनकी गड़गड़ाहट हमें सुनाई पड़ती है। इनकी टकराहट के घर्षण से बिजली पैदा होती है और धरती पर आकर गिरती है। असल में बिजली को बनते ही एक “कंडेक्टर” की तलाश होती है।  आसमान में तो वह मिलता नहीं तो धरती में जहां मिल जाता है वहां गिर जाती है – चाहे चार मरें चाहे चालीस।

इस जानलेवा बिजली से दर्दनाक मौतें हो रही हैं। एक अरसे पूर्व पन्ना जिले में थोड़ा ऊंची वृक्ष-विहीन सड़क पर एक मजदूर आगे-आगे छोटे बच्चे के साथ भीगते-भागते जल्दी-जल्दी चला जा रहा था।  पीछे थोड़ी दूर पर उसकी पत्नी चल रही थी मगर बिजली शायद पति के थैले पर रखे हंसिये पर गिरी और बाप बेटे इस असंख्य बोल्ट वाली आसमानी बिजली के “टच” में आते ही तत्काल ढेर हो गए।  पीछे अवाक पत्नी अपनी जिंदगी पर यह गाज गिरते देखती रह गई। तीन-चार दिन पहले अमरपाटन के पास बाइक पर जा रहे दो युवकों पर गाज गिरी थी। मुझे लगता है कि पहले से ज्यादा घटनाएँ गाज गिरने की हो रही हैं वजह चाहे मोबाइल हो या मोबाइल टावर्स अथवा और कुछ।

हालाँकि बिजली या गाज जो भी आप कहें आदिकाल से गिरती आ रही है।  बुंदेलखंड अंचल में आज भी अनेक परिवारों में गाज माता का व्रत भादों के महीना में किसी भी दिन शुभ-मुहूर्त में किया जाता है।  वैसे इसके लिए भादों की दूज को शुभ माना जाता है।  उस दिन गाज माता को हलवे की कड़ाही भी चढ़ती थी जो कुलदेवता को चढ़ाई जाती थी।  शहरों में अब लोग इन व्रत-पर्वों को भूलते जा रहे हैं।  गाँव में कुछ लोगों के यहाँ अभी भी यह परम्परा जारी है।

बहरहाल ; कोई गाज माता का व्रत करे चाहे ना करे, गाज को तो गिरना ही गिरना है।  उमड़ते-घुमड़ते बादल टकराए तो बिजली को तड़कना ही तड़कना है। बचपन से गाज का गिरना सुनते आये हैं।  लोग बताया करते थे कि ककरहटा के प्राचीन हनुमान जी के मंदिर पर कभी गाज गिरी थी जो बीच से फट गया है।  मंदिर का कलश नीचे तक फट गया और हनुमान जी भी टेढ़े हो गए।  एक बार यह भी सुना था कि पास के गाँव के एक किसान के पास आसमान से गिरी गाज का एक बड़ा टुकड़ा रखा है।  गाज खेत में गिरने के साथ सिरा गई और यह गरम दैवी शिलाखंड का टुकड़ा वहां पड़ा मिला।  मैंने पूंछा कि देखने में कैसा लगता है तो बताने वाले ने बताया कि “हल की कुसिया” की तरह।  वह देखने की बड़ी इच्छा थी पर कभी देख नहीं पाया।

यह अवश्य है कि किशोरावस्था में एक बार लगभग बगल में बिजली गिरते और आम के एक बड़े पेड़ “गुल्ला” को भयावह अर्राहट के साथ जड़ से उखड़ते-गिरते मैंने देखा है।

असल में क्या हुआ कि तीन भाइयों वाले हमारे पिता के संयुक्त परिवार के पास 9-10 भैंसें थीं जो चार दिन से घर नहीं लौटी थी।  वैसे गर्मी और फिर बरसाती शुरुआती समय के तत्कालीन “ऐरा” के उन दिनों में भैंसों का दो-एक दिन ना आना सामान्य बात थी।  जब वह ककरहटा नदी के दुनाव वाले इलाके तक पहुंच जाती थीं तो एकाद दिन रुक जाती थीं।  इस बार भैंसों के पड़ेरू भी धोखे से साथ निकल गए थे तो वे और निश्चिंत थी।  पिता सबसे बड़े थे और दो छोटे भाइयों से उनका बंटवारा भी हो चुका था।  भैंसें भी बंट चुकी थीं पर अभी उनका विचरण के लिए साथ जाना नहीं छूटा था।  इन सब भैंसों का नेतृत्व करती थी- हमारे हिस्से में आईं तीन भैंसों में से एक भैंस “भूरी” जिसका रंग और नाम एक था।  वह आगे-आगे चलती थी।  अच्छा चारा भी लगा हो तो भी वह बजाए जम के एक तरफ से चरने के इधर-उधर मुंह मारती चलती और आगे चरते-चलते हुए पीछे मुंह मोड़ कर डिड़कती।  मुहरा भैंस की आवाज से पीछे का दल भी आगे बढता रहता।

इनके साथ एक भैंसोल बछिया भी थी।  आप कहेंगे कि भैंसोल बछिया तो मैं कहूंगा कि हां – गाय की बछिया मगर जो बचपन से इन भैंसों के साथ रह रही थी इसी वजह से उसका कुछ नाम नहीं रखना पड़ा और वह “भैंसोल” बनकर रह गई। जब सभी भैंसियां नरवा के पानी में लोरते हुए पगुरा रही होतीं तो भैंसोल वहीँ किनारे की कगार में बैठकर पगुराती।  भैंसें जब पानी से निकलतीं तो बछिया फिर उनका साथ पकड़ लेती।

असल किस्सा यह कि भैंसों के दो दिन से ज्यादा रुक जाने पर घर के अन्य बाल-वृन्दों और महिलाओं के बीच यह बात शुरू हो जाती कि पप्पू हरों की यह भूरी तो आ सबको आगे-आगे ले जाती है। पता नहीं इस बार कहां ले के कढ़ गई है।  उस समय मैं 12-13 साल का था।  रात में बाई ने मुझसे कहा कि अगर सुबह तक भैंसें नहीं आती हैं तो तुम कलेबा कर दुनाव और उसके आसपास तक भैंसों को देख आना और कहीं मिलें तो हांक लाना।

तड़के अथान के साथ घी चुपड़ी चार बासी रोटियां खा कर, कमर में तौलिया लपेट और हाथ में अपनी ऊँचाई से बड़ा परैना लेकर मैं सुबह मिशन में निकल पड़ा ऐसे कि जैसे कर्तव्य कभी आग-पानी की परवाह नहीं करता।  चौमासे के दिन थे और बादल अंधियाए हुए थे।  ढीमरघाट छाती तक चढ़ा था मगर कुछ हलवाहे-किसान आर-पार जा रहे थे।  परैना दूसरी ओर फेंक कर बात की बात में मैं तैर कर नरवा पार कर गया। एक दो ने पूंछा कि पप्पू अकेले उल्टा कहाँ जा रहा है तो मैंने कहा कि कहीं नहीं।

नरवा के किनारे-किनारे भरका-खदनियाँ देखते-देखते काफी दूर तक चला।  एक जगह ऊंचे कंगार से देखा कि एक बड़ी दहार में जहां एक तरफ तो बढ़ा-चढ़ा हुआ नाला मोड़ ले रहा था पर दूसरी ओर किनारे पर बहते गंदले पानी ने बिछाई ताजी रेत पर दो बड़ी ग्वाहें लड़ाई में निमग्न थीं।  उनके चलने, दौड़ने, झपटने, लिपटने और गिरने पर भद की आवाज आती। कभी दोनों सिर उठाकर तनकर खड़ी हो जातीं।  थोड़ी देर में दिखा कि एक तीसरी बड़ी ग्वाह भी वहीँ नजदीक कहुआ की उथली जड़ में बैठी इनको लड़ते देख रही थी। शायद उसी के लिए झगड़ा हो रहा हो।  यह भी पता नहीं कि ये ग्वाहें लड़ रहीं थी या चौमासे के आनंद के अतिरेक में यूँ ही लिपटा-झपटी कर रही थीं।  शायद डेढ़क घंटे तक में ग्वाहों को कौतूहल से देखता रहा और भूल गया कि भैंसियां लेने आया हूं। फिर जोर से पानी बरसना शुरू हो गया तो फिर चलना शुरू किया।

दुनाव पहुंचा जहाँ ककरहटी का नरवा ककरहटा की नदी से मिलता था।  वहां तो इतना तेज बहाव था कि भैंसियां वहां ठहर ही नहीं सकती थीं। आसपास भरे खेतों और बंगरा पड़े खेतों और झुरमुटों में भी देखा।  एक तरह से छोटा-मोटा जंगल ही था।  अपनी भैंसियां कहीं नहीं थीं और जो दो-तीन जगह दिखीं वह अपनी नहीं थीं।  जब लगा कि दोपहर बीत रही है और बादलों का बरसना, गरजना और तड़कना जारी है तो मैंने घर का संधान किया चूंकि नरवा तेजी से चढ़ रहा था।  एक जगह कहीं ना कहीं से नरवा पार करना ही पड़ेगा तो यह सोच कर कि कहीं और न चढ़ जाए तरिया की ओर से नरवा में कूदा और कछरा की तरफ जाकर निकला। मुझे मालूम था कि यह तैरने की जगह नहीं है और यहां मोड़ होने से पानी तेज और उछलता चलता है मगर इस रोमांचक सफ़र में मुझे रोकने वाला कौन था।  एक जगह कमोवेश कम पाट वाली जगह से परैना को भाला की तरह सुधया कर दूसरी ओर फेंका और दूसरे तट पर उसे पकड़ने के लिए तैरते हुए झपटा फिर निकल कर ढर्रा में आ गया।  सुबह से दो बार भींजने और दो बार सूखने के बाद देह फिर पानी से लथपथ थी।

पानी धीमा हुआ लेकिन गगन-घटा उसी तरह गहरानी थी।  बिजली बार-बार चमक रही थी।  घर से कुछ दूर बगीचे में जहां ककरहटा की ओर जाने वाले ढर्रे और ढीमर घाट जाने वाले ढर्रे का दोराहा था वहां बीच में एक शानदार आम का वृक्ष था।  प्यार से लोग उसे गुल्ला कहते थे। पानी फिर तेज हुआ तो मैं गुल्ला के नीचे खड़ा हो गया और मिशन की असफलता के बारे में सोचने लगा कि बाई को कैसे-क्या बताऊंगा।  पानी और तेज हुआ तो सामने बड़े तने वाले जामुन के पेड़ की ओर जाने का निश्चय किया।  चारों ओर बरसते पानी की आवाज के सिवा कुछ नहीं था। मुझे लगा कि अब हार की तरफ कोई आ नहीं रहा है क्योंकि सुबह के बाद कोई-कहीं दिखा नहीं था।

जामुन के नीचे गए अभी थोड़ी देर ही हुई थी कि जैसे कुछ सनसनाया।  पूरा बगीचा एक दिव्य-तेज प्रकाश से जगमगा गया ! तेज गिरते पानी की आवाज थम गई थी या मेरे कान सुन्न हो गए थे- पता नहीं। उस क्षणिक सन्नाटे में एक पल के लिए मैंने हतप्रभ इधर-उधर देखा। कुछ क्षण के बाद जैसे कहीं से अजीबोगरीब “टक्क” की आवाज हुई।  क्या हुआ ? कैसी आवाज है। सामने देखा तो ऐसा लगा कि वहां जैसे धरती फट रही थी। भारी अर्राहट की आवाज के साथ वह “गुल्ला” जिसके नीचे थोड़ी देर पहले मैं खड़ा था एक ओर गिर रहा था और दूसरी ओर जमीन उखड़ रही थी। वह दूसरी ओर गिर रहा था पर इससे क्या ? वह मेरी और गिरता तो भी मैं वैसा ही स्थितप्रज्ञ, किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा रहता- आज महसूस करता हूं।

जड़ों सहित एक ओर कलथने और जमीन से लगने के बाद “गुल्ला” तीन-चार बार ऊपर नीचे हुआ और फिर शांत हो गया।  जड़ के पास बड़ा भरका जैसा हो गया था। तेज बारिश की आवाज़ फिर सुनाई देने लगी थी ।  जड़ों पर लगीं मिट्टी की परतें धुल रहीं थीं।  ताजा बड़ा गड्ढा और उनमें विकराल जड़ें और फिर गिरा पड़ा पेढ़ देखकर मैं तेज गति से घर की ओर भागा। पछीत से घर में घुसते हुए चिल्लाया कि गुल्ला गिर गया  बाई भी अधीरता के साथ बोली- “ठीक आ गया बेटा।  बगीचा में गाज आय गिरी है।  मैं तो जितनी बार बादल गरजते यही सोच रही थी कि तुझे बेकार बरसते पानी में भेज दिया। ” बाई ने यह भी बताया कि भैंसियों का पता चल गया है। अमचुई के जंगल में हैं।

बाद में मैं कई दिनों तक लोगों को गाज और गुल्ला के गिरने की कहानी सुनाता रहा, जैसे आज सुनाई।

 

संस्मरण

श्री निरंजन शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक
सतना, मध्य प्रदेश

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