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लोकभाषा से लोकमन तक लाला जगदलपुरी की बाल रचनाओं की जीवंतता

स्वराज करुण 
(ब्लॉगर एवं पत्रकार )

बच्चों के लिए साहित्य – सृजन कोई आसान काम नहीं है। उनके लिए कहानी, कविता लिखना हो तो उनके मनोविज्ञान को समझना बहुत जरूरी होता है। वर्तमान पीढ़ी के बहुत कम लोगों को यह मालूम है कि अपनी 93 साल की जीवन यात्रा के लगभग सात दशक साहित्य साधना में लगा देने वाले साहित्य महर्षि लाला जगदलपुरी ने बड़ों के लिखने के साथ -साथ बच्चों के लिए भी ख़ूब लिखा। उनका जन्म 17 दिसम्बर 1920 को छत्तीसगढ़ के जगदलपुर (जिला -बस्तर) में हुआ और 93 साल की आयु में उन्होंने 14 अगस्त 2013 को अपने गृह नगर जगदलपुर में ही अपनी ज़िन्दगी के सफ़र को हमेशा के लिए विराम दे दिया। उनकी साहित्य -साधना लगभग 70 वर्षो तक चली।

इस अवधि में उन्होंने विपुल साहित्य सृजन किया। गीतों और ग़ज़लों के साथ आदिवासी बहुल बस्तर अंचल के जन जीवन तथा बस्तरिया इतिहास, कला और संस्कृति पर उनकी रचनाओं का विशाल भंडार है। उन्होंने हिन्दी और छत्तीसगढ़ी के साथ-साथ बस्तर इलाके में प्रचलित हलबी और भतरी लोक भाषाओं में भी भरपूर लेखन किया। छत्तीसगढ़ सरकार ने वर्ष 2004 में राजधानी रायपुर में राज्य स्थापना दिवस पर नवंबर में आयोजित राज्योत्सव में उन्हें पंडित सुन्दरलाल शर्मा स्मृति राज्य सम्मान से नवाज़ा था। इसी तरह उनकी प्रकाशित कृतियों और विभिन्न संस्थाओं द्वारा समय -समय पर उन्हें दिए गए सम्मानों की एक लम्बी सूची है।

उनका अधिकांश लेखन बड़ी उम्र के पाठकों के लिए रहा लेकिन इस वर्ष 2025 में जब उनकी बाल कविताओं का संकलन ‘बाबा की भेंट’शीर्षक से प्रकाशित हुआ, तब  वर्तमान पीढ़ी के हम जैसे लोगों के लिए यह  चौंकाने वाली एक नई बात थी। बच्चों के लिए इस संग्रह में उनकी 119 रचनाएँ शामिल हैं

लालाजी की इन छोटी -छोटी  रचनाओं में हिन्दी के साथ -साथ बस्तर अंचल में प्रचलित हलबी, भतरी और छत्तीसगढ़ी लोक भाषाओं की कविताएँ भी हैं। उनके हिन्दी बाल -गीतों, दोहों और बाल -मुक्तकों की बहार है। लोक भाषा हलबी में बस्तर की ग्रामीण पहेलियाँ और बाल-गीत और लोकभाषा भतरी में पहेलियों के रूप में बालगीत उल्लेखनीय हैं। उनके छत्तीसगढ़ी बाल गीतों  में भी पहेलियों का समावेश है।

संग्रह की शुरुआत लालाजी के एक अभिमत से की गई है,जिसमें उन्होंने कविता की बड़ी सुन्दर परिभाषा दी है।उन्होंने कहा है -“मुझे लगता है कि कविता अभिव्यक्ति का  एक सशक्त माध्यम है। मेरे अनुसार सीमित शब्दों में कथ्य की असीम अभिव्यक्ति ही कविता है। “उनका यही अभिमत इस वर्ष ‘बूँद -बूँद सागर’,’ आंचलिक कविताएँ :समग्र’ और ‘बिखरे मोती’ शीर्षक से छपे उनके तीन अन्य संकलनों में भी प्रकाशित किया गया है।इन संकलनों में शामिल रचनाएँ बड़ों के लिए हैं।

इन तीनों संग्रहों की तरह बच्चों के लिए  ‘बाबा की भेंट ‘शीर्षक  संग्रह में प्रकाशित  लालाजी की  रचनाओं का संकलन, सम्पादन और प्रस्तुतिकरण भी विनय कुमार श्रीवास्तव का है, लालाजी उनके ताऊ थे। इनमें से कई रचनाएँ वर्षो पहले अनेक प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थीं, जिनका उल्लेख भी रचनाओं के साथ किया गया है। जैसे पहली रचना ‘आज़ादी का गीत ‘ वर्ष 1997 की है, जब देश अपनी आज़ादी का स्वर्ण जयंती वर्ष मना रहा था। उन्होंने ‘आज़ादी का गीत’ शीर्षक इस रचना में लिखा –

“भारत की आज़ादी तुझे बधाई है।

स्वर्णिम तेरी स्वर्ण जयंती आई है।

तू हमको प्राणों से प्यारी,

तुझ पर निर्भर लाज हमारी।

तेरे संकट दूर करेंगे

भारत के अच्छे नर-नारी।

नई चेतना अब हम में लहराई है।

भारत की आज़ादी तुझे बधाई है। ”

 

उनकी ‘विश्व बंधुत्व’ शीर्षक कविता, जो वर्ष 1964 में मैक मिलन एंड कम्पनी लिमिटेड, मद्रास, मुंबई, कोलकाता और लंदन द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘गुलदस्ता’ में शामिल थी। यह उन दिनों कक्षा 9वीं में तृतीय भाषा हिंदी की गद्य और कविताओं की पाठ्य पुस्तक थी। लालाजी ने अपनी इस कविता में बच्चों को विश्व-बंधुत्व’ का संदेश दिया है। इसमें उनकी कुछ

पंक्तियाँ देखिए –

ईश्वर सबका परम पिता है,

धरती सबकी माता है,

एक बड़ा परिवार जगत है,

पालनहार विधाता है।

पानी सबका, पवन सभी का,

पावक सबका, तपन सभी का,

ऋतुएँ सबकी आती -जाती,

धरती सबकी, गगन सभी का।*

बच्चों के लिए ‘शैतानी ‘शीर्षक उनकी एक दिलचस्प बाल ग़ज़ल मई 1979 में बाल साहित्य समीक्षा की एक मासिक पत्रिका में छपी थी। इसकी दो प्रारंभिक पंक्तियाँ देखिए –

“हमने शैतानी की प्यारे,

पकड़े गए कान बेचारे।”

संग्रह में एक खण्ड कपास और तकली पर भी है। आज के अधिकांश बच्चे शायद कपास और तकली को भूल चुके हैं। लेकिन हमारे देश में ग्रामोद्योग के तहत कभी इनका भी एक जमाना था। स्वतंत्रता संग्राम के दौर में राष्ट्र पिता महात्मा गांधी ने कपास, तकली,  खादी और चरखा के प्रचलन को एक जन- आंदोलन का रूप दिया था। लाला जगदलपुरी की बाल कविताओं के इस संकलन में कपास और तकली पर केंद्रित उनकी रचनाओं से आज़ादी के आंदोलन की यादें ताज़ा हो जाती हैं। बच्चे इन्हें पढ़कर कपास और तकली को तो जानेंगे ही, कपड़ा उत्पादन में उनके महत्व को भी समझेंगे, जो उनके लिए शायद बीते जमाने की बात हो चुकी है। कवि लाला जगदलपुरी उस दौर में देश में बढ़ते मशीनीकरण के संभावित नकारात्मक परिणामों से भी चिंतित थे। उन्होंने पुस्तक के इस खण्ड में ‘तकली और मशीन’शीर्षक कविता में अपनी इस चिन्ता को प्रकट किया है। उनकी दृष्टि में कपड़ा बनाने की मशीनें धनिकों की हैं, जो धन के द्वारा बड़े मजे से चलती हैं, जबकि तकली निर्धनता में भी तन, मन और लगन से।इस पर उनकी इन पंक्तियों को देखिए-

*चल तकली तू अपनी गति से,

तेज भागने दे मशीन को।

जगह-जगह चल रहीं मशीनें,

बड़े मजे में धन के द्वारा,

तू चलती है निर्धनता में,

तन, मन और लगन के द्वारा।*

इस खण्ड में  बच्चों के लिए सरल शब्दों में (1) बीज और कपास (2) कपास के गुण (3) पौधों की जन सेवा (4) पोनी (5) सूत-जन्म (6) तकली की चाल (7) तकली वाला (8) तकली -परिवार (9) चुनेंगे कपास (10) तकली (11) धुनकी छेड़े तान सुरीली (12) मैं तकली हूँ (13) तकली रानी शीर्षक से रोचक और ज्ञानवर्धक कविताएँ भी शामिल हैं। लाला जी ने ‘तकली के अंग और उनके काम’  शीर्षक से तकली के शीश, नाक, तकली की डंडी, चकती और अनी पर अलग -अलग कविताओं के माध्यम से बच्चों को जानकारी दी है।लाला जी ने तकली को सर्वधर्म समभाव का भी प्रतीक माना है। उन्होंने ‘तकली -परिवार’ शीर्षक कविता में लिखा है —

“तकली का परिवार बड़ा है।

जिसमें हिन्दू -मुसलमान हैं,

जिसमें ईसाई सुजान हैं,

जिसमें बंदे गौतम के हैं,

जिसमें सिक्ख-जैन चमके हैं,

जिसने चाहा उसे मिल गया,

तकली का आधार बड़ा है।

तकली का परिवार बड़ा है।”

 

पुस्तक में एक खण्ड ‘बस्तर की ग्रामीण पहेलियाँ और बाल-गीत’  शीर्षक से है। इस खण्ड में उनकीछोटी -छोटी रचनाओं का प्रस्तुतिकरण ‘कहे जंगल, गा बूझोवल’ शीर्षक से किया गया है। इसमें हलबी पहेलियों के साथ उनका हिंदी काव्यानुवाद भी कवि ने दिया है। भतरी पहेलियाँ भी बाल गीतों के रूप में हिन्दी काव्यानुवाद के साथ हैं। छत्तीसगढ़ी पहेलियों को भी कवि ने  हिन्दी में काव्यात्मक अनुवाद के साथ प्रस्तुत किया है। पुस्तक का समापन लाला जी द्वारा लिखित ‘कूप मंडूक’ शीर्षक एक छोटी कहानी से किया गया है, जो कुएँ के मेंढकों के बारे में है।

पुस्तक की सभी रचनाएँ बहुत दिलचस्प हैं। यह किताब 184 पेज की है। बच्चों के लिए प्रकाशित इस कविता -संग्रह के शुरूआती पन्नों में विनय कुमार श्रीवास्तव ने इसके प्रकाशन के लिए किए गए अपने प्रयासों की जानकारी दी है। उन्होंने लालाजी का परिचय भी दिया है।  शुरूआती पन्नों में जहाँ चार पेज में लाला जगदलपुरी की साहित्यिक उपलब्धियों का विवरण है, वहीं उनके अनुज स्वर्गीय केशव लाल श्रीवास्तव द्वारा उन्हें समर्पित एक छोटी कविता भी है।

अगले पन्नों में अपने बाल -लेखन पर स्वयं लाला जी ने छह पन्नों में विस्तार से प्रकाश डाला है। उन्होंने बाल -गीतों पर भी अलग से अपनी संक्षिप्त टिप्पणी  दी है। पुस्तक में वरिष्ठ कवि (आई। ए। एस। अधिकारी) त्रिलोक महावर ने लाला जी की तुलना अक्षरों के आदित्य (सूर्य) से करते हुए ‘अक्षर-आदित्य का रचना -संसार’ शीर्षक से उनकी साहित्य साधना पर लिखा है।

इसी कड़ी में साहित्यिक पत्रिका’सूत्र’ के सम्पादक और  वरिष्ठ कवि विजय सिंह ने इस संकलन में ‘ बस्तर अब नहीं रहा गूँगा’शीर्षक अपने आलेख में लाला जगदलपुरी की सुदीर्घ साहित्यिक यात्रा की चर्चा की है। सनत कुमार जैन, डॉ। शोभा श्रीवास्तव, कल्पना श्रीवास्तव, विभा वर्मा, सुप्रिया और विकास श्रीवास्तव, डॉ। आभा श्रीवास्तव और अभय श्रीवास्तव की भावनाएँ भी पुस्तक में शामिल हैं। यह किताब 275 रूपए की है। इसे नई दिल्ली के लिटिल बर्ड पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया है।

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