24 सितम्बर 1932 क्राँतिकारी प्रीतिलता का अंग्रेजों से लड़ते हुए बलिदान
भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में ऐसे असंख्य बलिदान हुये जिनका इतिहास की पुस्तकों में वर्णन शून्य जैसा है । जबकि उनक कार्य स्वर्णाक्षरों में उल्लेख करने लायक हैं । इनमें से एक हैं महिला क्रांति कारी प्रीति लता वोददार जिन्होंने 24 सितम्बर 1932 में अंग्रेजों की पुलिस से मुकाबला करते हुये अपना बलिदान दिया । 1857 की क्रांति के बाद वे पहली ऐसी क्राँतिकारी महिला हैं जिन्होंने रानी लक्ष्मीबाई की भाँति लड़ते हुए अपने प्राणों का बलिदान दिया ।
क्राँतिकारी प्रीति लता का जन्म 5 मई 1911 को बंगाल के चटगाँव क्षेत्र में हुआ था । यह क्षेत्र अब बंगलादेश में है । वे एक सामान्य परिवार से आतीं हैं । लेकिन परिवार में शिक्षा का वातावरण था । पहले संस्कृत का वातावरण था फिर अंग्रेजी की शिक्षा का । परिवार में अंग्रेजी की पढ़ाई के बावजूद घर में भारत राष्ट्र और सास्कृतिक आयोजनों की बातचीत हुआ करती थी। उनके पिता नगर पालिका में क्लर्क थे । लेकिन सरकार में और अंग्रेज अफसरों के व्यवहार में भारतीयों के प्रति सम्मान का भाव न था । इस बात की भी चर्चा घर में होती थी । इन सब बातों का प्रीति लता के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा । प्रीति लता पढ़ने में बहुत कुशाग्र बुद्धि थीं । उन्होने मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की, और आगे की पढ़ाई के लिये वे ढाका पहुँची । ढाका के इंडेन कालेज में दाखिला लिया । 1929 में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की । वे ढाका बोर्ड की प्राविण्य सूची में पाँचवे नम्बर पर रहीं । इण्टरमीडिएट के बाद कलकत्ता से दर्शन शास्त्र में डिग्री प्राप्त की । लेकिन ब्रिटिश अधिकारियों ने उनकी डिग्री रोक दी । इसका कारण यह था कि जब डिग्री लेने पहुँची तो उन्हें ब्रिटिश एम्पायर के प्रति वफादारी की शपथ लेनी थी । जो उन्होंने मना कर दिया । प्रीति लता ने शपथ नहीं ली तो उनकी डिग्री रोक दी गयी । वे बिना डिग्री लिये ही कलकत्ता से रवाना हुईं और चटगाँव आ गयीं
उन दिनों चटगाँव क्षेत्र क्राँतिकारियों का बड़ा केन्द्र था । प्रीति लता के द्वारा शपथ न लेने और डिग्री रोकने का समाचार फैल गया । वे क्राँतिकारियों के संपर्क में आ गयी । उनसे मिलने के लिये सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी सूर्यसेन ने सावित्री नामक एक महिला को भेजा । सावित्री एक साधारण-सी ग्रहणी थी पर वे क्राँतिकारियों के संपर्क का काम करतीं थीं । प्रीति लता सावित्री की सलाह पर सुप्रसिद्ध क्राँतिकारी रामकृष्ण विश्वास से मिलीं । इस मुलाकात के बाद प्रीतिलता क्राँतिकारियों के बीच संपर्क का काम करने लगीं । जब राम कृष्ण विश्वास जेल गये तो वे जेल में भी मिलने गयीं । इसके बाद उनका संपर्क क्राँतिकारी सूर्यसेन से बना । तब क्राँतिकारियों का एक संगठन काम करता था “हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी” । प्रीतिलता इस संगठन से जुड़ गयीं । इस संगठन ने चार लोंगो का समूह बनाया । इसके समन्वय का काम क्राँतिकारी सूर्यसेन के हाथ में था जबकि इसमें प्रीतिलता के अतिरिक्त निर्मल सेन, प्रफुल्ल सेन और अपूर्व सेन भी थे । प्रीतिलता ने युद्ध और हथियार चलाने का प्रशिक्षण क्राँतिकारी निर्मल सेन से लिया । निर्मल सेन ने ही उस दौर के अधिकांश क्रांतिकारियों को शस्त्र संचालन सिखाया था । प्रीति लता ने भी इन्हीं से सीखा ।
समय के साथ यह समूह पुलिस की निगाह में आ गया और पुलिस उन्हे ढूँढने लगी । सूर्यसेन के नेतृत्व में काम कर रहे इस समूह पर पर दस हजार का इनाम घोषित किया गया । कल्पना की जा सकती है कि अंग्रेजों के लिये यह समूह कितना भयभीत करने वाला होगा कि उन्होंने 1931 में इस समूह पर दस हजार के पुरस्कार घोषित किया था । इस पुरस्कार के लालच में कुछ लोग निगरानी करने लगे और काम में कठिनाइयाँ आने लगीं । सभी क्राँतिकारी अदृश्य और छद्म वेश और नाम से अपना काम करना आरंभ किया । ये लोग घलघाट पहाड़ी पर रहकर अपना काम करने लगे । लेकिन अधिक दिनों तक छिप कर न रह सके । उनके ठिकाने का पता पुलिस को लग गया । पुलिस ने एक दिन छापा मारा । इस मुठभेड़ में क्रांति कारी अपूर्व सेन और निर्मल सेन का बलिदान हो गया । लेकिन प्रतिलता और सूर्यसेन निकलने में सफल हो गये । वे अंततः सावित्री देवी के घर रहने लगे ।
सावित्री अंग्रेजों के मनोरंजन क्लब में काम करती थी अतएव उन पर किसी को कोई संदेह न था । सावित्री के घर पास ही पहाड़ी पर अंग्रेजों ने अपना मनोरंजन क्लब बनाया हुआ था जिसमें शराब नाच के अतिरिक्त किशोर वय की भारतीय लड़कियाँ लाई जाती थीं । यह बात प्रीतिलता को कयी दिनों से चुभ रही थी । अंततः क्लब उड़ाने की योजना बनाई ।
वह 24 सितम्बर 1932 का दिन था । अंग्रेजों की पार्टी चल रही थी । प्रतिलता ने भरा हुआ रिवाल्वर और पोटेशियम सायनाइड नामक रसायनिक विष साथ रखा तथा बम लेकर पहुँची । उन्होंने खिड़की से बम फेका । बम विस्फोट में 13 अंग्रेज घायल हुये । उन्होंने भागने की कोशिश की । उनपर पीछे से गोली दागी गयी । गोली उनकी पीठ पर लगी । वे घायल होकर गिर पड़ी । घायल अवस्था में वे नहीं चाहतीं थी कि अंग्रेजों के हाथ उनके शरीर से लगें । उन्होंने सायनाइड भी खा लिया और मौके पर ही वे शरीर छोड़ कर परम ज्योति में विलीन हो गयीं । वे पहली ऐसी क्राँतिकारी मानी गयीं जिन्होंने रानी लक्ष्मीबाई की भाँति अंग्रेजों से लड़ते हुए अपने प्राणों की आहुति दी । उनके निधन के अस्सी साल बाद उनकी डिग्री जारी हुई । मरणोपरांत अस्सी साल बाद डिग्री जारी होने की भी अपने आप में यह अनूठी घटना है । स्वतंत्रता के लगभग 57 वर्ष बाद फरवरी 2005 में उनकी प्रतिमा लगाई गयी और उनके नाम पर एक सभागार का भी नामकरण हुआ