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वृक्षों की रक्षा करने वाले बलिदानियों की स्मृति में लगता है खेजड़ली में मेला

राजस्थान के खेजलड़ी में मेला चल रहा है जो हर बरस भादों माह में आयोजित होता है। यह मेला एक दर्दनाक घटना की स्मृतियों को संजोए हुए है। 28 अगस्त 1730 को खेजड़ी पेड़ पर कुल्हाड़ी चलती उसके पहले अमृता देवी पेड़ से लिपट गई.. कुल्हाड़ी के अघात से अमृता देवी की गर्दन कट गई। पेड़ काटने वाले कई थे और पेड़ों की रक्षा करने वालों की कमी नहीं थी।

पेड़ों पर चलती कुल्हाड़ी के बीच लोगों ने अपने आपको सामने कर दिया। पेड़ कटे तो नहीं.. पर पेड़ों को बचाते 363 ग्रामीणों ने अपना जीवन पेड़ों के लिए समर्पित कर दिया। ऐसी दर्दनाक घटना 600 साल पहले राजस्थान के खेजड़ली गांव में घटी। पेड़ों की रक्षा करने के लिए ऐसा अनूठा बलिदान संत गुरु जभ्भोंजी के अनुयायी बिश्नोईयों ने किया था।

पेड़ों के लिए बलिदान –
पेड़ों की रक्षा का ऐसा बलिदानी आंदोलन 28 अगस्त 1730 में चला, जब जोधपुर के किले का निर्माण शुरू हुआ था। जोधपुर महाराज अभय सिंह ने चूना पत्थर पकाने के लिए खेजड़ी पेड़ों को काटने का आदेश दिया था। दीवान गिरधर दास भंडारी खेजड़़ली गांव मे अपने सैनिकों सहित जा पहुंचा और पेड़ों को काटने का फरमान जारी कर दिया। खेजड़ली गांव के लोगों ने विरोध किया और फिर 84 गांव के बिश्नोईयों की महापंचायत बैठी। पंचायत में निर्णय लिया गया कि पेड़ों को कटने नहीं देंगे उस के बदले भले खुद कट जाएंगे। गांव में हजारों बिश्नोई एकत्र हो गए और अमृता देवी के नेतृत्व में पेड़ों की रक्षा करने वाले लोग पेड़ों से लिपट गए।

खेजड़ी पेड़ को बचाते हुए सबसे पहले अमृता देवी ने अपना बलिदान दिया और फिर एक के बाद एक लोग कुल्हाड़ी के से कटते चले गए। खेजड़ली गांव में 363 लोग पेड़ों को बचाते हुए कट गए। संत गुरु जभ्भोंजी जी की वाणी को स्मरण करते हुए लोगों ने आत्मसर्ग कर दिया। पेड़ों को बचाते के 294 पुरुष और 69 महिलाओं ने अपना बलिदान दिया जिसमें 36 दंपति पूरी तरह से खत्म हो गए।

पर्यावरण रक्षक जभ्भोंजी –
1730 की इस दर्दनाक घटना पर सहसा विश्वास नहीं होता कि पेड़ों की रक्षा करने के लिए लोग आत्मोसर्ग से भी नहीं हिचके। आखिर कौन थे ये लोग…! पेड़ के बदले खुद कटने वाले…! तो सबसे पहले एक महान संत गुरु जभ्भोंजी का नाम सामने आता है।

संत गुरु जभ्भोंजी ने प्रकृति और पर्यावरण को बनाए रखने के लिए लोगों को एक व्यवहारिक दर्शन दिया, ताकि राजस्थान की मरूभूमि से लोगों का पलायन ना हो सके। गुरुजी ने सबसे पहले मरुस्थलीकरण रोकने के लिए एक सुदीर्घ योजना की नींव रखी। प्रकृति संरक्षण संवर्धन के लिए 29 नियम बनाएं। 20 और 9 नियमों का पालन करने वाले विश्नोई कहलाए।

पारिस्थितिक तंत्र के समुचित संरक्षण के उपायों का समावेश करते हुए उन्हें बिश्नोईयों की जीवन शैली से जोड़ते हुए कहा, “जीव दया पालणी रूंख लीलो न धावों” अर्थात् संसार के समस्त जीवों पर दया -भाव रखना व हरे-भरे वृक्षों को कदापि नहीं काटना। जभ्भोंजी की वाणी को शिरोधार्य करते हुए विश्नोई समाज आज भी पर्यावरण सहेजने में अपनी भूमिका निभाता चला रहा है।

खेजड़ली गांव की दर्दनाक दास्तान लेकर एक सैनिक महाराज अभय सिंह के पास पहुंचा। महाराज खेजड़ली पहुंचे और उन्होंने दीवान और उसके साथ आये सैनिकों को कारागार में डालने का आदेश दिया। महाराज ने एक ताम्रपत्र लिखकर आदेश जारी किया कि जहां विश्नोई समाज रहता है वहां के हरे- भरे पेड़ नहीं कटने चाहिए।

खेजड़ी का वृक्ष-
खेजड़ी राजस्थान के मरुस्थल का बहु उपयोगी पेड़ है, जो पशु चारा के साथ स्वादिष्ट सांगरी भी देता है, जिसकी सब्जी बड़े चाव के साथ खाई जाती है। खेजड़ी को ही शमी वृक्ष कहा जाता है जिसकी पत्तियां भगवान शंकर को अर्पित की जाती हैं। महाभारत काल में पांडवों ने अपने अज्ञात वनवास काल में अस्त्र खेजड़ी पेड़ के कोटर में छुपा रखे थे।

दशहरा के दिन शमी वृक्ष की पत्तियों का आदान- प्रदान प्रदान स्वर्ण तुल्य मानकर आज भी किया जाता है। खेजड़ी को एक पवित्र पेड़ मानकर घर-घर में रोपा जाता है। खेजड़ी को जंड,जांटी,वाणी,धाफ नाम से जाना जाता है। इस का वैज्ञानिक नाम प्रोसेफिस सिनेनेरिया है। राजस्थान सहित तेलंगाना राज्य का वृक्ष है। खेजड़ी ही यूएई का राष्ट्रीय वृक्ष है।

बलिदानियों की याद में मेला-
पेड़ों के लिए बलिदान देने वालों का स्मरण करते हुए घटना के ढाई सौ वर्ष बाद भादों सुदी दशमीं तदनुसार 28 अगस्त 1963 से मेला लगने लगा। मेला में आने वाले लोग बलिदानी भूमि की माटी को अपने मस्तक पर लगाते अपने को धन्य मानते हैं और पर्यावरण संरक्षण का संकल्प दोहराते हैं।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार हैं।

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