क्राँतिकारी कन्हाई लाल दत्त ने गद्दार को जेल में गोली मारी
भारत दुनियाँ का ऐसा देश है जहाँ स्वतंत्रता संघर्ष में सर्वाधिक बलिदान हुये और वहीं संघर्ष में विश्वासघात के सर्वाधिक उदाहरण भी भारत में मिलते हैं। ऐसे ही एक विश्वासघाती को सुप्रसिद्ध क्राँतिकारी कन्हाई लाल दत्त ने जेल में रहकर ही गोली मारी थी। इसके लिये उन्हें फांसी हुई। विश्वासघाती को सबक सिखाने वाले सुप्रसिद्ध क्राँतिकारी कन्हाई लाल दत्त का जन्म 30 अगस्त 1888 को बंगाल के चंदननगर में हुआ था। उनका नाम सर्वतोष रखा गया। किन्तु उनका जन्म भगवान श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की रात को हुआ था इससे वे कन्हाई नाम कन्हाई से प्रसिद्ध हुये।
विद्यालय में उनका नाम सर्वतोष ही था। पर समाज में वे कन्हाई लाल नाम से ही जाने गये। कन्हाई जब चार वर्ष के थे तब उनके पिता उनको लेकर मुम्बई आ गये। पांच वर्ष बम्बई में रहे। आरंभिक शिक्षा यहीं आरंभ हुई। नौ वर्ष की आयु में पुनः चन्दन नगर आये। आगे की शिक्षा चन्दन नगर के डुप्ले कालेज में हुई। यहीं से उन्होंने स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की। इस महाविद्यालय के एक प्राध्यापक चारु चन्द्र राय का संपर्क क्राँतिकारियों से। उनके माध्यम से कन्हाई क्रान्तिकारियों से जुड़े और अंग्रेजों के विरुद्ध क्राँतिकारी अभियान चलाने वाली युगान्तर अनुशीलन समिति। क्राँतिकारी पत्रकार ब्रम्हबाधव उपाध्याय ने कन्हाई को प्रशिक्षित कर अन्य युवा क्राँतिकारियों के प्रशिक्षण का काम सौंपा।
अंग्रेजों द्वारा भारतीयों के किये जाने वाले शोषण पर युवकों में गुस्सा तो था ही और युवकों की क्राँतिकारी गतिविधियाँ आरंभ हो गईं थीं। इसी बीच अंग्रेज गवर्नर जनरल 1905 में भारत के गवर्नर जनरल कर्ज़न ने हिंदू मुस्लिम साम्प्रदायिक आधार बंगाल के विभाजन की घोषणा कर दी। इस निर्णय का विरोध हुआ। यह ठीक है कि धार्मिक आधार पर धारायें अलग थीं पर बंगाली भाषा और बंगाली परंपराओं में मतभेद न थे। इसलिये लगभग पूरा बंगाली समाज एकजुट होकर ब्रिटिश राज के विरुद्ध खुला संघर्ष करने एकजुट हो गया।
बंगाली युवकों ने ब्रिटिश राज को उखाड़ फेंकने का संकल्प लेकर सशस्त्र संघर्ष का निर्णय लिया। इसके लिये विभिन्न क्षेत्रीय शाखाएँ गठित की गई और हथियार बनाने का एक कारखाना स्थापित किया गया। यह कारखाना कलकत्ता के मणिकलतल्ला स्थित सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी अरविंद घोष और उनके भाई डॉक्टर वारींद्र घोष के बगीचे में शुरु हुआ था। अरविन्द घोष और वारीन्द्र घोष का यह बगीचा केवल कारखाना भर नहीं था अपितु क्राँतिकारी गतिविधियों का एक प्रमुख केन्द्र था। यहाँ व्यायाम शाला स्थापित थी। यह व्यायाम शाला भी बाह्य रूप थी। दरअसल यहाँ युवकों को शारीरिक व्यायाम के साथ क्राँति का प्रशिक्षण दिया जाता था।
बारीन्द्र घोष डाक्टर थे, परिवार भी संपन्न था इसलिये उनके यहाँ इस प्रकार आवाजाही पर किसी को संदेह नहीं होता था। लेकिन 1908 में एक दुर्घटना घट गई। इस कारखाने में विस्फोट हो गया। जिसमें एक युवक की मृत्यु हुई। इतिहास में यह विस्फोट “,अलीपुर बम काण्ड के नाम से मशहूर है। अंग्रेज सरकार को युवकों की क्राँतिकारी गतिविघियों की खबर तो लग रही थी पर उनके केन्द्र का पता न लग रहा था। लेकिन इस बिस्फोट के बाद बारीन्द्र घोष और अरविन्द घोष तो बंदी बनाए ही गये। इसके साथ धरपकड़ करके 39 युवाओं को भी बंदी बनाया गया। इसमें कन्हाई लाल भी थे ।
खुदीराम बोस द्वारा किये गये मुजफ्फरपुर बम काण्ड के बाद अंग्रेजी शासन चौकन्ना हो गया था। चारो लोगो की खोज की जा रही थी। पर क्रान्तिकारियो के अड्डे का पता न चल पा रहा था किन्तु इस बिस्फोट ने केवल जो मानिकतल्ला के इस बगीचे का पता स्वयं दे दिया अपितु यहाँ युवकों के संपर्क के अन्य सूत्र भी मिल गये। सभी बन्दियो को अलीपुर कारागार में भेज दिया। सुरक्षा और सावधानी की दृष्टि से अलीपुर जेल में ही इस मुकदमें की सुनवाई आरंभ हुई। बंदी बनाये गये युवा क्राँतिकारियों में एक युवक नरेन्द्र गोस्वामी भी था। पूछताछ प्रताड़ना, भय और लालच में वह टूट गया और उसने क्रान्तिकारियों के सभी संपर्क सूत्र पुलिस को दे दिये।
पुलिस ने उसे सरकारी गवाह बना लिया। नरेन्द्र के इस कुकृत्य की समस्त देशभक्त समुदाय विचलित हुआ और चारो ओर नरेन्द्र की भर्त्सना होने लगी। पर नरेन्द्र को इससे कोई अंतर न पड़ा। वह सरकारी गवाह बनने के अपने निर्णय पर अडिग रहा। जब एक दिन वह जेल के भीतर ही सुनवाई के दौरान अपनी गवाही दे रहा था तब सुनवाई के दौरान ही उसपर हमला कर दिया। इस घटना से उसे जमानत मिल गई और सुरक्षा के लिये दो सिपाही भी तैनात कर दिये गये। पर क्रातिकारियों में इससे गुस्सा और बढ़ा। विशेषकर क्राँतिकारी कन्हाई लाल और उनके अन्यय मित्र सत्येन्द्र ने जेल में रहकर ही विश्वासघाती नरेन्द्र गोस्वामी को सबक सीखाने की सोची।
जेल में युवाओं के साथ क्राँतिकारियों को प्रशिक्षण देने वाले प्रोफेसर चारुदत्त भी थे। कन्हाई लाल दत्त और सत्येन्द्र बसु ने इस देशद्रोही को सबक सिखाने की योजना पर प्रोफेसर चारुदत्त से परामर्श किया। योजनानुसार जेल के प्रहरियों से घनिष्ठता बढ़ाई। योजनानुसार एक जेल प्रहरी के सहयोग से कन्हाई लाल दत्त और सत्येन्द्र ने जेल में आने वाली सब्जी के टोकरे में छिपाकर पिस्तौल मंगवाने में सफल हो गये। कन्हाई पिस्तौल अपने सिरहाने रखकर सोते थे। वह 31 अगस्त 1908 का दिन था। विश्वासघाती नरेन्द्र गवाही के लिये पुनः सामने आया। नरेन्द्र के सामने आते ही कन्हाई लाल ने पिस्तौल से वार कर दिया।
गोली उसके पैर में लगी किन्तु वह उससे गिरा नहीं और भागने की कोशिश करने लगा। तभी बिना कोई क्षण गँवाये सत्येन्द्र ने उसे धक्का देकर नीचे पटक दिया । सत्येन्द्र और कन्हाई दोनों ने उसके निकट पहुचे और उस विश्वासघाती को गोलियों से छलनी कर दिया। घटना इतनी आकस्मिक थी कि सरकार द्वारा तैनात दोनों अंगरक्षक कुछ भी बचाव न कर सके। जेल प्रहरी दौड़े। कन्हाई लाल दत्त और सत्येन्द्र दोनों पकड़ लिये। उन पर हत्या का मुकदमा चला। कन्हाई को 10 नवम्बर 1908 को कन्हाई लाल दत्त को जेल में ही फाँसी दे दी गई और उनके दो दिन बाद 12 नवम्बर 1908 को सत्येन्द्र को फाँसी हुई। दोनों क्राँतिकारी राष्ट्र को स्वतंत्र कराने में बलिदान हो गये।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं।