समावेशिता, अधिकार और सांकेतिक भाषाओं का महत्व

मानव सभ्यता की यात्रा में भाषा हमेशा से सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान का आधार रही है। जब हम संचार की बात करते हैं तो अक्सर बोले गए शब्दों को ही भाषा मानते हैं, परंतु संसार में भाषाओं का दायरा इससे कहीं व्यापक है। अंतरराष्ट्रीय सांकेतिक भाषा दिवस इसी विविधता और समावेशिता का उत्सव है। हर वर्ष 23 सितंबर को मनाया जाने वाला यह दिवस हमें स्मरण कराता है कि दृष्टिबाधित समुदाय के लिए सांकेतिक भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं है, बल्कि उनकी आत्मा, संस्कृति और अधिकारों का प्रतीक है। 2017 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा इस दिवस को मान्यता दी गई और 2018 से इसे वैश्विक स्तर पर मनाया जाने लगा। 2025 का थीम “No Human Rights Without Sign Language Rights”संदेश देता है कि मानवाधिकारों की पूर्णता तभी संभव है जब सांकेतिक भाषा अधिकार सुनिश्चित हों।
सांकेतिक भाषाओं का इतिहास गहरा और समृद्ध है। भारतीय उपमहाद्वीप में सदियों पहले से ही हावभाव और मुद्राओं के माध्यम से संवाद की परंपरा मौजूद रही है। धार्मिक अनुष्ठानों में मुद्राओं का प्रयोग इसकी गवाही देता है। परंतु आधुनिक अर्थों में सांकेतिक भाषाओं का व्यवस्थित स्वरूप 18वीं शताब्दी में सामने आया, जब फ्रांस के चार्ल्स मिशेल डे ल’एपे ने दृष्टिबाधित बच्चों के प्राकृतिक संकेतों को भाषा का रूप दिया। यही आधार आगे चलकर अमेरिकी सांकेतिक भाषा का जनक बना और दुनिया में कई सांकेतिक भाषाओं के विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ।
आज दुनिया भर में 300 से अधिक सांकेतिक भाषाएं प्रचलित हैं, जिनकी अपनी व्याकरण और संरचना है। यह भाषाएं किसी बोली जाने वाली भाषा का मात्र अनुवाद नहीं, बल्कि स्वतंत्र भाषाई प्रणालियां हैं। अफ्रीका से लेकर एशिया, यूरोप से लेकर अमेरिका तक हर क्षेत्र में अलग-अलग सांकेतिक भाषाएं विकसित हुई हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिका की ASL और ब्राजील की Libras, यूरोप की ब्रिटिश सांकेतिक भाषा और फ्रेंच सांकेतिक भाषा, एशिया में चीनी और जापानी सांकेतिक भाषाएं, ये सभी भाषाई विविधता की गवाही देती हैं। प्रत्येक भाषा स्थानीय संस्कृति, इतिहास और जीवन शैली से प्रभावित होकर अद्वितीय स्वरूप ग्रहण करती है।
भारत के संदर्भ में, भारतीय सांकेतिक भाषा (ISL) विशेष महत्व रखती है। अनुमानित 60 लाख दृष्टिबाधित भारतीय इस भाषा का उपयोग करते हैं, जिससे यह दुनिया की सबसे अधिक प्रचलित सांकेतिक भाषाओं में से एक बन जाती है। इसका विकास प्राकृतिक संवाद की जरूरतों से हुआ, जब दृष्टिबाधित छात्रों ने मौखिक शिक्षा के दबाव के बावजूद अपने संकेतों को व्यवस्थित किया। इसकी व्याकरण बोली जाने वाली भाषाओं से भिन्न है। हाथों के आकार, गति, स्थान और चेहरे के भाव इसमें अभिन्न भूमिका निभाते हैं। उदाहरण के लिए, संख्याओं के लिए विशिष्ट संकेत, पारिवारिक संबंधों में ‘पुरुष’ और ‘महिला’ का अलग संकेत, और प्रश्नों को व्यक्त करने के लिए शब्द क्रम में बदलाव—ये सभी ISL की विशिष्टताएं हैं।
दुर्भाग्यवश, भारत में अभी भी सांकेतिक भाषा को वह स्थान नहीं मिला है जिसकी वह हकदार है। शिक्षा संस्थानों में मौखिक विधि को बढ़ावा दिया जाता है और ISL का उपयोग सीमित हो जाता है। लाखों दृष्टिबाधित लोगों के लिए मात्र सैकड़ों प्रशिक्षित दुभाषिए उपलब्ध हैं। नीति स्तर पर मान्यता और संसाधनों की कमी के कारण यह समुदाय पूर्ण अधिकारों और अवसरों से वंचित रह जाता है। यही नहीं, वैश्विक स्तर पर भी कई गांव-आधारित सांकेतिक भाषाएं शहरीकरण और सामाजिक परिवर्तनों के कारण विलुप्त हो रही हैं।
फिर भी उम्मीद की किरणें मौजूद हैं। भारत में 2015 में स्थापित इंडियन साइन लैंग्वेज रिसर्च एंड ट्रेनिंग सेंटर (ISLRTC) इस दिशा में मील का पत्थर है। यह संस्थान ISL के मानकीकरण, शिक्षक प्रशिक्षण और पाठ्यसामग्री विकास पर काम कर रहा है। एनसीईआरटी द्वारा पाठ्यक्रमों में ISL को शामिल करने की पहल बच्चों को बचपन से ही सांकेतिक भाषा से जोड़ने का प्रयास है।
इसी तरह, विश्व स्तर पर वर्ल्ड फेडरेशन ऑफ द डेफ अभियान और नीतिगत प्रयासों से सांकेतिक भाषा अधिकारों की आवाज को मजबूती मिल रही है। तकनीकी प्रगति भी इस यात्रा को आसान बना रही है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आधारित एप्स और टूल्स सांकेतिक भाषा की पहचान और अनुवाद में मददगार हो रहे हैं, जिससे संचार की बाधाएं धीरे-धीरे टूट रही हैं।
अंतरराष्ट्रीय सांकेतिक भाषा दिवस इस विचार का प्रतीक है कि भाषाएं केवल शब्दों का समूह नहीं होतीं, बल्कि जीवन जीने का तरीका होती हैं। दृष्टिबाधित समुदाय के लिए यह उनकी गरिमा और आत्मनिर्भरता की पहचान है। जब हम इस दिवस को मनाते हैं, तो यह केवल जागरूकता का अवसर नहीं, बल्कि उस संकल्प का उत्सव है कि हम सभी को एक समान अवसर और अधिकार दिलाने के लिए प्रतिबद्ध हैं।
2025 का यह विशेष वर्ष हमें याद दिलाता है कि मानवाधिकार अधूरे हैं यदि सांकेतिक भाषा अधिकार सुरक्षित नहीं हैं। जब तक हम सांकेतिक भाषाओं को सम्मान और मान्यता नहीं देंगे, तब तक समावेशी समाज का सपना अधूरा रहेगा। यह दिवस हम सभी से आह्वान करता है कि हम अपने आसपास दृष्टिबाधित लोगों की भाषाई जरूरतों को समझें, उन्हें स्वीकारें और उन्हें समाज की मुख्यधारा में बराबरी के साथ स्थान दें। केवल तभी हम एक ऐसी दुनिया बना सकेंगे जहां हर भाषा का मूल्य और हर व्यक्ति का अधिकार सुरक्षित हो।