बस्तर में लाल आतंक के ढहने का निर्णायक मोड़ : हिड़मा का अंत

छत्तीसगढ़ के बस्तर समेत कई राज्यों के निरपराध लोगों के ख़ून से रत्नगर्भा धरती को रक्तरंजित करने वाले माओवादी आतंकी ‘हिड़मा’ को सुरक्षाबलों ने मार गिराया। 18 नवंबर 2025 को लाल आतंक का पर्याय हिड़मा मारा गया। इसके चलते जहां देशभर में ख़ुशी का वातावरण है। बस्तर समेत समूचा वनांचल जहां उसके आतंक का खौफ़ व्याप्त था। वहां के लोग सुकून की सांस लेने लगे। क्योंकि हिड़मा का मारा जाना माओवादी आतंक के सबसे मज़बूत किले का ढह जाना है। बस्तर में स्थायी शांति की बहाली का संकेत है। इसी बीच छग सरकार ने सदाशयता और मानवीयता दिखलाई। 20 नवंबर को हिड़मा और उसकी माओवादी पत्नी के शव को अंतिम संस्कार के लिए उसके गांव पूवर्ती भेजा। शव आने की ख़बर के साथ ही माओवादियों का अर्बन माड्यूल तुरंत एक्टिवेट हुआ। पूरे लाव-लश्कर के साथ कई टीमें पूवर्ती पहुंचने लगीं।कुछ लोग जो जहां जिन संस्थानों में बैठे हैं। वहां की-बोर्ड में माओवादी बारुद के साथ अलर्ट मोड में बैठ गए। देरी थी बस कुछ एक्सक्लूसिव तस्वीरों, भावुकता भरे वीडियोज, कुछ लोगों के स्क्रिप्टेड वर्जन (वर्सन)। ये इनपुट जैसे ही मिले सियारों का रुदन तुरंत चालू हो गया। अर्बन नक्सल गिरोह के सिपाही हिड़मा के अंतिम संस्कार के नाम पर सहानुभूति बटोरने। उसे ग्लोरीफाई करना शुरू कर दिया।
कामरेड के नाम पर उसके ऊपर काले कपड़ों वाली वर्दी रखी गई। अर्बन नक्सली ‘नक्सलवाद कभी ख़त्म न होने की’ बात कहते नज़र आए। भावनाओं को भुनाने के लिए ये नैरेटिव सेट किया गया कि— फला-फला फूट-फूटकर रोया। ये मिथ्यारोप लगाए गए कि “हिड़मा तो सरेंडर करने आया था। जवानों ने उसका नाहक में एनकाउंटर कर दिया।”— ये सब कितना सोचा समझा नैरेटिव है न? हिड़मा को ऐसा पेश किया जा रहा है कि जैसे वो कोई मासूम दुधमुंहा बच्चा रहा हो।
जबकि हिड़मा ये वही माओवादी आतंकी है जिस पर 6 राज्यों ने तक़रीबन 1.80 करोड़ का ईनाम रखा था। हिड़मा जिसने ख़ुद 127 हत्याएं की थी। 600 माओवादी-नक्सलियों का जो हेड था। वो हिड़मा जिसने बस्तर के सैकड़ों लोगों को मौत के घाट उतारा। जनजातीय समाज के जीवन की खुशियां छीन ली। सालों से सुरक्षाबलों के जवानों, राजनेताओं सहित न जाने कितने निरपराधों की हत्या करता आया।
ये वही हिड़मा है जिसने छत्तीसगढ़, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र में सैकड़ों जवानों की हत्या की। सैकड़ों जवानों की हत्या की साज़िशें रची। मई 2013 का झीरम घाटी कांड जिसमें कांग्रेस के कद्दावर नेता महेंद्र कर्मा समेत कई नेताओं की हत्या कर दी गई। उस दौरान सुरक्षाकर्मियों समेत कुल 33 लोगों की हत्या हुई थी। इसका मास्टरमाइंड हिड़मा ही था। हालांकि महेन्द्र कर्मा की हत्या और झीरम घाटी कांड के पीछे कुछ कांग्रेस के नेताओं द्वारा साज़िश रची जाने की बातें भी सुर्खियां बनीं थीं।
हिड़मा जिसमें अहम किरदार था। इन बातों में कितनी सच्चाई थी याकि अफ़वाह थी। इसका कोई अंतिम सत्य अभी तक आया नहीं है। इससे पहले इसी हिड़मा के नेतृत्व में — 2010 में दंतेवाड़ा में एक यात्री बस को बम के धमाकों से उड़ा दिया था। दंतेवाड़ा बस कांड में 20 जवानों समेत कुल 50 लोग मारे गए थे।
बस्तर क्षेत्र में हिड़मा जैसे माओवादी आतंकियों का कितना भय व्याप्त है। ये मैंने क़रीब से अनुभव किया है। 2024 में गर्मी के महीने में दंतेवाड़ा जाना हुआ। वहां के कुछ सुदूर ग्रामीण इलाकों में गया। एक राजनेता के घर ठहरना तय था। इसलिए उनके यहां गया। जब रास्ते से गुजर रहा था तो उन्होंने कई ऐसी जगहें दिखाई, जहां नक्सलियों ने ख़ूनी खेल रचा था। बीच रास्ते में जवानों की एंबुस लगाकर हत्या की थी। मेले से वापस लौट रहे कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं, स्थानीय लोगों की माओवादी आतंकियों ने क्रूरता के साथ हत्याएं की थी । IED लगाकर वाहन सहित उड़ा दिया था।
आख़िर में जब मैं उनके घर पहुंचा तो थोड़ा अचंभित हो गया। क्योंकि उनके घर में सुरक्षा के लिए कई ज़वान तैनात थे। उनके भाई अगर घर से बाहर निकलेंगे तो उनकी सुरक्षा में ज़वान साथ-साथ चलेंगे। शाम को एक निश्चित समय के बाद वो घर से बाहर कतई नहीं निकल पाएंगे।— जब मैंने उनसे इस संदर्भ में पूछा तो उन्होंने बताया कि – हम हर समय माओवादियों के निशाने पर हैं। साथ ही उन्होंने कई घटनाओं का जिक्र भी किया। जब वो और उनके परिवार के लोग माओवादियों को चकमा देकर सुरक्षित बचे थे।….इस वाकिए को बताने के पीछे का आशय ये है कि — नक्सलवाद-माओवादी आतंकवाद कितना खौफनाक है। इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। जिसने आम जनजीवन को तबाह कर दिया हो। निरपराधों के ख़ून से पूरे बस्तर को लथपथ कर दिया हो। उस नक्सलवाद-माओवाद के प्रति क्या कोई सहानुभूति हो सकती है?
ऐसे में हिड़मा के शव और उसकी मौत को लेकर जो लोग आंसू बहा रहे हैं। उनके मंसूबे क्या किसी से छिपे हैं? उस दुर्दांत माओवादी आतंकी की मौत पर मातमपुर्सी, संवेदनाओं का खेल रचना सबकुछ अर्बन नक्सलियों की स्क्रिप्ट का हिस्सा ही मालूम पड़ रहा है। ये सब इसलिए किया गया ताकि हिड़मा के नाम पर लोगों को बरगलाया जा सके। देश और विदेश में छुपे भारत-विरोधी-जनजातीय समाज के विरोधी — आकाओं को ख़ुश किया जा सके। क्योंकि अर्बन नक्सलियों के लिए यही तो फायदे का धंधा है।
वैसे इन अर्बन नक्सलियों को क्या कभी आपने उन जवानों के नाम पर कभी आंसू नहीं बहाते देखा है जिन्हें हिड़मा और उसके साथियों ने मौत के घाट उतार दिया। जो ‘की-बोर्ड’ के क्रांतिकारी और तथाकथित ‘मुखौटाधारी’ — हिड़मा को हीरो बनाने में जुटे रहे। मानवीय संवेदनाओं भरी स्टोरीज लिखते रहे। भावुकता भरे स्क्रिप्टेड वीडियो क्लिप जनरेट करते रहे। जबरदस्ती माइक ठूंसकर—संवेदनाओं की बयार बहाने में पूरी ताक़त झोंक दी। हिड़मा के अंतिम संस्कार के समय ऐसा चित्रित करते रहे। जैसे हिड़मा कोई महान नायक रहा हो। जबकि उसका पूरा जीवन क्रूर आतंक का पर्याय है। बल्कि छग के राजनांदगांव में इन्हीं माओवादियों से लोहा लेने वाले हॉक फोर्स के बलिदानी — आशीष शर्मा पर इनकी नज़र ही नहीं गई। नरसिंहपुर के बोहानी गांव में उनका भी 20 नवंबर को ही अंतिम संस्कार हुआ।
बात इतनी ही नहीं है..जो हिड़मा की— माँ के नाम पर संवेदनशीलता का प्रशस्ति गान कर रहे थे। वो ये क्यों भूल जाते हैं कि —वो हिड़मा जो अपनी माँ का कभी नहीं हुआ और जिसने माओवाद के ज़हर के चलते पूरे परिवार को कष्ट दिया। अपनी माँ समेत न जाने कितनी माँओं के सपनों को उजाड़ दिया। वो माओवादी आतंकी ‘हिड़मा’ जिसने न जाने कितनी महिलाओं के सुहाग उजाड़े, किसी के भाई, किसी के बेटे को थोक के भाव मौत के घाट उतारा। क्या उन पीड़ितों के लिए इन अर्बन नक्सलियों की आंखों से कभी आंसू बहे थे?
वस्तुत: ये वही ‘अर्बन नक्सली’ हैं जिन्होंने हिड़मा जैसे न जाने कितने लोगों को ‘माओवादी आतंकी’ बनाया। विदेशी आकाओं के इशारों पर भारत की धरती को रक्तरंजित करने के लिए बस्तर के जनजातीय समाज के युवाओं, महिलाओं का ब्रेनवाश किया। उनके हाथों में किताब की बजाय। हथियार थमा दिया। ताकि छत्तीसगढ़ के बस्तर समेत लाल गलियारा कहे जाने वाले हिस्सों में विकास न पहुंच पाए। बस्तर अंचल के लोग सुख-शांति और समृद्धि के साथ न रह सकें।
अब हिड़मा की लाश पर माओवादी गिद्ध अपनी खोई हुई ज़मीन तलाश रहे हैं। हिड़मा जैसे क्रूर दुर्दांत अपराधी के नाम पर घड़ियाली आंसू बहा रहे हैं। क्योंकि उन्हें पता है कि अब न तो जंगल में छिपे नक्सली-माओवादी बचने वाले हैं। न ही मुखौटा लगाकर राष्ट्र घात करने वाले अर्बन नक्सली बचेंगे। बस इसीलिए वो हिड़मा के बहाने अपनी माओवादी आतंकी की ज़मीन को बचाने की अंतिम कोशिश में जुटे हैं।
कुछ ऐसी कर्कश खूनी आवाज़ें भी सुनाई दीं। जो ये कहती नज़र आईं कि – ‘हम हिड़मा की मौत पर कोर्ट में लड़ाई लड़ेंगे’। अचानक से ये कवर फायरिंग का आइडिया कहां से आया भाई? हिड़मा जैसे माओवादी आतंकी, जो देश के कानून और व्यवस्था को ही नहीं मानते रहे हैं। जो भारतीय राज्य के ख़िलाफ़ घोषित तौर पर युद्ध मैदान में उतरे हैं। उनके लिए कोर्ट, कानून और मानवाधिकार कहां से आ गए ? क्या ये अर्बन नक्सली भूल गए कि — इसी 15 अगस्त 2025 को कांकेर में स्वतंत्रता दिवस मनाने। तिरंगा फहराने के विरोध में माओवादियों ने जन अदालत लगाई थी। जनजातीय समाज के मनीष नुरेटी की बर्बरतापूर्ण ढंग से हत्या की थी। तिरंगा तो भारत का राष्ट्रध्वज है न ! …तो जिन माओवादी आतंकियों के लिए तिरंगा फहराना अपराध होता है। वो कोर्ट के दरवाज़े जाने की बातें कह रहे हैं? स्पष्ट है कि जब माओवादी आतंकियों का जंगल से खात्मा होगा। उस समय अर्बन नक्सलियों का बिलबिलाना। मानवता पर ख़तरे का नैरेटिव खड़ा करना। जल-जंगल-जमीन के नाम पर रक्तपात के लिए ब्रेनवाश करना। जनभावनाओं को उकसाना। स्वाभाविक है। आख़िर ये सब कवर फायरिंग के ही तो तौर तरीके हैं न। अगर हिड़मा से इतना ही प्यार था तो उसे सरेंडर करवा देते। जैसे सैकड़ों की संख्या में दूसरे माओवादियों ने आत्मसमर्पण किया है। उसे भी ‘नक्सलवादी आत्मसमर्पण एवं पुनर्वास नीति 2025’, नियद नेल्लानार योजना और ‘पूना मारगेम-पुनर्वास का लाभ मिल जाता। क्योंकि ‘मोदी और साय’ के नेतृत्व वाली डबल इंजन सरकार हर हाल में ‘नक्सलवाद-माओवाद’ के खात्मे के लिए संकल्पित है। आत्मसमर्पण करेंगे तो पुनर्वास मिलेगा। रेड कार्पेट बिछाकर स्वागत किया जाएगा। अन्यथा आतंकियों को नरकवास मिलना तय है। क्योंकि राष्ट्र और समाज की रक्षा के लिए चप्पे-चप्पे पर प्रखर राष्ट्रभक्त ज़वान तैनात हैं। जो लाल आतंक का समूलनाश किए बिना चैन से नहीं बैठने वाले हैं।
जय जोहार..
~कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
( साहित्यकार, स्तंभकार एवं पत्रकार)

