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अत्याचार के विरुद्ध अद्वितीय साहस का प्रतीक गुरु तेगबहादुर

आचार्य ललित मुनि

गुरु तेगबहादुर जी का बलिदान भारतीय इतिहास कभी नहीं भूलेगा, उनका बलिदान अत्याचार के विरुद्ध डटकर मुकाबला करने का प्रेरणा देता है। जब धर्म पर बात आए तो क्रूर शासक से भी समझौता नहीं किया जा सकता चाहे अपने प्राणों का बलिदान ही क्यों न करना पड़े। औरंगजेब ने अपने शासनकाल में हिन्दूओं पर अत्याचार करने में कोई कोर कसर बाकी न रखी। वह मुगल साम्राज्य का छठवाँ सम्राट, अपने धार्मिक कट्टरपन और गैर-मुस्लिमों के प्रति क्रूरता के रूप में जाना जाता है। यह निर्विवाद है कि उसने इस्लाम को बढ़ावा देने और गैर-मुस्लिम समुदायों पर दबाव डालने के लिए कई कठोर कदम उठाए। दूसरी ओर, गुरु तेगबहादुर, सिख धर्म के नवें गुरु, धार्मिक स्वतंत्रता के प्रबल प्रतीक बनकर उभरे, जिन्होंने औरंगज़ेब की क्रूर नीतियों का डटकर विरोध किया और इसके लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया।

औरंगज़ेब का शासनकाल (1658-1707) मुगल साम्राज्य के इतिहास में क्रूरता भरा और अशांत काल था। उनके पूर्ववर्ती सम्राटों, विशेष रूप से अकबर, ने धार्मिक सहिष्णुता और समावेशी शासन की नीति अपनाई थी, जिसने हिंदुओं, जैनियों और अन्य समुदायों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित किए थे। इसके विपरीत, औरंगज़ेब ने इस्लाम को राज्य का केंद्रीय आधार बनाने का प्रयास किया, जिसके परिणामस्वरूप गैर-मुस्लिम समुदायों पर कई क्रूर और दमनकारी नीतियाँ लागू की गईं।

इतिहास के कुछ स्रोतों के अनुसार, उसने 1669 में गैर-मुस्लिमों के स्कूलों और मंदिरों को नष्ट करने के आदेश दिए, विशेष रूप से मुल्तान, थट्टा, और वाराणसी जैसे क्षेत्रों में। न्यू वर्ल्ड एनसाइक्लोपीडिया का दावा है कि उनके शासनकाल में कई प्रमुख हिंदू मंदिरों, जैसे वाराणसी का काशी विश्वनाथ मंदिर और मथुरा का केशवदेव मंदिर, को तोड़ा गया और उनकी जगह मस्जिदें बनाई गईं।

यह मंदिरों का विनाश न केवल धार्मिक स्थलों का अपमान था, बल्कि हिंदू समुदाय की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पहचान पर सीधा हमला था। इसके अलावा, औरंगज़ेब ने ज़िज़िया कर शुरु किया, जो गैर-मुस्लिमों पर लगाया जाने वाला एक भेदभावपूर्ण टैक्स था। इस टैक्स ने आर्थिक रूप से कमजोर हिंदुओं भारी दबाव डाला, जिससे उनके जीवन में असुरक्षा और भय का माहौल व्याप्त हो गया।

औरंगज़ेब की क्रूरता का एक और पहलू उसके द्वारा धर्मांतरण को प्रोत्साहित करने की नीति थी। सिखीविकी में लिखा है कि औरंगज़ेब ने गैर-मुस्लिमों, विशेष रूप से हिंदुओं और सिखों, को इस्लाम स्वीकार करने के लिए दबाव डाला। कश्मीर में, जहाँ कश्मीरी पंडितों को इस्लाम अपनाने या मृत्यु का सामना करने का अल्टीमेटम दिया गया, औरंगज़ेब की नीतियों की क्रूरता स्पष्ट रूप से सामने आती है। इन पंडितों को न केवल अपनी धार्मिक पहचान छोड़ने के लिए मजबूर किया गया, बल्कि उनके परिवारों को भी क्रूर यातनाओं और हिंसा का सामना करना पड़ा।

इसके अतिरिक्त, औरंगज़ेब के शासनकाल में गैर-मुस्लिम समारोहों और उत्सवों पर प्रतिबंध लगाए गए, जैसे होली और दीवाली। उसने हिंदू समुदाय की सांस्कृतिक स्वतंत्रता को लगभग प्रतिबंधित कर दिया। उसके शासनकाल में गैर-मुस्लिमों को उच्च सरकारी पदों से हटाया गया, और उनकी जगह मुस्लिम अधिकारियों को नियुक्त किया गया, जिससे सामाजिक और प्रशासनिक स्तर पर भेदभाव बढ़ा।

उसकी नीतियों ने गैर-मुस्लिम समुदायों में भय, असंतोष और प्रतिरोध की भावना को जन्म दिया। औरंगज़ेब की क्रूरता केवल धार्मिक नीतियों तक सीमित नहीं थी; उसने अपने विरोधियों, चाहे वे हिंदू, सिख, या यहाँ तक कि शिया मुस्लिम हों, के खिलाफ भी कठोर दमनकारी उपाय अपनाए। उदाहरण के लिए, सिख गुरुओं और उनके अनुयायियों के खिलाफ उसकी सैन्य कार्रवाइयाँ, जैसे गुरु हरगोबिंद जी और गुरु तेगबहादुर जी के समय में सिख समुदाय पर हमले, उसकी असहिष्णुता और क्रूरता को और अधिक उजागर करते हैं।

गुरु तेगबहादुर जी का जन्म विक्रम संवत 1678 के लगभग चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि  (1 अप्रैल 1621) को अमृतसर में हुआ था। वे सिख धर्म के छठे गुरु, गुरु हरगोबिंद जी के सबसे छोटे पुत्र थे। बचपन में उन्हें धार्मिक और युद्ध कला का प्रशिक्षण दिया गया। 1665 में, उन्होंने आनंदपुर साहिब की स्थापना की, जो सिख धर्म का एक महत्वपूर्ण केंद्र बना उनका जीवन समाज के लिए एक प्रेरणा था। उन्होंने न केवल आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्रदान किया, बल्कि सामाजिक और धार्मिक उत्पीड़न के खिलाफ भी आवाज उठाई।

1675 में, कश्मीरी पंडितों का एक समूह, जिसका नेतृत्व पंडित कृपा राम ने किया, गुरु तेगबहादुर के पास आनंदपुर साहिब पहुँचा। उन्होंने बताया कि औरंगज़ेब ने उन्हें इस्लाम स्वीकार करने या मृत्यु का सामना करने का आदेश दिया है। यह आदेश औरंगज़ेब की धार्मिक असहिष्णुता और क्रूरता का एक स्पष्ट उदाहरण था, क्योंकि कश्मीरी पंडितों को अपनी सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान को त्यागने के लिए मजबूर किया जा रहा था।

गुरु तेगबहादुर जी ने इस अन्याय का विरोध करने का निर्णय लिया। उन्होंने पंडितों को औरंगज़ेब से कहने को कहा कि यदि वे गुरु को इस्लाम में परिवर्तित कर सकते हैं, तो वे भी धर्म परिवर्तन कर लेंगे। यह एक साहसी कदम था, जो न केवल कश्मीरी पंडितों की रक्षा के लिए था, बल्कि धार्मिक स्वतंत्रता के सिद्धांत को स्थापित करने के लिए भी था।

इसके बाद, गुरु तेगबहादुर जी जब दिल्ली की ओर प्रस्थान कर रहे थे, तो जुलाई 1675 में उन्हें पंजाब के रूपनगर ज़िले के निकट महालपुर नामक स्थान पर मुगलों द्वारा बंदी बना लिया गया। यह गिरफ्तारी औरंगज़ेब के आदेश पर हुई थी। उनके साथ तीन प्रमुख सिख साथी भाई मतीदास, भाई सतिदास और भाई दयाल दास भी गिरफ्तार किए गए। उन्हें पहले सिरहिंद और फिर दिल्ली ले जाया गया, जहाँ उन्हें कैद कर लिया गया।

दिल्ली में, औरंगज़ेब की क्रूरता का सबसे भयावह रूप सामने आया। गुरु तेगबहादुर और उनके तीन शिष्यों भाई मति दास, भाई सति दास, और भाई दयाला दास को अमानवीय यातनाएँ दी गईं। उन्हें इस्लाम स्वीकार करने या चमत्कार दिखाने के लिए कहा गया, लेकिन उन्होंने अपनी आस्था और सिद्धांतों पर अडिग रहते हुए इनकार कर दिया। 9 नवंबर 1675 को भाई दयाला दास को उबलते पानी के एक विशाल कड़ाह में डालकर क्रूरता से मार दिया गया। यह यातना इतनी भयानक थी कि यह औरंगज़ेब के शासन की क्रूरता का प्रतीक बन गई।

11 नवंबर 1675 को भाई मति दास को जिंदा आरे से दो टुकड़ों में चीर दिया गया, एक ऐसी सजा जो उस समय की सबसे दर्दनाक और क्रूर मानी जाती थी। उसी दिन, भाई सति दास को कपास में लपेटकर जिंदा जला दिया गया, जिससे उनकी मृत्यु से पहले उन्हें असहनीय पीड़ा का सामना करना पड़ा।

अंततः, 24 नवंबर 1675 को गुरु तेगबहादुर जी को चाँदनी चौक, दिल्ली में सार्वजनिक रूप से सिर काटकर शहीद कर दिया गया। यह शहादत न केवल औरंगज़ेब की धार्मिक असहिष्णुता का परिणाम थी, बल्कि उसकी क्रूरता और सत्ता के दुरुपयोग का भी प्रमाण थी। उनकी शहादत का स्थल आज गुरुद्वारा सीस गंज साहिब के रूप में जाना जाता है, जो धार्मिक स्वतंत्रता और बलिदान का प्रतीक है।

गुरु तेगबहादुर जी की शहादत ने सिख समुदाय को गहराई से प्रभावित किया। उनकी शहादत ने सिखों को अन्याय और धार्मिक उत्पीड़न के खिलाफ एकजुट होने के लिए प्रेरित किया। उन्हें “हिंद दी चदर” कहा जाता है, उनकी शहादत हर साल 24 नवंबर को शहीदी दिवस के रूप में मनाई जाती है, जो भारतीयों लिए प्रेरणा का स्रोत है।

औरंगज़ेब की धार्मिक नीतियों और उसकी क्रूरता ने भारत में धार्मिक तनाव को बढ़ाया, लेकिन गुरु तेगबहादुर का साहस और बलिदान धार्मिक स्वतंत्रता के लिए एक अमर प्रेरणा बन गया। उनकी शहादत ने न केवल सिख समुदाय को मजबूत किया, बल्कि यह हिन्दूओं के लिए धार्मिक सहिष्णुता और मानवाधिकारों की रक्षा का प्रतीक बन गई। गुरु तेगबहादुर जी का बलिदान न केवल सिख इतिहास, बल्कि भारतीय इतिहास की भी अमूल्य धरोहर है। उन्होंने यह सन्देश दिया कि धार्मिक स्वतंत्रता मनुष्य का मूल अधिकार है, और उसकी रक्षा के लिए प्राणों की आहुति देना भी धर्म का कार्य है। उनके बलिदान को शत शत नमन।

संदर्भ

  1. बचित्तर नाटक (गुरु गोबिन्द सिंह जी द्वारा रचित): “धर्म हेत साका जिन किया। सीस दिया पर सिर न दिया।”
  2. सूरज प्रकाश (कवि संतोक सिंह): गुरु जी की गिरफ्तारी और यातना का विस्तृत वर्णन।
  3. तवारीख गुरु खालसा (ज्ञान सिंह): गिरफ्तारी और बलिदान की घटनाओं का क्रमबद्ध विवरण।
  4. A History of the Sikhs (Khushwant Singh): आधुनिक इतिहासकार द्वारा प्रामाणिक विवरण।
  5. Encyclopaedia of Sikhism (Punjabi University, Patiala): तिथि, स्थान और घटना की पुष्टि।
  6. Guru Tegh Bahadur: Martyr and Teacher (Fauja Singh & Kirpal Singh): विस्तृत शोधपरक विवेचन।

One thought on “अत्याचार के विरुद्ध अद्वितीय साहस का प्रतीक गुरु तेगबहादुर

  • April 18, 2025 at 08:35
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    शत शत नमन🙏🙏🙏

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