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हिन्द की चादर गुरु तेग बहादुर

प्रतिमा शरण

मानवीय मूल्य और आदर्श की रक्षा करने वाले धर्म के लिए अपने प्राणों का बलिदान करने वालों में सिक्खों के गुरु तेग बहादुर साहिब का स्थान जनमानस में अत्यंत महत्वपूर्ण है। गुरु तेग बहादुर जी सिक्खों के एक प्रभावशाली गुरु के रूप में जाने जाते है।

इनका जन्म वैशाख कृष्ण पंचमी 21 अप्रैल 1621 को पंजाब के अमृतसर में सिखों के छठे गुरु हरगोबिंद साहिब और माता नानकी के यहाँ हुआ था। इनके बचपन का नाम त्यागमल था। ऐसा कहा जाता है कि गुरु तेग बहादुर बचपन से ही निडर और बहुत धार्मिक थे और ये मानवता को किसी भी जाति या धर्म से ऊपर मानते थे।

गुरु तेग बहादुर के साहस को लेकर बताया जाता है कि एक बार वह अपने पिता गुरु हरगोबिंद साहिब के साथ करतारपुर की लड़ाई के बाद किरतपुर जा रहे थे। तब उनकी उम्र महज 13 साल की थी। फगवाड़ा के पास पलाही गांव में मुगलों के फौज की एक टुकड़ी ने उनका पीछा करते हुए अचानक हमला कर दिया। इस युद्ध में पिता गुरु हरगोबिंद साहिब के साथ गुरु तेग ने भी मुगलों से दो-दो हाथ किए। छोटी सी उम्र में तेग के साहस और जज्बा ने उन्हें त्याग मल से तेग बहादुर बना दिया।

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सिखों के आठवें गुरु के देहांत के पश्चात गुरु तेग बहादुर जी ने 1665 से 1675 तक गद्दी संभाली। हिन्द की चादर कहे जाने गुरु तेग बहादुर जी ने लोक कल्याण और धर्म के प्रचार और प्रसार के लिए आनंदपुर से प्रयाग, बनारस, पटना, असम आदि क्षेत्रों में भर्मण किया और लोगो को अध्यात्म का ज्ञान दिया इसी के साथ सामाजिक, आर्थिक स्तर पर अनेकों कार्य किये।

अपने प्रचार उन्होने समाज की रूढ़ियों और अन्धविश्वास का खंडन करके जनकल्याण के लिए नए आदर्श स्थापित किये। लोगों की सेवा के लिए कुएँ खुदवाए और धर्मशालाएं बनाकर परोपकारी कार्य किये। गुरु तेग बहादुर के समय मुग़ल शासक औरंगजेब का शासन था उसके शासन काल में जबरन हिन्दुओं को धर्म परिवर्तन किया जा रहा था कई कश्मीरी पंडित इसके शिकार हुए उन्होंने गुरु तेग बहादुर की शरण ली।

धर्म की रक्षा के लिए वह मुगलों के सामने डटकर खडे हो गए। औरंगज़ेब जब को गुरु तेग बहादुर की धर्म के प्रति कट्टरता का पता चला तो वह बौखला गया और उन्हें ने को इस्लाम धर्म स्वीकार करने को कहा पर गुरु जी ने कहा कि वो सर कटा सकते है परन्तु केश नहीं।

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उनकी इसी बात पर औरंगज़ेब ने फतवा जारी करके उनका सर धड़ से अलग कर दिया गया पर गुरु साहिब ने उफ़ तक नहीं की। दिल्ली में गुरुद्वारा शीश गंज साहिब और गुरुद्वारा रकाब गंज साहिब (जहाँ उनका अंतिम संस्कार किया गया) उनके बलिदान की याद दिलाते है। उनके इस अद्वितीय बलिदान के विषय में गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा कहा गया है –

तिलक जंजू राखा प्रभ ताका॥
कीनो बड़ो कालू माही साका॥
साधन हेति इति जिनि करी॥
सीसु दइया पुरु सी न उचरी॥
धरम हेत साका जिनि कीआ॥
सीसु दिया पुरु सिररु न दीआ

(श्री गुरु तेग बहादुर ने तिलक और जनेऊ की अपने प्राणों से रक्षा की। उनकी शहीदी कलयुग की एक अद्भुत घटना है। साधु-संतों को बचाने के लिए उन्होंने अपने शीश का बलिदान दिए बिना एक आह के कर दिया। धर्म को उभारने के लिए उन्होंने मृत्यु स्वीकार कर ली। श्री गुरु तेग बहादुरजी ने शीश का परित्याग किया लेकिन धर्म का परित्याग नहीं किया।

बिचित्र नाटक – गुरु गोविंद ) गुरुजी का बलिदान न केवल धर्म पालन के लिए नहीं अपितु समस्त मानवीय सांस्कृतिक विरासत की रक्षा के लिए बलिदान दिया था। धर्म उनके लिए सांस्कृतिक मूल्यों और जीवन विधान का नाम था। इसलिए धर्म के सत्य शाश्वत मूल्यों के लिए उनका बलि चढ़ जाना वस्तुतः सांस्कृतिक विरासत और इच्छित जीवन विधान के पक्ष में एक परम साहसिक अभियान था।

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आततायी शासक की धर्म विरोधी और वैचारिक स्वतन्त्रता का दमन करने वाली नीतियों के विरुद्ध गुरु तेग बहादुरजी का बलिदान एक अभूतपूर्व ऐतिहासिक घटना थी। पशौरा सिंह कहते हैं कि, अगर गुरु अर्जन की शहादत ने सिख पन्थ को एक साथ लाने में मदद की थी, तो गुरु तेग बहादुर की शहादत ने मानवाधिकारों की सुरक्षा को सिख पहचान बनाने में मदद की।

विल्फ्रेड स्मिथ ने कहा है, “नौवें गुरु को बलपूर्वक धर्मान्तरित करने के प्रयास ने स्पष्ट रूप से शहीद के नौ वर्षीय बेटे, गोबिन्द पर एक अमिट छाप डाला, जिन्होने धीरे-धीरे उसके विरुद्ध सिख समूहों को इकट्ठा करके इसका प्रतिकार किया। इसने खालसा पहचान को जन्म दिया। गुरु तेग बहादुर जी निर्भय आचरण, धर्म के प्रति अडिगता, मानवीय गुणों के कारण उनका नाम सदैव श्रद्धा से लिया जाता रहेगा। ऐसे युगपुरुष को उनकी जयंती पर कोटि कोटि नमन।