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भारत की आर्थिक प्रगति और हिंदू सनातन संस्कृति की भूमिका

प्रहलाद सबनानी

किसी भी देश में सत्ता का व्यवहार उस देश के समाज की इच्छा के अनुरूप ही होने के प्रयास होते रहे हैं। जब जब सत्ता द्वारा समाज की इच्छा के विपरीत निर्णय लिए गए हैं अथवा समाज के विचारों का आदर सत्ता द्वारा नहीं किया गया है तब तब उस देश में सत्ता परिवर्तन होता हुआ दिखाई दिया है। लोकतंत्र में तो सत्ता की स्थापना समाज के द्वारा ही की जाती रही है। साथ ही, किसी भी देश की आर्थिक प्रगति के लिए देश में शांति बनाए रखना सबसे पहली आवश्यकता मानी जाती है और देश में शांति स्थापित करने के लिए भी समाज का विशेष योगदान रहता आया है। समाज में विभिन्न मत पंथ मानने वाले नागरिक ही यदि आपस में सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाएंगे तो देश में शांति किस प्रकार स्थापित की जा सकेगी।

“स्व” और राष्ट्रहित की जागृति
भारत के नागरिकों में आज “स्व” के भाव के प्रति जागृति दिखाई देने लगी है और वे “भारत के हित सर्वोपरि हैं” की चर्चा करने लगे हैं। परंतु, भारत में तंत्र अभी भी मां भारती के प्रति समर्पित भाव से कार्य करता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है, जिससे कभी कभी असामाजिक तत्व अपने भारत विरोधी एजेंडा पर कार्य करते हुए दिखाई दे जाते हैं और भारत के विभिन्न समाजों में अशांति फैलाने में सफल हो जाते हैं।

अतः समाज के विभिन्न वर्गों के बीच यह जागरूकता फैलाने की आज महती आवश्यकता है कि भारत आज आर्थिक प्रगति के जिस मार्ग पर तेजी से आगे बढ़ रहा है ऐसे समय में देश में शांति स्थापित करने की भरपूर आवश्यकता है। क्योंकि, देश में यदि शांति नहीं रह पाती है तो विदेशी संस्थान भारत में अपनी विनिर्माण इकाईयों को स्थापित करने के प्रति हत्तोत्साहित होंगे और देश की आर्थिक प्रगति विपरीत रूप से प्रभावित होगी।

ऐतिहासिक दृष्टिकोण और विदेशी ताकतें
भारत पिछले लगभग 2000 वर्षों के खंडकाल में से अधिकतम समय (लगभग 250 वर्षों के खंडकाल को छोड़कर) पूरे विश्व में एक आर्थिक ताकत के रूप में अपना स्थान बनाने में सफल रहा है और इसे सोने की चिड़िया कहा जाता रहा है। वर्ष 712 ईसवी में भारत पर हुए आक्रांताओं के आक्रमण के बाद भी भारत की आर्थिक प्रगति पर कोई बहुत फर्क नहीं पड़ा था। परंतु, वर्ष 1750 ईसवी में अंग्रेजों (ईस्ट इंडिया कम्पनी के रूप में) के भारत में आने के बाद से भारत की आर्थिक प्रगति को जैसे ग्रहण ही लग गया था। आक्रांताओं एवं अंग्रेंजों ने न केवल भारत को जमकर लूटा बल्कि भारत की संस्कृति पर भी बहुत गहरी चोट की थी और भारत के नागरिक जैसे अपनी जड़ों से कटकर रहने लगे थे।

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आक्रांताओं एवं अंग्रेजों के पूर्व भी भारत पर आक्रमण हुए थे, शक, हूण, कुषाण आदि ने भी भारत पर आक्रमण किया था परंतु लगभग 250/300 वर्षों तक भारत पर शासन करने के उपरांत उन्होंने अपने आपको भारतीय सनातन संस्कृति में ही समाहित कर लिया था। इसके ठीक विपरीत आक्रांताओं एवं अंग्रेजों का भारत पर आक्रमण का उद्देश्य भारत की लूट खसोट करने के साथ ही अपने धर्म एवं संस्कृति का प्रचार प्रसार करना भी था।

आक्रांताओं ने जोर जबरदस्ती एवं मार काट मचाकर भारत के मूल नागरिकों का धर्म परिवर्तन कर मुसलमान बनाया तो अंग्रेजों ने लालच का सहारा लेकर एवं दबाव बनाकर भारतीय नागरिकों को ईसाई बनाया। इन्होंने भारतीय नागरिकों के मन में सनातन हिंदू संस्कृति के प्रति घृणा पैदा की एवं अपनी पश्चिमी सभ्यता से ओतप्रोत संस्कृति को बेहतर बताया।

अंग्रेज भारतीय नागरिकों के मन में ऐसा भाव पैदा करने में सफल रहे कि पश्चिम से चला कोई भी विचार भारतीय सनातन संस्कृति के विचार से बेहतर है। जबकि आज इस बात के पर्याप्त प्रमाण मिल रहे हैं कि पश्चिम द्वारा किए गए लगभग समस्त आविष्कारों के मूल में भारतीय सनातन संस्कृति की ही छाप दिखाई देती है और उन्होंने यह विचार भारतीय वेद, पुराण एवं उपनिषदों से ही लिए गए प्रतीत होते हैं।

हिंदू सनातन संस्कृति का महत्व
कुछ विदेशी ताकतों द्वारा भारत में आज एक बार पुनः इस प्रकार के प्रयास किए जा रहे हैं कि हिंदू सनातन संस्कृति को मानने वाले हिंदू समाज को किस प्रकार आपस में लड़ाकर छिन्न भिन्न किया जाय। आज भारत में एक ऐसा विमर्श खड़ा करने का प्रयास हो रहा हैं कि देश में हिंदू हैं ही नहीं बल्कि सिक्ख हैं, दलित हैं, राजपूत हैं, जैन हैं आदि आदि।

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देश में जातियों के आधार पर जनसंख्या की मांग की जा रही है ताकि देश में प्रदान की जाने वाली समस्त सुविधाओं को हिंदू समाज की विभिन्न जातियों की जनसंख्या के आधार पर वितरित किया जा सके। जिससे अंततः देश में विभिन्न जातियों के बीच झगड़े पैदा हों और इस प्रकार भारत को एक बार पुनः गुलाम बनाए जाने में आसानी हो सके।

विदेशी ताकतों द्वारा आज भारत के एकात्म समाज को टूटा फूटा समाज बनाए जाने के प्रयास किए जा रहे हैं। प्राचीन भारत में वनवासी थे, ग्रामवासी थे, नगरवासी थे, इस प्रकार त्रिस्तरीय समाज था। भारतीय समाज विभिन्न जातियों में बंटा हुआ था ही नहीं। यह अंग्रेजों का षड्यंत्र था कि भारत में उन्होंने समाज को बांटो और राज करो की नीति अपनाई थी।

अन्यथा हिंदू समाज तो भारत में सदैव से एकात्म भाव से रहता आया है। किसी भी देश में क्रांति सत्ता से नहीं आती है बल्कि समाज द्वारा ही क्रांति की जाती है। जिस प्रकार का समाज होगा उसी प्रकार की सत्ता भी देश में स्थापित होगी। अतः किसी भी देश को विकास की राह पर जाने से रोकने के लिए उस देश की संस्कृति को ही समाप्त कर दो। ऐसा प्रयास आज पुनः विदेशी ताकतों द्वारा भारत में किया जा रहा है।

परंतु, अब एक बार पुनः भारत एक ऐसे खंडकाल में प्रवेश करता हुआ दिखाई दे रहा है जिसमें आगे आने वाले समय में विशेष रूप से आर्थिक क्षेत्र में भारत की तूती पूरे विश्व में बोलती हुई दिखाई देगी। ऐसे में कुछ देशों द्वारा भारत की आर्थिक प्रगति को विपरीत रूप से प्रभावित करने के लिए कई प्रकार की बाधाएं खड़ी किए जाने के प्रयास किए जा रहे हैं।

परंतु, देश में निवासरत लगभग 80 प्रतिशत आबादी हिंदू सनातन संस्कृति की अनुयायी है एवं हिंदू समाज में व्याप्त लगभग समस्त जातियों, मत, पंथों को मानने वाले नागरिकों में त्याग, तपस्या, देश प्रेम का भाव, स्व-समर्पण का भाव कूट कूट कर भरा है। इसी कारण से यह कहा भी जाता है कि केवल हिंदू जीवन दर्शन ही आज पूरे विश्व में शांति स्थापित करने में मददगार बन सकता है।

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भारतीय जीवन प्रणाली अपने आप में सर्व समावेशक है। हिंदू सनातन धर्म का अनुपालन करने वाले नागरिक पशु, पक्षी, वनस्पति, पहाड़, नदियों आदि में भी ईश तत्त्व का वास मानते हैं और उनकी पूजा भी करते हैं। हिंदू सनातन संस्कृति के संस्कारों में पला बढ़ा नागरिक अपने विचारों में सहिष्णु होता है तथा सभी जीवों में प्रभु का वास देखता है इसलिए वह हिंसा में बिल्कुल विश्वास नहीं करता है।

इसी के चलते यह कहा जा रहा है कि विश्व के कई देशों में लगातार बढ़ रही हिंसा को नियंत्रित करने में हिंदू सनातन संस्कृति के अनुयायी ही सहायक हो सकते हैं। और फिर, हिंदू जीवन दर्शन का अंतिम ध्येय तो मोक्ष को प्राप्त करना है। इस अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने के उद्देश्य से भी हिंदू सनातन संस्कृति के अनुयायी कोई भी काम आत्मविचार, मनन एवं चिंतन करने के उपरांत ही करता है। इस प्रकार, इनसे किसी भी जीव को दुखाने वाला कोई गल्त काम हो ही नहीं सकता है।

वैश्विक संदर्भ और शांति की आवश्यकता
विश्व के कई देशों के बीच आज आपस में कई प्रकार की समस्याएं व्याप्त हैं, जिनके चलते वे आपस में लड़ रहे हैं एवं अपने नागरिकों को खो रहे हैं। यूक्रेन – रूस के बीच युद्ध एवं हमास – इजराईल के बीच युद्ध आज इस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण है। बांग्लादेश में अशांति व्याप्त हो गई है। इसी प्रकार ब्रिटेन, फ्रान्स, जर्मनी, अमेरिका जैसे शांतिप्रिय देश भी आज विभिन्न प्रकार की समस्याओं से ग्रसित होते दिखाई दे रहे हैं। इसलिए, शांति स्थापित करने एवं आर्थिक विकास को गतिशील बनाए रखने के उद्देश्य से आज हिंदू सनातन संस्कृति के संस्कारों को आज पूरे विश्व में फैलाने की महती आवश्यकता है।

लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं।