डॉ. बलदेव होने का अर्थ – जन्म दिवस विशेष
“दरअसल कविता आंख है , जिसमें
भीतर की दुनिया / बाहर दिखायी देती है
दरअसल कविता / हथियार है / जिसमें
बाहर की लडाई / भीतर लडी जाती है
दरअसल कविता क्या है ? कविता है
या आंख या हथियार / दरअसल
कविता / एक नन्हीं गौरैया है ,
जिसकी चोंच में सारा आकाश है ।”
जैसी कालजयी पंक्तियां एवं “सिसरिंगा की घाटियां ” सहित कुल 8 कविताएं ,जब “प्रस्तुति “के अंतर्गत मध्यप्रदेश साहित्य परिषद की पत्रिका “साक्षात्कार “के फरवरी 1979 के अंक में प्रकाशित हुईं ,तो हिंदी जगत में तहलका – सा मच गया। राजेंद्र अवस्थी ने” कादंबिनी “के अपने संपादकीय में कविता की इस सार्थक परिभाषा को अपनी अनुशंसा के साथ उद्धरित किया। इसके पूर्व अज्ञेय द्वारा संपादित ‘नया प्रतीक’ के जुलाई 1974 के अंक में छपी उनकी कविता “यह सांवला दिन” भी बेहद चर्चित हुई थी । उन दिनों नेमीचंद जैन द्वारा लिखी गई आलोचना कई दृष्टियों से विचारणीय रही । इसके अतिरिक्त, धर्मयुग, दिनमान ,आजकल ,वागर्थ ,अक्षरा ,दृष्टि ,वर्तमान ,स्मरण ,आज ,जनसत्ता जनधर्म,मध्यप्रदेश संदेश,नवभारत टाइम्स , हिंदुस्तान टाइम्स आदि अनेक प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं में इनकी रचनाएं प्रकाशित होती रहीं ।
छायावाद प्रवर्तक पं. मुकुटधर पांडेय के प्रदेय के पुनर्मूल्यांकन की सुदृढ़ पृष्ठभूमि तैयार करने का श्रेय भी डा. बलदेव के खाते में जाता है । ध्यातव्य है कि क्षेमचंद्र “सुमन” ने अपनी कृति “दिवंगत हिंदी सेवी ” में पं. मुकुटधर पांडेय को स्मृतिशेष मानकर समादृत कर दिया था ,जबकि उन दिनों पं.मुकुटधर पांडेय जी जीवित थे । डा. बलदेव की दृष्टि जब उस कृति पर पडी , तो डा. बलदेव अत्यंत क्षुब्ध , परिवेदित और आहत हुए , उन्होंने इसका त्वरित प्रतिवाद भी किया । फिर तो डा. बलदेव देश की विभिन्न लायब्रेरियों में स्वयं जा-जाकर पं.मुकुटधर पांडेय जी की प्रकाशित दुर्लभ रचनाओं को खोज-खोजकर संग्रहित – संकलित करने लगे । यही नहीं उन्होंने अपनी भविष्य निधि की राशि से पं. मुकुटधर पांडेय जी की कविताओं को “विश्वबोध “शीर्षक से तथा उनके निबंधों को” छायावाद और अन्य निबंध” शीर्षक से संपादित कर प्रकाशित कराया ।
तात्पर्य यह कि डा. बलदेव ने पं.मुकुटधर पांडेय को पुनर्प्रतिष्ठित करने के भगीरथ प्रयास में स्वयं को झोंक दिया। डा. बलदेव ने अपने अकाट्य,अमोघ और प्रामाणिक तर्कों से यह सिद्ध भी कर दिया कि छायावाद प्रवर्तक अभिहित किए जाने के असल हकदार पं. मुकुटधर पांडेय ही हैं। पं.मुकुटधर पांडेय डा.बलदेव के प्रयासों से अभिभूत थे , वे डा.बलदेव को अपना मानस पुत्र मानते थे। डा.बलदेव के अध्यवसाय का ही परिणाम है कि हिंदी जगत में “छायावाद का पुनर्मूल्यांकन “संबंधी सार्थक पहल हुई और पं.मुकुटधर पांडेय के प्रदेय के निष्पक्ष पुनर्मूल्यांकन का मार्ग प्रशस्त हुआ और उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्मश्री की उपाधि से विभूषित किया गया। वहीं पं रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर द्वारा उन्हें मानद् डी. लिट् की उपाधि प्रदान की गई। अनेक संस्थाओं द्वारा उनका सारस्वत सम्मान किया गया।
छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक राजधानी रायगढ के सांस्कृतिक वैभवशाली अतीत को विश्व मानचित्र में रेखांकित करने का बीडा भी डा. बलदेव ने उठाया । इस दृष्टि से डा.बलदेव की कृति ” रायगढ का सांस्कृतिक वैभव ” अत्यंत खोजपूर्ण और अभूतपूर्व सृजन है । यही नहीं लखनऊ और जयपुर घराने की तर्ज पर “कथक रायगढ घराना “की प्रतिष्ठापना का अप्रतिम कार्य भी डा. बलदेव की समर्थ लेखनी से ही संभव हुआ है । संगीत कला के क्षेत्र में अद्वितीय मौलिक कृति ” कथक रायगढ घराना ” को शीर्षक बदलकर ” रायगढ में कथक ” नाम से प्रकाशित तो किया गया ,लेकिन नृत्याचार्य कार्तिकराम के साथ सह लेखक के रूप में डा.बलदेव का नाम एक घृणित षडयंत्र के तहत गायब कर दिया गया । जबकि पूर्व में ही संगीत पत्रिका में डा. बलदेव कथक रायगढ घराना के बारे में सारगर्भित रूप में लिख चुके थे । इस विवाद ने तूल पकड लिया। अंततः “दिनमान” में सतीश जायसवाल (6-12 फरवरी 1983) की रपट और साप्ताहिक “जांजगीर ज्योति “में इस खाकसार के लेख ” रायगढ में कथक : कौन असली लेखक ” से मूल लेखन का यथार्थ उद्घाटित हो ही गया । साप्ताहिक “दिनमान” में स्वयं डा.बलदेव ने भी धारदार ढंग से लिखा था ।
छत्तीसगढ़ी सेवक ,मयारू माटी और छत्तीसगढ़ी लोकाक्षर जैसी छत्तीसगढ़ी पत्र – पत्रिकाओं में डा. बलदेव के छत्तीसगढी कवियों पर लिखे गए आलोचनात्मक लेखों ने तो चमत्कृत ही कर दिया। यही कारण हैं कि इन्हें छतीसगढ़ी का रामचंद्र शुक्ल कहा जाने लगा । इन्हें छत्तीसगढ़ी साहित्य का ” धारनखंभा ” भी कहा जाने लगा है।
हिंदी और छत्तीसगढ़ी में अब तक डा. बलदेव की 15 कृतियाँ प्रकाशित होकर चर्चित हुई हैं लेकिन डा.बलदेव की बहुत कुछ रचनाएं और पांडुलिपियां अभी भी प्रकाशन की बाट जोह रही हैं ।
यह सुखद प्रसंग है कि वंदना जायसवाल पी-एच.डी.की उपाधि हेतु डा.बलदेव के सृजन संसार पर अपना शोध प्रबंध प्रस्तुत कर चुकी हैं, वहीं विमला नायक संप्रति शोधरत हैं। निस्संदेह इन दुर्लभ शोध प्रबंधों के प्रकाश में आने से डा.बलदेव के अवदान का सम्यक मूल्यांकन हो सकेगा
