छत्तीसगढ़ी लोक परम्परा में देवारी की पचरंगी छटा
प्रकृति ने अपने कोमल हाथों से बड़ी सजगता के साथ छत्तीसगढ़ को सँवारा है । तभी तो प्राकृतिक और भौगोलिक दृष्टि से छत्तीसगढ़ का अप्रतिम सौंदर्य सर्वत्र बिखरा हुआ है। यहाँ के रहन-सहन, आचार-विचार के साथ ही यहाँ के तीज-त्यौहार भी विविध रंगी हैं। इन्द्र धनुष की तरह सजीले ये तीज-त्यौहार यहाँ की बहुरंगी संस्कृति को रूपायित करते हैं। यूँ तो दीपावली का त्यौहार सम्पूर्ण भारत में प्रदेश व अंचल की अपनी विशिष्टताओं के साथ मनाया जाता है। किन्तु छत्तीसगढ़ में दीपावली का पर्व निराले अंदाज में मनाया जाता है।
छत्तीसगढ़ में दीपावली को ‘देवारी’ कहकर संबोधित किया जाता है। दीपावली को मनाने के पीछे कई कारण हैं। उनमें एक महत्वपूर्ण यह है कि श्री राम को जब चौदह वर्ष का बनवास मिला था, तब रावण ने सीता जी का हरण कर लिया था। श्रीराम ने वानर सेना का सहयोग लेकर लंका पर चढ़ाई की थी। फलस्वरूप रावण के साथ ही राक्षस कुल को नष्ट कर श्री राम ने विजय श्री प्राप्त की थी। जब रामजी सीता व अपने भाई लक्ष्मण के साथ अयोध्या लौटे थे, तब अयोध्या वासियों ने दीप जलाकर श्रीराम का स्वागत किया था। कहा जाता है कि इसी परम्परा का निर्वाह आज भी किया जा रहा है। लोग आज भी अपने घरों आंगन-द्वार व खेत-खार में माटी के दीप जलाकर आलोकमय जीवन का मंगल कामना करते है।
अरअसल ‘दीपावली’ ज्योति का पर्व है। वह ज्योति जिसमें लोक की मंगल कामना समाहित है सुख और समृद्धि के लिए। यह उत्साह और उमंग का पर्व है। भारत के अन्य अंचलों की भाँति दीपावली अर्थात ‘देवारी’ छत्तीसगढ़ में लोक विशिष्टताओं के साथ मनाई जाती है। देवारी महापर्व है, इसमें पर्व ही पर्व हैं। दशहरा बीतने के बाद खेतों की हरियाली धानी अर्थात स्वर्णिम रंग बदल जाती है। जिधर देखो उधर धान की लहलहाती फसलें आखों मे सुकुन भरती हैं। किसान और बनिहार सभी उल्लसित दिखाई पड़ते है। क्योंकि घर में अन्नपूर्णा (लक्ष्मी) जो आने वाली है। वर्षा बीतने के बाद घरो की साफ-सफाई शुरू हो जाती है। कार्तिक माह के आगमन के साथ घर की मुहाटी में अकेला ही सही माटी का दीया टिमटिमाने लगता है, तुलसी चौरा प्रकाश की इबारतें लिखता है। तुलसी चौरे के पास ऊँचा बाँस गाड़कर उस मे अगासदिया (आकाश दीप) लटकाया जाता है। राऊतों (यादव) का “खोड़हरदेव” माईघर से निकलकर तुलसी चौरा में स्थापित हो जाता है। यदा-कदा राऊत चरवाहों के ओठों पर राऊत दोहे बादलों की तरह घुमड़ने लगते हैं। राऊत की लाठी बिजली की तरह अठखेलियाँ करने लगती हैं। ये सब सूचक हैं देवारी के शुभागमन के ।
छत्तीसगढ़ मे देवारी मनाने की अपनी अलग ही लोक परम्परा है। जहाँ नागर जीवन में दीपावली ‘लक्ष्मी पूजन’ कर एक दिन मनाई जाती है, वहीं छत्तीसगढ़ी लोकजीवन मे देवारी पाँच दिनों तक प्रत्येक दिन अलग-अलग रूप में श्रृंखलाव मनाई जाती है। इसलिए छत्तीसगढ़ के लिए देवारी पर्वों का महापर्व है। इस समय नारी कंठों से ‘सुवागीत’ की स्वरलहरी झरने की तरह झरने लगती है। आइए छत्तीसगढ़ में देवारी की पचरंगी छटा का अवलोकन करे ।
धनतेरस : दीपावली का प्रमुख पर्व कार्तिक अमावस्या को मनाया जाता है, किन्तु इसकी शुरुआत तेरस अर्थात त्रयो दसी तिथि से हो जाती है। इस दिन ग्रामीण जन अपने अपने घरों के मुख्य द्वार के सामने संध्या के समय आटे या काली मिट्टी के तेरह दीप जलाकर पूजा-प्रार्थना करते हैं। दीपों के उज्जवल प्रकाश से मुख्य द्वार के साथ ही अन्तार्मा भी आलोकित होती है। खुशियों की लड़ियाँ बिखरने लगती हैं। धनतेरस को खरीदी के लिए शुभ माना जाता है। इस दिन लोग अपनी शक्ति के अनुसार सोने-चांदी बर्तन या घरेलू उपयोग की वस्तुएं खरीद कर मंगल मनाते है। जीवन में सुख-समृद्धि की मंगल जीवन मे बड़ा महत्व है
नरक चौदस : धनतेरस की तरह नरक चौदस का भी अपना विशिष्ट महत्व है। इस दिन संध्या के समय घर के प्रवेशद्वार पर ग्रामीण जनों के द्वारा गोबर के चौदह दीप जलाकर ‘यम’ को प्रसन्न किया जाता है। इस लिए इसे ‘यमदिया’ भी कहा जाता है। इस समय खेतों में माईधान के दूध भरने लगता है तो हरहुना धान की बाली पककर झूमने लगती है। झूमते धान की बालियों को देखकर किसान का भी मन झूमने लगता है। यही तो उसके खून-पसीने की कमाई है। उसकी कमाई अब बाली के रुप में उसकी आँखों मे झूल रही है। दीपों के प्रकाश से जीवन का कोना-कोना प्रकाशवान होने को आतुर है ।
सुरहुत्ती : और अब वह दिन भी आ जाता है जिसका लोगों को इंतजार रहता है। वह दिन है दीपावली का प्रमुख पर्व ‘लक्ष्मीपूजन ‘जिसे छत्तीसगढ़ मे ‘सुरहुत्ती’ के नाम से जाना जाता है। सुरहुत्ती के दिन लिपे-पुते घर- आंगन के साथ ही गलीखोर, खेतखार, नदी-तालाब, देवालयों और दैनिक जीवन में उपयोग आने वाली प्रत्येक वस्तु यथा मूसर-बाहना, जाता, हल इत्यादि में दीप जलाए जाते हैं। सुरहुत्ती के दिन बच्चों मे विशेष उत्साह होता है। प्राय: घर के सभी सदस्यों के लिए नए कपड़े बनवाए जाते हैं जिसे पहनकर लोग ‘लक्ष्मी देवी’ की पूजा करते हैं। पटाखे फोड़कर छोटे-बड़े सभी खुशियाँ मनाते हैं। लक्ष्मी पूजा के साथ दरवाजों के आजू-बाजू शुभ लाभ का अंकन कर स्वास्तिक लिखा जाता है ।
किसान के जीवन में सुरहुत्ती का विशेष महत्व है। शाम को किसान अपने खेतों में जाकर माटी के दीप जलाता है। लहलहाते खेतों को देखकर उसका मन बाग-बाग हो जाता है। लहलहाती बालियों को प्रणाम करता है । सबके हित की मंगल कामना करता है। लक्ष्मी पूजन के समय ‘माटी की पुतली’ जिसे ग्वालिन कहा जाता है के शीर्ष पर बनी दीप पंक्ति के आलोक से द्वार आँगन प्रकाशवान हो जाता है। पास-पड़ोस घरों मे दीप रखे जाते है। यह दीप से दीप जलाने का त्यौहार है। यह आपस में प्यार और दुलार बाँटने का त्यौहार है। तुलसी चौरा में रखे दीपों का अम्बार सबको अंधकार से प्रकाश की ओर चलने का संदेश देता है। ‘सुरहुत्ती’ प्रकाश का महापर्व है। खुद को प्रकाशवान बनाना और दूसरों को प्रकाश देकर जग कल्याण के पथ पर बढ़ना ही सुरहुत्ती का संदेश है।
सुवानृत्य : देवारी के महापर्व में घर की लक्ष्मी अर्थात नारियों की विशेष सहभागिता होती है। इस दिन ग्रामीण महिलाएं रंगे-बिरंगे पोषाकों में सज धज कर ‘सुवानृत्य’ करती है। गाँव में सुवा नृत्य की कई टोलियाँ होती है। जो घरोघर सुवा नृत्य कर अपनी लोक परम्पराओं को रूपायित करती हैं। मिट्टी से बने ‘सुवा’ (तोता) को टोकनी में रखकर और सुवायुक्त टोकनी को आंगन के मध्य में रखकर उसके वृत्ताकार में ताली बजाकर महिलाएं नृत्य करती हैं। चिड़ियों की तरह फुदक-फुदक कर महिलाओं का नृत्य करना बड़ा मनोरम लगता है। इस नृत्य में कोई लोकवादय का उपयोग नही होता। केवल ताली के लय-ताल पर नृत्य सम्पन्न होता है। तब नारी कठों के समूह स्वरों में सुवागीतों को सुनता बड़ा ही भला लगता हैं।
तरि हरि नाना मोर न नरि नाना
करेला पान करत लागे
अंगना म सोये बड़े भईया
उठा दे राम हरू लागे ।
सुवागीतों में नारी मन की वेदना और उसका उल्लास भरा होता है। सुवा नृत्य से जो अन्न व राशि मिलती है, उसे ‘गौरा-गौरी’ के विवाह में खर्च किया जाता है।
गौरा पूजन : गौरा पूजन का कार्यक्रम सुरहुत्ती के ही दिन मध्यरात्रि में सम्पन्न होता है। किन्तु गौरा-पूजन की भूमिका महिलाओं द्वारा पाँच से सात दिन पहले प्रारंभ कर दी जाती है। गौरा पूजन के विभिन्न चरण है जिनमें फूल कुचरना, करसा परघाना, चुलमाटी, गौरा जगी, बारात, डड़ैया, विसर्जन आदि प्रमुख हैं। ये सभी नेंग गौरा चौंरा में सम्पन्न होते हैं। गौरा पूजन मुख्य रूप से गोड़ समाज द्वारा मनाया जाता है। किन्तु इसमें सभी ग्रामीण जनों की सहभागिता होती है। यह लौकिक रूप से गौरा अर्थात पार्वती ओर ईसर अर्थात शंकर का विवाह सम्पन्न करने का पर्व है। जिसमें मिट्टी की गौरा व ईसर की मूर्तियाँ बनाकर विधि-विधान से विवाह कार्य सम्पन्न किए जाते है। महिलाएँ समधुर समूह स्वरों में गौरा गीत गाती है। लोक वाद्य दफड़ा, टिमकी, सींग व मोहरी के साथ नारी कठों से निकले गीत सुनने वालों को जोश से भर देते हैं। फलस्वरूप लोग देवता चढ़ जाते हैं। जिसे ‘डड़ैया’ कहा जाता है। महिलाएं ‘सत्ती’ चढ़ती हैं। उनके भी मन-मन में देव आवेशित हो जाता है। तब इन्हें ‘सांट’ व ‘बोड़ा’ देकर शांत किया जाता है।
गौरा पूजन कार्य मे समूचे समाज की सहभागिता होती है। गौरा चौंरा गौरा व ईसर की मूर्तियों को ग्राम भ्रमण कराया जाता है। तत्पश्चात नदी या तालाब मे मूर्तियाँ विसर्जित कर दी जाती हैं। मूर्तियों में चिपके ‘पना’ (चमकीला कागज) को निकाल कर लोग एक दूसरे से ‘पना’ बदकर मित्रता के बंधन में बंध जाते हैं। मित्रता का यह बंधन पीढ़ी -दर-पीढ़ी निभाया जाता है।
गोबरधन पूजा : गौरा विसर्जन के पश्चात इसी दिन ग्रामीण जन ‘गोबरधन’ की पूजा सम्पन्न करते हैं। अपने कोठा (गौशाला) मे गोबर से वे श्रीकृष्ण भगवान की प्रतीकात्क मूर्ति बनाते हैं। एक हाथ मे गोबरधन पर्वत का प्रतिरूष बनाया जाता है। इसे सिलयारी, मेमरी, धान की बाली व फूलों से सजाया जाता है। बीच में भरा हुआ जल कलश रख कर उसमें दीप प्रज्जवलित किया जाता है। दोपहर में राऊत (चरवाहा) मालिक की सहायता से सभी पशुओं को नदी या तालाब में धो, नहलाकर घर लाता है। गृह स्वामी गोबरधन की पूजा के साथ सभी पशुओं की पूजा करता है। चावल, दाल, कुम्हड़ा व कोचई की विशेष सब्जी के साथ पुड़ी व बड़ा को मिलाकर पशुओं को खिचड़ी खिलाता है। पशुओं के बचे हुए जूठन को ग्रहण कर गृह स्वामी का पूरा परिवार अपने आपको धन्य समझता है।
छत्तीसगढ़ में गोवरधन पूजा का पर्व श्री कृष्ण द्वारा ब्रजवासियों की रक्षा के लिए गोवर्धन पर्वत उठाये जाने की कथा से जुड़ा हुआ है। गोवर्धन पूजा का यह पर्व पशुधन व कृषि संस्कृति का संतोषक है। शाम को साहड़ा देव या दईहान में पशुओं द्वारा गोवर्धन खुदवाने का कार्यक्रम होता है। जिसमें राऊत अपनी टोली के साथ दफड़ा, टिमकी, सींग व मोहरी की लय-ताल पर राऊत नृत्य करता है। इस स्थान पर ग्रामीण लोग परस्पर एक दूसरे के माथे पर गोबर का तिलक लगाकर अभिवादन करते हैं।
हाँथा (भितिचित्र) लिखना : गाँव का चरवाहा जिसे राऊत, बरदिहा या पहाटिया भी कहा जाता है। पशुओं को चराने का कार्य यही यादव जाति के लोग करते हैं। चरवाहा पशुओं को चराने के साथ-साथ पशुओं की देखभाल भी करता है। इस दिन रडताइन (राऊत की पत्नी) अपने मालिक व उसके परिवार की सुख समृद्धि की कामना से मालिक की कोठी (अन्नागार) व कोठा (गौशाला) की दीवारों पर हाँथा लिखती है। हाँथा एक अनगढ़ किन्तु कलात्मक भितिचित्र है। जिसे वह सहज रूप से चूड़ी रंग, सेमी, तरोई या भेंगरा पत्ते के रंगों से चित्रित करती है। चित्रण में उसकी कल्पना शीलता, सहजता व तल्लीनता दर्शनीय होती है। हाँथा सुख-समृद्धि का प्रतीक है। इसे ‘सुखधना’ भी कहा जाता है।
सोहई बाँधना : संध्या के समय राऊत अपनी नृत्य टोली के साथ अपने मालिक के घर जाकर गायों को ‘साहई’ व भैंसो को ‘भागर’ बाँधता है। इस समय नर्तकों में बड़ा उत्साह होता है। क्योंकि गँड़वा बाजा की लय ताल पर, दोहे पार कर नृत्य करते हैं। राऊत नृत्य बड़ा ही शौर्यपूर्ण व मन मोहक होता है। गृहस्वामिनी अन्न, राशि व नए कपड़े भेंट कर राऊत का सम्मान करती है। राऊत दिए गए अन्न में गोबर की छोटी गोली बनाकर उसे रखता है फिर अन्न मिश्रित उस गोबर गोली को हाँथा चित्रित स्थान कोठी व कोठा में प्रक्षेपित कर के दोहे उच्चारित करता है-
हरियर चक चन्दन, हरियर गोबर अभिना ।
गाय गाय कोठा भरे, बरदा भए सौ तिना । ।
अपने मालिक व पशुधन की मंगल कामना का यह पर्व छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक महत्ता को द्विगुणित करता है। हाँथा लेखन व सोहई बंधन का कार्य राऊत अपनी सुविधा नुसार देवउठनी या पुन्नी (पूर्णिमा) के दिन भी संपन्न करता है। गोवरधन पूजा के अगले दिन भाई दूज मनाने की भी परम्परा है। जिसमे बहन अपने भाई की पूजा कर तिलक लगाकर उसकी लंबी आयु की कामना करती है।
मातर : भाई दूज के दिन ‘देवारी पर्व’ से जुड़ा एक और महाआयोजन सम्पन्न होता है। जिसमें सम्पूर्ण गाँव की सहभागिता दिखाई पड़ती है। वह आयोजन है मातर। मातर वैसे तो राऊत जाति का सामूहिक पर्व है, जिसमें राऊत लोग मातर अर्थात् मातृशक्ति की नृत्य मय आराधना करते हैं। सारा गाँव आबाल-वृद्ध स्त्री-पुरुष दर्शक के रूप में शामिल होता है। मातर का अर्थ है ‘माता’। यादवों द्वारा धरती माता, जन्म देने वाली माता, ग्रामदेवी और गौमाता की पूजा की जाती है। गड़वा बाजा के साथ दोहों का उच्चारण कर काछन चढ़ते है, और मनोहारी नृत्य करते हैं। हाथों में तेंदूसार की लाठी, माथे पर पगड़ी में कलगी तथा रंगीन वेशभूषा मन-प्राण को आनंदित करती है
एक काँछ काछेंव रे भाई, दूसर दिए लगाई।
तीसर काँछ काछँव माता, रहिबे मोर सहाई ।।
दरअसल यादव जाति का यह नृत्य शौर्य व वीरता का संगम है। यह मातर मातृवंदना का परिचायक है। गाय, भैंस व बकरी के गले सोहई बांधी जाती है। इस समय भी राऊत दोहे का उच्चारण करता है।
नानमून टंगली भेड़ा, काटे रे मउहा के डारा।
भईस केहेंव चँवर साय, तोर माथ बरे लिल्लारा।
छत्तीसगढ़ में दीपावली मनाने की परम्परा अन्य क्षेत्रों से अलग और अनोखी है। यहाँ के निवासियों में अपनी संस्कृति के प्रति बड़ी आस्था है। इसलिए यहाँ की लोक संस्कृति आज भी लोकजीवन मे संरक्षित है। सचमुच दीपावली अर्थात ‘देवारी’ छत्तीसगढ़ की संस्कृति का दर्पण है और पर्वों का महापर्व है। उजालों की फुलवारी देवारी सदैव खिलती रहे महकती रहे।