राम की विजय से प्रेरित एक अमर यात्रा : तमसो मा ज्योतिर्गमय

मानव जीवन की यात्रा अक्सर वियोग और संघर्ष की कठिन राहों से गुजरती है, लेकिन जब सत्य की किरण फूटती है, तो वह न केवल अंधकार मिटाती है, बल्कि पूरे अस्तित्व को आलोकित कर देती है। ठीक वैसे ही, दीपावली का यह पावन पर्व रामचरितमानस के उत्तरकांड में वर्णित उस ऐतिहासिक क्षण को स्मरण कराता है, जब भगवान राम ने लंका पर विजय प्राप्त कर, चौदह वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे। यह लौटना मात्र एक राजा का राज्यारोहण नहीं था; यह था धर्म की पुनर्स्थापना, न्याय का उदय और मानवता का उत्सव। तुलसीदास जी की अमर रचना में इस घटना को इतनी जीवंतता से बुना गया है कि प्रत्येक दोहा-चौपाई मानो हृदय की गहराइयों को छू जाती है।
रामचरितमानस का उत्तरकांड एक ऐसा सोपान है, जो बालकांड से लेकर लंकाकांड तक की कथा को पूर्णता प्रदान करता है। यहाँ काकभुशुण्डि जी गरुड़ को रामकथा सुनाते हुए कहते हैं कि लंका विजय के बाद राम का पुष्पक विमान पर सवार होकर अयोध्या की ओर प्रस्थान एक दिव्य यात्रा थी। लेकिन इससे पहले, लंका में रावण वध का चित्रण इतना मार्मिक है कि वह असत्य के पतन को प्रत्यक्ष दृश्य बनाता है। तुलसीदास जी लिखते हैं:
निसिचर निकर मरन बिधि नाना। रघुपति रावन समर बखाना॥ रावन बध मंदोदरि सोका। राज बिभीषन देव असोका॥
अर्थ: नाना प्रकार के राक्षस समूहों के मरण तथा श्री रघुनाथजी और रावण के अनेक प्रकार के युद्ध का वर्णन किया। रावण वध, मंदोदरी का शोक, विभीषण का राज्याभिषेक और देवताओं का शोकरहित होना।
यह चौपाई राम की विजय को केवल युद्ध की सफलता नहीं बताती, बल्कि एक नैतिक संदेश देती है। रावण का अंत उसके अहंकार का परिणाम था, जो हमें सिखाता है कि दीपावली पर लक्ष्मी की आराधना करते हुए हमें अपने आंतरिक रावण, लोभ, मोह, क्रोध—का संहार करना चाहिए। लंका विजय के बाद सीता-राम का मिलन होता है, जो पवित्रता की पुनर्लाभ की कहानी है। तुलसीदास जी कहते हैं:
सीता रघुपति मिलन बहोरी। सुरन्ह कीन्हि अस्तुति कर जोरी॥ पुनि पुष्पक चढ़ि कपिन्ह समेता। अवध चले प्रभु कृपा निकेता॥
अर्थ: फिर सीताजी और श्री रघुनाथजी का मिलाप कहा। जिस प्रकार देवताओं ने हाथ जोड़कर स्तुति की और फिर जैसे वानरों समेत पुष्पक विमान पर चढ़कर कृपाधाम प्रभु अवधपुरी को चले।
यहाँ पुष्पक विमान का उल्लेख विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। यह विमान कुबेर का था, जो विभीषण के माध्यम से राम को प्राप्त हुआ। यात्रा के दौरान राम वानरों को अयोध्या की शोभा दिखाते हैं, और कहते हैं कि वैकुंठ की महिमा तो है, लेकिन जन्मभूमि अवध समान प्रिय नहीं। यह भाव हमें दीपावली के संदर्भ में घर-परिवार की महत्ता सिखाता है, जहाँ सच्ची समृद्धि रिश्तों में बसती है। पुष्पक पर सवार होकर राम, सीता, लक्ष्मण, सुग्रीव, विभीषण और हनुमान की यात्रा एक सामूहिक विजय का प्रतीक है, जो दीपावली को सिखाती है कि उत्सव अकेले नहीं, सबके साथ मनाया जाता है।
अब बात अयोध्या के उस पल की, जब राम के आगमन की सूचना मिली। उत्तरकांड में तुलसीदास जी ने भरत के विरह को इतनी मार्मिकता से चित्रित किया है कि पाठक का हृदय भी काँप उठता है। चौदह वर्ष का इंतजार, जटा धारण कर राम की प्रतीक्षा, यह विरह मानव भावनाओं का सार है। एक दिन अवधि शेष रह गई, और नगरवासी दुबले-पतले होकर सोच में डूबे थे। तुलसीदास जी लिखते हैं:
रहा एक दिन अवधि कर अति आरत पुर लोग। जहँ तहँ सोचहिं नारि नर कृस तन राम बियोग॥
अर्थ: श्री रामजी के लौटने की अवधि का एक ही दिन बाकी रह गया, अतएव नगर के लोग बहुत आतुर हो रहे हैं। राम के वियोग में दुबले हुए स्त्री-पुरुष जहाँ-तहाँ सोच कर रहे हैं।
यह दोहा दीपावली के पूर्व संध्या का प्रतीक है, जब अंधकार गहरा लगता है, लेकिन आशा की किरण उजागर होने वाली होती है। भरत का मन अपार दुःख से भर जाता है: “कारन कवन नाथ नहिं आयउ। जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ॥” (क्यों नाथ नहीं आए? कुटिल जानकर भुला दिया?)। यहाँ भरत का आत्म-समर्पण दिखता है, जो हमें सिखाता है कि दीपावली पर प्रार्थना केवल माँग नहीं, बल्कि समर्पण है।
तभी हनुमान ब्राह्मण रूप में आते हैं, जैसे विरह सागर में नाव। उन्होंने भरत को संदेश दिया:
जासु बिरहँ सोचहु दिन राती। रटहु निरंतर गुन गन पाँती॥ रघुकुल तिलक सुजन सुखदाता। आयउ कुसल देव मुनि त्राता॥ रिपु रन जीति सुजस सुर गावत। सीता सहित अनुज प्रभु आवत॥
अर्थ: जिनके विरह में आप दिन-रात सोच करते रहते हैं और जिनके गुणसमूहों की पंक्तियों को आप निरंतर रटते रहते हैं, वे ही रघुकुल के तिलक, सज्जनों को सुख देने वाले और देवताओं तथा मुनियों के रक्षक राम सकुशल आ गए। शत्रु को रण में जीतकर सीता और लक्ष्मण सहित प्रभु आ रहे हैं; देवता उनका सुंदर यश गा रहे हैं।
हनुमान का यह संदेश सुनते ही भरत के सारे दुःख विलीन हो जाते हैं: “सुनत बचन बिसरे सब दूखा। तृषावंत जिमि पाइ पियूषा॥” (सुनकर सारे दुःख भूल गए, जैसे प्यासा अमृत पाकर)। यह क्षण दीपावली का मूल है—जब सूचना मिलती है कि राम आ रहे हैं, तो हृदय में प्रकाश फैल जाता है। हनुमान का परिचय “मारुत सुत मैं कपि हनुमाना। नामु मोर सुनु कृपानिधाना॥”भक्ति की सादगी दर्शाता है। भरत और हनुमान का मिलन प्रेम का संगम है, जो हमें बताता है कि दीपावली पर मित्रता और भक्ति का आदान-प्रदान आवश्यक है।
हनुमान भरत के चरण छूकर राम के पास लौटे, और राम पुष्पक पर चढ़े। यात्रा के दौरान अयोध्या की सुंदरता का वर्णन तुलसी ने इतना जीवंत किया है कि मानो हम स्वयं विमान पर हैं। राम कहते हैं:
जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि। उत्तर दिसि बह सरजू पावनि॥ जा मज्जन ते बिनहिं प्रयासा। मम समीप नर पावहिं बासा॥
अर्थ: यह मेरी जन्मभूमि, सुंदर पुरी है। उत्तर दिशा में पावन सरयू बहती है, जिसके स्नान से बिना प्रयास मनुष्य मेरे समीप निवास पाते हैं।
यह चौपाई दीपावली को धार्मिक पर्यटन से जोड़ती है, सरयू स्नान, दीपदान, जो आत्मिक शुद्धि का साधन है। विमान के निकट पहुँचते ही अयोध्या में हलचल मच जाती है। नगरवासी दही, दूब, फूल लेकर दौड़ पड़ते हैं। स्त्रियाँ सिंदूर लगाकर गाती चलीं: “दधि दुर्बा रोचन फल फूला। नव तुलसी दल मंगल मूला॥”। यह दृश्य दीपावली बाजारों की याद दिलाता है, जहाँ प्रत्येक घर उत्सव से भर जाता है।
तुलसीदास जी का दोहा इस हर्ष को चित्रित करता है:
बहुतक चढ़ीं अटारिन्ह निरखहिं गगन बिमान। देखि मधुर सुर हरषित करहिं सुमंगल गान॥
अर्थ: बहुत-सी स्त्रियाँ अटारियों पर चढ़कर आकाश में विमान को निहार रही हैं। देवता मधुर स्वर में हर्षित होकर शुभ मंगल गान कर रहे हैं।
यहाँ “सुर हरषित” देवताओं का उल्लेख दीपावली को स्वर्गीय उत्सव बनाता है। विमान उतरता है, राम पुष्पक को विदा करते हैं: “उतरि कहेउ प्रभु पुष्पकहि तुम्ह कुबेर पहिं जाहु।” पुष्पक हर्ष और विरह से चला जाता है, जो हमें सिखाता है कि सभी सुख क्षणिक हैं, लेकिन स्मृतियाँ शाश्वत।
अब अयोध्या का स्वागत: “अवधपुरी अति रुचिर बनाई। देवन्ह सुमन बृष्टि झरि लाई॥” (अवधपुरी बहुत ही सुंदर सजाई गई। देवताओं ने पुष्पों की वर्षा की झड़ी लगा दी।)। यह चौपाई दीपावली की सजावट, रंगोली, फूलों की मालाएँ, की याद दिलाती है। भरत, गुरु वशिष्ठ, ब्राह्मण और नगरवासी राम का स्वागत करते हैं। राम के चरणों में गिरकर सब रो पड़ते हैं, प्रेम का सैलाब उमड़ पड़ता है। पिता दशरथ की आत्मा का आह्लाद, माताओं का आशीर्वाद, भाइयों का त्याग। दीपावली पर जब हम दीये जलाते हैं, तो यही भाव जागृत होता है: पारिवारिक एकता का।
राज्याभिषेक के बाद रामराज्य की स्थापना होती है, जो दीपावली का चरम है। तुलसी कहते हैं: “जेहि बिधि राम नगर निज आए। बायस बिसद चरित सब गाए॥” (जिस प्रकार श्री रामचंद्रजी अपने नगर में आए, वे सब उज्ज्वल चरित्र गाए गए।)। रामराज्य में न्याय, समानता और करुणा का राज्य था, जहाँ कोई भूखा न सोता, कोई दुखी न रहता। यह दीपावली को सामाजिक सुधार का संदेश देता है। आज के संदर्भ में, जब पर्यावरण प्रदूषण, आर्थिक असमानता जैसी चुनौतियाँ हैं, रामकथा हमें सतत प्रयास की प्रेरणा देती है।
दीपावली का आध्यात्मिक आयाम गहरा है। यह न केवल राम की विजय है, बल्कि आत्मा की विजय। तुलसी की चौपाइयाँ हमें सिखाती हैं कि दीया जलाना बाहरी नहीं, आंतरिक ज्योति प्रज्वलित करना है। लक्ष्मी पूजन राम के साथ जुड़ता है, क्योंकि समृद्धि सत्य के बिना व्यर्थ है। वर्तमान में, जब महामारी या संघर्ष हमें तोड़ते हैं, दीपावली राम की तरह धैर्य सिखाती है। बच्चों को रामकथा सुनाना, परिवार के साथ भोजन करना, ये रस्में भावनाओं को पोषित करती हैं।
इसके सामाजिक पक्ष को देखें। दीपावली बहुलवाद का त्योहार है, जैनों के लिए महावीर निर्वाण, सिखों के लिए बंदी छोड़, लेकिन मूल में राम की कथा सभी को जोड़ती है। उत्तरकांड में विभीषण का रूपांतरण दिखाता है कि शत्रु भी मित्र बन सकता है, यदि भक्ति हो। आज के भारत में, जहाँ सांप्रदायिक तनाव हैं, यह संदेश प्रासंगिक है।
अंत में, दीपावली राम की कथा से हमें सिखाती है कि जीवन एक यात्रा है, लंका से अयोध्या तक। प्रत्येक दीया उस यात्रा का प्रतीक है, जो हमें प्रकाश की ओर ले जाता है। तुलसीदास जी की ये पंक्तियाँ अमर हैं, क्योंकि वे मानवीय हैं, दुःख, आनंद, भक्ति का मिश्रण। इस दीपावली पर, आइए हम राम बनें: विजयी, करुणामय, और प्रकाशदायी। जय सियाराम, जय श्री राम।

