क्या कृत्रिम बौद्धिकता मानव मष्तिष्क एवं स्मृति के लिए खतरा है?

प्रारंभिक युग का मनुष्य जो भी देखता, समझता और याद रखने योग्य होता, उसे अपने मस्तिष्क में संरक्षित करता था। इस संरक्षण को स्मृति या याददाश्त कहा जाता है। हमारे मनीषियों ने ध्यान एवं योग के माध्यम से मस्तिष्क की संरक्षण क्षमता को बढ़ाने के उपाय विकसित किए। एक समय ऐसा आया कि जितना भी ज्ञान मनुष्य ने अपने अनुभवों एवं आविष्कारों से अर्जित किया, उसे श्रुति पद्धति से मस्तिष्क में ही संरक्षित रखा गया। वेदों का संरक्षण इसका अनुपम उदाहरण है, जो श्रुति परंपरा से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित होते आए।
फिर एक समय ऐसा आया जब मनुष्य ने सोचा कि ज्ञान को मस्तिष्क के अलावा अन्य स्थान पर भी संरक्षित करना चाहिए। तब उसका ध्यान लिपि एवं लेखन के माध्यमों की ओर गया और उसने लिपि तथा उसे संरक्षित रखने के साधनों का विकास किया। इसका प्रमाण हमें आदिमानवों द्वारा निर्मित गुफाओं के भित्ति चित्रों से लेकर वर्तमान के कागज और कलम के रूप में मिलता है। भारत में हम इसका उपयोग अस्सी के दशक तक करते आए हैं।
नब्बे के दशक में कम्प्यूटर का दौर आया। कुछ ही वर्षों में यह घर-घर तक पहुंच गया और ज्ञान का संरक्षण इसके माध्यम से डिजिटल रूप में होने लगा। साहित्यकारों का लेखन हो, बैंक के बहीखाते या अन्य सरकारी कामकाज, सब कुछ कम्प्यूटर की स्मृति में दर्ज होने लगा। अब मनुष्य को अधिक चीजें याद नहीं रखनी पड़ती थीं। उसने याद रखने का कार्य कम्प्यूटर को सौंप दिया, जिसे डिजिटल मेमोरी कहा गया।
पहले कागज पर कलम से लिखते थे, तो लिखावट की तरफ ध्यान दिया जाता था। अच्छी से अच्छी लिखावट बनाने का प्रयास होता था। स्कूलों में सुलेख प्रतियोगिता आयोजित होती थी। जिसकी लिखावट अच्छी होती थी, उसे पुरस्कृत किया जाता था। कम्प्यूटर के आने के बाद अधिकांश कामकाजी लोग कम्प्यूटर पर ही टाइप करने लगे। कागज और कलम की आवश्यकता लगभग समाप्त हो गई। अब कलम की आवश्यकता केवल टाइप किए गए कागज पर टीप लिखने या हस्ताक्षर करने तक ही सीमित रह गई है।
इसके बाद 2000 के दशक में मोबाइल फोन आ गया, जिसने समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया। पहले जो मनुष्य अपने काम के सारे टेलीफोन नंबर याद रखता था, वह कार्य अब मोबाइल करने लगा। नंबर मनुष्य के दिमाग से हट गए, क्योंकि उन्हें सुरक्षित रखने के लिए मोबाइल में स्थान मिल गया। धीरे-धीरे मोबाइल का विकास होता गया और अब वह पूर्ण रूप से कम्प्यूटर का ही रूप बन गया है। सारे काम अब इसी से होने लगे हैं। बैंकिंग में भी अब हस्ताक्षर की आवश्यकता समाप्त हो गई है। डिजिटल हस्ताक्षर मान्य हो गए हैं। मोबाइल से ही पैसों का लेन-देन हो रहा है। कोई भी जानकारी चाहिए तो गूगल सर्च इंजन तुरंत ढूंढकर बता देता है। इस तरह मनुष्य के मस्तिष्क में डेटा को संरक्षित करने की निर्भरता काफी कम हो गई है, क्योंकि डेटा संरक्षण के लिए अब विभिन्न उपकरण आ गए हैं।
अब कृत्रिम बौद्धिकता (AI) का युग आ गया है। अब मस्तिष्क एवं उसकी स्मृति को संरक्षित रखने की आवश्यकता लगभग समाप्त हो गई है। मनुष्य की जो रचनात्मकता और सृजनशीलता थी, उसकी आवश्यकता भी अब नहीं रही। लेखन, लेखन की विषयवस्तु तैयार करने से लेकर डिज़ाइन, पेंटिंग, वीडियो निर्माण एवं अन्य कार्यों को एआई चुटकी बजाते ही संपन्न कर देता है। जिस कार्य में पूरा दिन लग जाता था, वह कार्य अब मिनटों में हो जाता है। इसका असर अब मनुष्य की कार्यक्षमता पर दिखाई देने लगा है। इस तरह डिजिटल निर्भरता और तेज प्रोसेसिंग के कारण मनुष्य स्मृति क्षीणता का शिकार होता दिखाई दे रहा है।
हम देख रहे हैं कि आधुनिक युग में तकनीकी विकास तो हो रहा है, लेकिन यह मनुष्य की कार्यक्षमता पर भारी पड़ रहा है। मनुष्य मशीनों का दास होता जा रहा है। इससे उसका जीवन प्रभावित हो रहा है। मनुष्य ने सोचने, समझने, विश्लेषण करने और निर्णय लेने जैसी क्षमताओं को मशीनों के हाथों में सौंप दिया है। इसका असर न केवल उसकी मानसिक क्षमता पर पड़ा है, बल्कि सामाजिक संरचना, रोजगार व्यवस्था और नैतिक मानदंडों पर भी स्पष्ट रूप से देखा जा रहा है।
मानव की मानसिक क्षमता घटने लगी है। यह देखा गया है कि जैसे-जैसे एआई का प्रयोग बढ़ा है, वैसे-वैसे मनुष्य की स्मरण शक्ति, गणना क्षमता और विश्लेषणात्मक सोच पर उसकी निर्भरता कम होती गई है। मोबाइल, कम्प्यूटर, वर्चुअल असिस्टेंट जैसे उपकरणों ने हमारी रोजमर्रा की याद रखने की जिम्मेदारियों को अपने ऊपर ले लिया है। अब लोग स्वयं से कम और मशीनों से अधिक सोचने की आदत डाल चुके हैं। यह एक ओर जहां सुविधा है, वहीं दूसरी ओर यह मनुष्य की चेतना की हानि का कारण भी बन रही है।
एआई का दूसरा बड़ा नकारात्मक प्रभाव रोजगार के क्षेत्र में देखा जा रहा है। मशीनें अब उन कार्यों को करने में सक्षम हो चुकी हैं, जिन्हें पहले केवल मनुष्य ही कर सकता था। बैंकिंग, बीमा, ट्रांसपोर्ट, हेल्पलाइन, ग्राहक सेवा, लेखा, टैक्स, पत्रकारिता, कोडिंग, चिकित्सा जैसे कई क्षेत्र एआई आधारित सॉफ़्टवेयर से प्रभावित हो चुके हैं।
प्रारंभिक स्तर के कार्य जैसे डाटा एंट्री, कॉल रिस्पॉन्स, रिपोर्ट तैयार करना, पैकेजिंग, ट्रक या टैक्सी चलाना इत्यादि कार्यों के लिए अब मानव श्रमिकों की आवश्यकता कम होती जा रही है। भविष्य में जैसे-जैसे एआई और ऑटोमेशन सुलभ और सस्ता होता जाएगा, वैसे-वैसे ये कार्य पूर्णतः मशीनों द्वारा किए जाएंगे और मनुष्य के लिए इन क्षेत्रों में स्थान समाप्त होता चला जाएगा।
यह भी आशंका जताई जा रही है कि केवल छोटी नौकरियां ही नहीं, बल्कि उच्च स्तर के विश्लेषणात्मक और शैक्षणिक कार्य भी एआई से हो रहे हैं। जैसे—वकील के दस्तावेजों की समीक्षा, डॉक्टर द्वारा स्कैन रिपोर्ट का विश्लेषण, शिक्षक द्वारा मूल्यांकन, पत्रकार द्वारा रिपोर्ट लेखन—इन सभी में एआई की भागीदारी बढ़ रही है। यह स्थिति आगे चलकर मानव विशेषज्ञता को हाशिए पर ढकेल सकती है।
एआई का बड़ा प्रभाव सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन पर भी पड़ रहा है। मानव-मानव के बीच संवाद की जगह अब मनुष्य और मशीन के बीच संवाद बढ़ गया है। वर्चुअल असिस्टेंट, चैटबॉट, सोशल मीडिया एल्गोरिद्म हमारे सोचने, बोलने, यहां तक कि संबंध बनाने के तरीकों को बदल रहे हैं। इससे अकेलापन, मानसिक अवसाद और सामाजिक दूरी जैसी समस्याएं सामने आ रही हैं।
इसके अतिरिक्त डेटा निगरानी और निजता की समस्या भी गंभीर होती जा रही है। एआई आधारित प्लेटफॉर्म हमारे व्यवहार, पसंद, लोकेशन, विचारधारा आदि का सूक्ष्म विश्लेषण कर रहे हैं और उसका उपयोग व्यावसायिक, राजनीतिक या प्रचार-प्रसार के लिए किया जा रहा है। इससे न केवल व्यक्ति की स्वतंत्रता प्रभावित हो रही है, बल्कि समाज में भ्रम, झूठी खबरें और दुरुपयोग की संभावनाएं भी बढ़ रही हैं।
वर्तमान स्थिति को देखकर मेरी स्वयं की चिंताएं बढ़ रही हैं। अब कोई भी चैटबॉट से लेख लिखकर भेज देता है, चैटजीपीटी से कविता, गीत लिखकर भेज देता है और प्रकाशन करने को कहता है। लेकिन वर्षों के अनुभव के आधार पर हम लोग यह पहचान लेते हैं कि लेखन मशीन का है या मनुष्य का, क्योंकि मशीन मनुष्य जैसा लेखन नहीं कर सकती। उसकी शब्दावली एवं लेखन का पैटर्न एक जैसा दिखाई देता है। इस आलेख को लिखने में मुझे विषयवस्तु सोचने एवं उसे मूर्त रूप में ढालने में एक घंटे का समय लगा, जबकि यही काम मशीन एक मिनट में कर सकती है, परंतु वह वैसा नहीं लिख सकती जैसा मैं सोच रहा हूँ। मानव और मशीन में कुछ तो अंतर है।
भविष्य में मशीनों का और विकास संभव है। तकनीक लगातार विकसित होती जाएगी और नए-नए आविष्कार होंगे, जो मनुष्य की स्मृति क्षमता और कार्यक्षमता को और घटा देंगे। मैं देख पा रहा हूँ कि कृत्रिम बौद्धिकता के कारण मनुष्य का मस्तिष्क, जो कभी अत्यंत विकसित था, अब कम उपयोग में आने के कारण सिकुड़ता जाएगा। उपयोग में न रहने के कारण उसकी संग्रहण क्षमता भी कम होती जाएगी। यदि इसे कम्प्यूटर की भाषा में समझें, तो केवल ‘विंडोज़ चलाने’ के लिए ही मस्तिष्क की आवश्यकता रह जाएगी, बाकी स्मृति स्थान पर तो कृत्रिमता का कब्जा होगा। कहीं ये न हो जाए कि मनुष्य का मष्तिषक घट कर ईमु या शतुरमुर्ग जितना रह जाए।
कुल मिलाकर एआई मनुष्य को अपना 24×7 घंटों का दास बनाने की ओर अग्रसर है। इससे बचने का उपाय भी मनुष्य को ही खोजना होगा। यह स्थिति सीधे-सीधे मनुष्य की शारीरिक एवं बौद्धिक कार्यक्षमता पर संकट की तरह दिखाई दे रही है।