जातीय जनगणना के पीछे समाज विभाजन की कुत्सित मानसिकता
जाति आधारित जनगणना पर देश में मानों राजनैतिक तूफान उठ आया है। कुछ राजनैतिक दल इस तूफान को सत्ता तक पहुँचने का मार्ग बनाना चाहते हैं । इसे उठाने वाले वे क्षेत्रीय दल हैं जिनकी राजनीति का आधार जाति,वर्ग भाषा, और क्षेत्र है। ये सभी दल और उनके नेता राजनीति को राष्ट्रनीति से ऊपर मानते हैं। उनका उद्देश्य राष्ट्ररक्षा या समाज सेवा नहीं केवल सत्ता है।
अब उनके साथ दिल्ली की सत्ता प्राप्त करने का प्रयत्न कर रही काँग्रेस भी मिल गई है। इन सभी राजनैतिक दलों ने गठबंधन तो बना लिया है फिर भी सफलता संदिग्ध लग रही है। इसका कारण भाजपा के नेतृत्व में काम कर रही नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा किये गये वे काम हैं जिससे देश के भीतर सरकार की साख बढ़ी और दुनियाँ में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ी है।
यह राष्ट्रीय भाव के जागरण और समाज के एकत्व का ही प्रभाव है कि इन साढ़े नौ वर्षों में देश के विकास और साख में गुणात्मक वृद्धि हुई। इससे देश की जनता में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के प्रति अटूट विश्वास उत्पन्न हुआ । इस विश्वास ने मोदी सरकार को 2024 में एक बार फिर सफलता की संभावना स्पष्ट कर दी है।
लगता है इसी वातावरण में सेंध लगाने केलिये राजनैतिक दलो ने समाज में जातीय भाव प्रबल करके सत्ता तक पहुँचने की योजना बनाई है । समाज को बाँटकर सत्ता प्राप्त करने का फार्मूला नया नहीं है। यह वही योजना है जो भारत पर राज करने के लिये विदेशियों ने बनाई थी। पहले रियासतों बाँटकर शासन करने का काम सल्तनतकाल में हुआ। फिर समाज को बाँटकर राज्य करने का फार्मूला अंग्रेजों ने बनाया।
अंग्रेजों ने अपने फार्मूले को छुपाया भी नहीं था । उन्होंने स्पष्ट कहा था “डिवाइड एण्ड रूल” अर्थात बाँटों और राज करो। पहले चर्च को सक्रिय कर अंग्रेजों ने भारत के वनवासी और नगरवासी समाज के बीच खाई बनाई। इसकी शुरुआत 1757 में प्लासी का युद्ध जीता, भारत का सर्वे किया और 1773 से वनक्षेत्रों में सक्रिय हुये। विभाजन की कूटरचित कहानियों का प्रचार हुआ। भारतीय साहित्य और विभाजन का कूटरचित साहित्य प्रचारित किया और वैमनस्य मजबूत रेखा खींची।
नगरीय जातियों में बाँटने का काम 1816 में हुआ जब जातीय आधारित सेना में भर्ती फिर 1857 की क्रांति के अनुभव के बाद जातीय तेजी से फैलाया गया । जबकि भारत में न तो वनवासी और नगरवासी जीवन में कोई भेद था और न जन्म और जाति के आधार पर। यदि भेद होता तो कालिंजर की राजकुमारी दुर्गावती गौंडवांना में ब्याहती। और न बाल्मीकि जी को ऋषित्व प्राप्त होता।
मध्यकाल में रविदास जी और कबीरदास को रामानंद जी शिष्य थे और झाला रानी एवं मीराबाई रविदास जी की शिष्य थीं। वेदिककाल से लेकर आधुनिक काल तक ऐसी परंपराओं ने भारतीय वाड्मय भरा हुआ है। अंग्रेजों ने अपनी सत्ता को सुरक्षित करने के लिये जाति आधारित समाज विभाजन का षड्यंत्र किया।
एक ओर कुछ लोगों को तैयार करके समाज में परस्पर नफरत फैलाने का काम हुआ और दूसरी ओर 1872 में जाति आधारित जनगणना करने का निर्णय हुआ। वायसराय मैयो के निर्देशन में जातीय आधारित जनगणना के आँकड़े पहली बार 1881 में सामने आये जो 1931 तक चला । 1941 की जनगणना भी जाति आधारित हुई थी पर इसके आकड़े जारी नहीं हुये।
स्वतंत्रता के बाद अंग्रेज भले चले गये पर अंग्रेजियत बनी रही। यह अंग्रेजियत के बने रहने का ही प्रमाण है कि अंग्रेजों का अंतिम वायसराय भारत का पहला गवर्नर जनरल बना। इसीलिए अंग्रेजों का दिया गया नाम इंडिया हटा और न राजकाज में अंग्रेजी का प्रभुत्व घटा। भारतीयों की जीवन शैली में भी अंग्रेजियत यथावत रही। यह अंग्रेजों द्वारा बोये गये बीज का ही प्रतिफल था कि स्वतंत्रता के बाद भी एक समूह ऐसा रहा जो जाति आधारित जनगणना पर जोर देता रहा।
स्वतंत्र भारत में पहली जनगणना 1951 के लिये भी जाति आधारित जनगणना की मांग उठी थी पर लगभग सभी नीति निर्धारकों ने इस माँग को नकार दिया। इसके लिये गाँधीजी के सिद्धांत पर अमल करना उचित समझा गया। गाँधीजी ने अपने स्वराज की कल्पना में कहा था- “स्वराज सबके कल्याण के लिये होगा, स्वराज में जाति और धर्म को स्थान नहीं होगा” ।
गाँधीजी का ऐसा एक आलेख ‘यंग इंडिया’ के मई 1930 अंक में भी छपा था। जाति आधारित जनगणना का मुखर विरोध सरदार वल्लभभाई पटेल ने किया था जिनका समर्थन पं जवाहरलाल नेहरू, बाबासाहब अंबेडकर और डा राम लोहिया ने भी किया था। अंबेडकर जी और डा लोहिया का तो पूरा अभियान ही जातिवाद को मिटाने का था। लेकिन अब उन्हे अपना आदर्श बताकर राजनीति करने वाले दल भी जाति आधारित जनगणना कराने पर अड़े हुये हैं। यही स्थिति काँग्रेस की है ।
गाँधीजी, नेहरूजी और शास्त्री जी के बाद की पीढ़ी में श्रीमती इंदिरा गाँधी आईं उनके समय तो नारा था “जात पर, न पांत पर- मोहर लगेगी हाथ पर”‘ किन्तु आज राहुल गाँधी सहित सभी काँग्रेस नेता जाति आधारित जनगणना का अभियान चला रहे हैं, ओबीसी का नया कार्ड खेल रहे हैं।
जिन डा राम मनोहर लोहिया ने समाज से जातिवाद मिटाने का संकल्प लिया था उनको आदर्श मानने वाले अखिलेश यादव, लालू प्रसाद यादव और नितीश कुमार जातिवाद का झंडा बुलंद कर रहे हैं। पता नहीं क्यों उन्हें लगता है कि समाज में भावनात्मक एकता को तोड़कर ही उनकी सत्ता का मार्ग बनेगा।
इसमें कोई संदेह नहीं कि भाजपा और नरेंद्र मोदी सरकार की शक्ति समाज के एकत्व, राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक गौरव के भाव में है। इसे तोड़ने के लिये ही जातीय आधारित जनगणना का मार्ग बनाया जा रहा है। इसलिए यह माँग उछाली गई है और इस माँग का मानो एक तूफान खड़ा करने का प्रयास हो रहा है।
भविष्य की जो इबारत दीवार पर से झाँक रही है। उसे देखकर इस आशंका से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि अभियान केवल जाति आधारित जनगणना तक सीमित न रहेगा अपितु समाज के भीतर कुछ ऐसे तत्व भी सक्रिय किये जा सकते हैं जो वैमनस्य फैलाने का काम करें।
यह सोशल मीडिया का जमाना है। कुछ लोग फर्जी एकाउंट बना कर जातियों के परस्पर वैमनस्य फैलाने की सामग्री डाल सकते हैं फर्जी वीडियो भी हो सकते हैं। ऐसी फर्जी सामग्री और वीडियो रोज सामने आते हैं । यह आशंका इसलिये भी प्रबल है। समाज में मोदी जी की स्वीकार्यता इतनी प्रबल है की उसे तोड़ने के लिये यह जातिवाद का तीर छोड़ा गया और कुछ जातिवादी नेता समाज में सक्रिय किये गये हैं। जातीय विमर्श खड़ा करके एक तीर से दो निशाने लगाये गये हैं। एक तो जातीय भेद पैदा करके अपनी सत्ता का मार्ग बनाना
टिप्प्णीकार लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।