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विश्व को मध्यम मार्ग का उपदेश देने वाले भगवान बुद्ध

आज बुद्ध पूर्णिमा है, बुद्ध पूर्णिमा इसलिए मानी गई कि भगवान बुद्ध का जन्म, ज्ञान प्राप्ति (बुद्धत्व या संबोधी) और महापरिनिर्वाण ये तीनों एक ही दिन अर्थात वैशाख पूर्णिमा के दिन ही हुए थे, यह ईश्वरीय संयोग ही है। यह तो जानते ही है कि बुद्ध का नाम बाल्यकाल में सिद्धार्थ रखा गया था। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात बुद्ध कहलाए। इनकी माता की मृत्यु के पश्चात लालन-पालन गौतमी ने किया इसलिए गौतम बुद्ध कहलाए।

कहते हैं पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं, राजा शुद्धोधन ने पुत्र प्राप्ति के पांचवें दिन एक नामकरण समारोह आयोजित किया और आठ ब्राह्मण विद्वानों को भविष्य पढ़ने के लिए आमंत्रित किया। सभी ने एक सी दोहरी भविष्यवाणी की, कि बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान पवित्र आदमी बनेगा। आगे चलकर सिद्धार्थ विरक्ति की प्राप्त हुए और साधना करके बुद्ध कहलाए। उनकी शिक्षाओं के अनुशरण करने वाले अनुयाईयों को नवीन बुद्ध धर्म मिला।

भगवान बुद्ध ने लोगों को मध्यम मार्ग का उपदेश किया। उन्होंने दुःख, उसके कारण और निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग सुझाया। उन्होंने अहिंसा पर बहुत जोर दिया है। महात्मा बुद्ध ने सनातन धरम के कुछ संकल्पनाओं का प्रचार किया, जैसे अग्निहोत्र तथा गायत्री मन्त्र, ध्यान तथा अन्तर्दृष्टि, मध्यमार्ग का अनुसरण, चार आर्य सत्य एवं अष्टांग मार्ग। चार आर्य सत्य हैं, दुःख – संसार में दुःख है, समुदय -दुःख के कारण हैं, निरोध – दुःख के निवारण हैं, मार्ग – निवारण के लिये अष्टांगिक मार्ग हैं।

बुद्ध ने दुख निवारण के लिए सम्यक दृष्टि – चार आर्य सत्य में विश्वास करना, सम्यक संकल्प – मानसिक और नैतिक विकास की प्रतिज्ञा करना, सम्यक वाक – हानिकारक बातें और झूठ न बोलना, सम्यक कर्म – हानिकारक कर्म न करना, सम्यक जीविका – कोई भी स्पष्टतः या अस्पष्टतः हानिकारक व्यापार न करना, सम्यक प्रयास- अपने आप सुधरने की कोशिश करना, सम्यक स्मृति – स्पष्ट ज्ञान से देखने की मानसिक योग्यता पाने की कोशिश करना, सम्यक समाधि-निर्वाण पाना और स्वयं का गायब होना, अष्टांगिक मार्ग बताए।

बुद्ध हिन्दुओं के लिए भी उतने ही माननीय और पूजनीय हैं जितने बौद्धों के। इन्हें भगवान विष्णु के दशावतार में नवम स्थान प्राप्त है। प्राचीन मंदिरों के द्वार फ़लक पर दशावतार के रुप में प्रतिष्ठित हैं। बौध्द मठो एवं गोम्फ़ों में भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ प्रचूर मात्रा में दिखाई देते हैं साथ ही शंख, पद्म एवं चक्र अदि प्रतीक चिन्हों का अंकन प्रमुखता से दिखाई देता है। जिससे यह भी साबित होता है कि इन प्रतीक चिन्हों को विष्णु से ही लिया गया है और बौद्ध धर्म में मान्यता दी गई।

भगवान बुद्ध ने अपने जीवनकाल में कभी वेदों का विरोध नहीं किया लेकिन उस समय वे लोग जो वेदों का त्रुटिपूर्ण प्रतिपादन कर मनमाने कर्म जैसे हिंसा तथा पशुबलि जैसी कुप्रथा मे लिप्त हो गए थे उनका विरोध किया था। भगवान बुद्ध की संकलित वाणी सुत्तनपात 292 में लिखा- ”विद्वा च वेदेहि समेच्च च धम्मं, न उच्चावचं गच्छति भूपरिपञ्ञे। ”इसका अर्थ पं. धर्मदेव जी विद्यामार्तण्ड अपने ग्रन्थ “वेदों का यथार्थ स्वरूप” में करते हैं- ”जो विद्वान् वेदों द्वारा धर्म का ज्ञान प्राप्त करता है। उसकी ऐसी डांवाडोल अवस्था नहीं होती।”

“धम्मपीति सुखं सेति विप्पसन्नेन चेतसा। अरियप्पवेदिते धम्मे सदा रमति पण्डितो।।“ (धम्मपद पृ. 114-15) अर्थात् धर्म में आनन्द मानने वाला पुरुष अत्यन्त प्रसन्नचित्त से सुखपूर्वक सोता है। पण्डितजन सदा आर्योपदिष्ट धर्म में रत रहते हैं। न जटाहि न गोत्तेन न जच्चा होति ब्राह्मणो। यम्हि सच्चं च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो।। (धम्मपद पृ. 140-141) अर्थात् न जन्म के कारण, न गोत्र के कारण, न जटा धारण के कारण ही कोई ब्राह्मण होता है। जिसमें सत्य है, जिसमें धर्म है, वही पवित्र है और वही ब्राह्मण है।

भगवान बुद्ध ने विपश्यना नामक साधना की तकनीक को वेदों से ही प्राप्त कर पुनः प्रतिस्थापित किया और उसके माध्यम से साधना कर बुद्धत्व को प्राप्त हुए। अखिल सृष्टि के सत्य स्वरूप का वर्णन करते हुए बुद्ध कहते हैं-“सब्बो पज्जलितो लोको,सब्बो लोको पकंपितो” अर्थात मुझे सृष्टि का माया से अनावृत सत्य स्वरूप ये दिखा की सारा लोक ‘पज्जलित’ यानी प्रकाश के स्वरूप में है और सर्वत्र मात्र ‘पकंपन’ यानि केवल तरंगे ही तरंगे है।

इस सृष्टि का वास्तविक स्वरूप प्रकाश और तरंगे मात्र है। हमें दृश्यमान स्वरूप में जो जगत दिखाई पड़ता है वो उस प्रकाश तथा तरंगों की घनीभूत अभिव्यक्ति है,वह वास्तविक नहीं है। इसी बात को आदि गुरु शंकराचार्य ने कहा था-“ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या जीवोब्रमैहव नापरह।”

भगवान बुद्ध ने अपने अनुभव के आधार पर कहा- “अत्ताहि अत्तनो नथो को हि नाथो परो सिया अत्तनां व सुदन्तेन,नाथं लभति दुल्लभं।“ अर्थात मैं स्वयं अपना स्वामी हूँ। सुयोग्य पद्धति से जानने के प्रयास करने पर ‘नाथं लभति दुल्ल्भं’ से दुर्लभ नाथ (ब्रम्ह) पद प्राप्त होता है। इसी बात को आदि गुरु शंकराचार्य ने महावाक्य में अभिव्यक्त किया- “अहम् ब्रह्मास्मि।”

चलते चलते यह भी याद रखें कि पूरे विश्व में शांति का संदेश देने वाले बुद्ध मुस्कुराए, बुद्ध मुस्कुराते रहेंगे, आपको याद तो होगा ही, बुद्ध पूर्णिमा के दिन बाजपेयी सरकार ने परमाणु परीक्षण कर जगत को शांति का संदेश दिया था। यह बुद्ध पूर्णिमा भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों से अंकित की गई, जब स्वतकनीक से विकसित परमाणु बम का परीक्षण पोखरण में किया गया और सारा संसार भौंचक सा खड़ा देखता रह गया। परमाणु बम के सफ़ल परीक्षण का सांकेतिक शब्द बुद्ध मुस्कुराए था। इस तरह भगवान बुद्ध आज भी भारतीयों द्वारा पूजनीय हैं।

 

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