श्रेष्ठ नागरिक निर्माण की पद्धति एवं तकनीक : मनकही
संस्कार याने मनुष्य बनाने की प्रक्रिया। राष्ट्र के लिए एक श्रेष्ठ नागरिक निर्माण की पद्धति एवं तकनीक। जातक जन्म से मनुष्य नहीं होता, उन्हें संस्कारों की प्रक्रिया द्वारा मनुष्य बनाया जाता है। इसीलिए वेद आदेश देता है कि मनुर्भवः, मनुष्य बनो। जो चिंतन मनन द्वारा सत्कार्यों को सम्पन्न करता है वह मनुष्य कहलाता है।
भारतीय संस्कृति संस्कार शिक्षा पर बल देती है। संस्कार युक्त शिक्षा के लिए वैदिक धर्म ने षोडश संस्कार दिए, इन षोडश संस्कारों का विशेष महत्व है। संस्कार केवल धार्मिक ही नही वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित हैं।
विश्व स्तर विभिन्न धर्म-परम्पराओं को माना जाता है, परन्तु सिर्फ़ भारतीय मानस ही संस्कार युक्त जीवन हेतु कार्य करता है। मानव जीवन में जन्म से मृत्यु तक अनेक धार्मिक कृत्य हैं, जो उन्हें समाज में प्रतिष्ठित करते हैं, जो मानव के मन -मस्तिष्क को शुद्ध करके सात्विक जीवन की ओर अग्रसर करते हैं।
सृष्टि में माता प्रथम गुरु और परिवार प्रथम पाठशाला है। मनुष्य जन्म से ही अपने को पारिवारिक वातावरण में पाता है,जहाँ के आचार-विचार, रीति-रिवाज, जीवन शैली का उस पर पड़ता है। जाने-अनजाने में वह उसे ग्रहण करता है। बाल्यावस्था में मनुष्य अच्छे-बुरे कर्म से अनभिज्ञ होता है, लेकिन उम्र और बुद्धि के विकास के साथ बुरे का त्याग करते हुए, अच्छाई को ग्रहण कर जीवन को सही दिशा देता है।
क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर, इनसे सृष्टि बनी है, ये सभी शाश्वत हैं। जन्म-मृत्यु अटल सत्य है, परंतु संसार इन्ही संस्कारों से ही चल रहा है यह भी अटल सत्य है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी मनुष्य के आचार-विचार, व्यवहार, कार्य, तौर-तरीके, रीति-रिवाज, हस्तांतरित होते आये है। यही संस्कार के रूप में समस्त मानवजाति का मार्ग प्रशस्त करते हैं। यह क्रम भी अनवरत चलता रहता है।।
अनुकरण करना एवं सीखना मानव की मूल प्रवृति है, मनुष्य के अच्छे-बुरे कार्यों के परिणामों को सीधे उनके संस्कारो से जोड़ा जाता है। इसलिए कहा जाता है कि बच्चों को अच्छे संस्कार अवश्य देना चाहिए। अच्छे संस्कार धन-सम्पत्ति से भी बढ़कर होते हैं। अच्छे संस्कारों से धन-संपत्ति स्वयं एवं सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने का मार्ग खुलता है।
प्रश्न यह है कि अच्छे संस्कार कैसे दिए जाएं? संस्कार कोई घूंटी तो नही की पिला दें। इसकी जिम्मेदारी शतपथ ब्राह्मण ग्रंथ ने “मातृमान, पितृमान, आचार्यवान पुरुषो वेद: कहकर माता, पिता एवं आचार्य को दी है। अच्छे कार्यव्यवहार, तौर-तरीकों को स्वयं अपनाकर, उपदेश देने के बजाय उचित जीवन शैली अपनाते हुए, शास्त्रों एक बताए मार्ग में चलते हुए आदर्श स्थापित करना होता है, क्योंकि मनुष्य की प्रवृति पहले परिणाम को देखने की होती है।
चूक या त्रुटि कार्यावधि में मनुष्य से ही होती है, इसको सुधारने के लिए ईश्वर ने मनुष्य को बुद्धि के साथ विवेक भी दिया है। यह विवेकपूर्ण चिंतन उसे सुधरने का अवसर भी प्रदान करता है, बुद्धु से बुद्ध बनने का मार्ग दिखाता है। मनुष्य संस्कारों से सुशोभित होकर समाज के समक्ष संयमित जीवन का पालन कर एक आदर्श प्रस्तुत करता है।
आलेख
अति सुंदर लेख पढ़ कर बहुत अच्छा लगा