यहाँ देवी को काला चश्मा चढ़ाने की है परम्परा
छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले के कांगेर वैली नेशनल पार्क के कोटमसर गांव में स्थित देवी बास्ताबुंदिन का मंदिर एक अनोखी परंपरा के लिए प्रसिद्ध है। देवी बास्ताबुंदिन को चश्मे वाली देवी के नाम से भी जाना जाता है। यहां भक्त देवी को काला चश्मा चढ़ाते हैं और फिर प्रसाद स्वरूप अपने साथ लेकर जाते हैं। यह मान्यता वर्षों से चली आ रही है।
देवी बास्ताबुंदिन और उनकी महिमा
स्थानीय लोगों का मानना है कि देवी बास्ताबुंदिन जंगल को हरा-भरा रखती हैं और उनकी रक्षा करती हैं। हर तीन साल में यहाँ जात्रा का आयोजन होता है, जिसमें देवी की पूजा और परिक्रमा की जाती है। अब 2025 में इस जात्रा का आयोजन होगा।
चश्मा चढ़ाने की परंपरा
बस्तर के वनवासियों के लिए जंगल जीवनयापन का मुख्य आधार है। वे मानते हैं कि जंगल ईश्वर का वरदान है और उसकी रक्षा करना उनका फर्ज है। इसीलिए, जंगल को नजर न लगे और हरा-भरा रहे, इसके लिए वे देवी मां को काला चश्मा चढ़ाते हैं। यह मान्यता है कि देवी मां की कृपा से जंगल सुरक्षित रहता है और किसी भी बुरी नजर से बचा रहता है।
जात्रा और मेले का आयोजन
देवी बास्ताबुंदिन की जात्रा हर तीन साल में आयोजित होती है, जिसमें आसपास के गांवों के लोग शामिल होते हैं। मंदिर के पुजारी जीतू और सिरहा संपत के अनुसार, देवी को चढ़ाए गए ज्यादातर चश्मे भक्त अपने साथ ले जाते हैं। मेले के दूसरे दिन देवी को चश्मा पहनाकर पूरे गांव की परिक्रमा करवाई जाती है ताकि देवी की कृपा पूरे गांव में बनी रहे और सभी ग्रामवासियों की रक्षा हो सके।
जनजातीय संस्कृति और आस्था
जनजातीय समाज में देवी-देवताओं को परिवार का अंग माना जाता है। उनकी आराधना में विशेष परंपराएं और रीति-रिवाज शामिल होते हैं। देवी बास्ताबुंदिन के मंदिर में भी विभिन्न परगनों से आए देवी-देवताओं का स्वागत और पूजा की जाती है। इस मेले में देवी को चश्मा अर्पित करने की प्रथा भी शामिल है, जिससे नेत्र रोग और अन्य समस्याओं का निवारण होता है।
देवी के मेले का आकर्षण
देवी बास्ताबुंदिन के मेले में पहले दिन विभिन्न परगनों से आए देवी-देवताओं का स्वागत और पूजा की जाती है। इस मेले में नगाड़ों, घंटियों का नाद गूंजता रहता है। सिरहा, बैगा और लंगूर बने लोग दैवीय स्थलों के सामने झूले में बैठकर ग्रामीणों को आशीष देते हैं। ग्रामीण देवी को चढ़ाए गए चश्मे को प्रसाद स्वरूप अपने साथ ले जाते हैं।
सांस्कृतिक महत्व
बस्तर के वनवासियों की यह परंपरा देवी-देवताओं को परिवार का अंग मानती है और उन्हें संतुष्ट करने के लिए उपहार अर्पित करने की प्रथा है। इन परंपराओं में देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना और मनौति की विविध शैलियाँ शामिल हैं, जो इस क्षेत्र की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा हैं।
देवी बास्ताबुंदिन का मंदिर न केवल धार्मिक आस्था का केंद्र है बल्कि यह बस्तर की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक भी है। यहां की अनोखी परंपराएँ और मान्यताएँ वनवासी समाज की गहरी आस्था और पर्यावरण संरक्षण की भावना को दर्शाती हैं। हर तीन साल में होने वाला जात्रा और देवी को चश्मा चढ़ाने की अनूठी परंपरा इस मंदिर को विशिष्ट बनाती है, जो भक्तों के लिए एक विशेष धार्मिक स्थल है।
देवी बास्ताबुंदिन का मंदिर बस्तर के जनजातीय लोगों की आस्था और परंपरा का अद्वितीय उदाहरण है। यहां चश्मा चढ़ाने की अनूठी परंपरा वर्षों से चली आ रही है, जो स्थानीय लोगों की देवी के प्रति गहरी श्रद्धा और विश्वास को दर्शाती है। यह मंदिर और इसकी परंपराएं भारतीय संस्कृति की विविधता और धार्मिक आस्थाओं की समृद्धता का प्रतीक हैं।