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मातृत्व का पर्व, संतान के प्रति निःस्वार्थ समर्पण का प्रतीक : अहोई अष्टमी

संध्या शर्मा (फ़ीचर एडिटर)

हिंदू धर्म के विशाल पर्व-परंपरा में कुछ व्रत ऐसे हैं जो न केवल धार्मिक आस्था से जुड़े हैं बल्कि भावनाओं, जिम्मेदारियों और रिश्तों के गहरे अर्थों को भी उजागर करते हैं। अहोई अष्टमी ऐसा ही एक पर्व है, एक ऐसा दिन जो मां और संतान के रिश्ते की पवित्रता, करुणा और समर्पण को समर्पित है। यह पर्व केवल पूजा या व्रत का दिन नहीं, बल्कि मातृत्व की उस शक्ति का उत्सव है जो अपने बच्चे के लिए सब कुछ न्यौछावर करने को तत्पर रहती है।

पर्व का समय और सांस्कृतिक संदर्भ

अहोई अष्टमी हर वर्ष कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाई जाती है। यह तिथि करवा चौथ के चार दिन बाद और दीपावली से आठ दिन पहले आती है। यही कारण है कि यह न केवल धार्मिक रूप से बल्कि सांस्कृतिक दृष्टि से भी दीपावली की तैयारियों का प्रारंभिक संकेत मानी जाती है। 2025 में यह पर्व 13 अक्टूबर (सोमवार) को मनाया जाएगा। पंचांग के अनुसार अष्टमी तिथि रात 12:24 बजे प्रारंभ होकर अगले दिन सुबह 11:09 बजे तक रहेगी। पूजा का शुभ मुहूर्त शाम 5:53 से 7:08 बजे तक रहेगा और तारों को अर्घ्य देने का समय लगभग शाम 6:17 बजे तक रहेगा।

यह पर्व विशेष रूप से उत्तर भारत में लोकप्रिय है — उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हरियाणा और पंजाब में इसे बड़ी श्रद्धा से मनाया जाता है। कुछ क्षेत्रों में इसे ‘अहोई आठे’ या ‘कृष्णाष्टमी’ के नाम से भी जाना जाता है।

व्रत का उद्देश्य और भावार्थ

अहोई अष्टमी का प्रमुख उद्देश्य संतान की दीर्घायु, स्वास्थ्य और समृद्धि की कामना करना है। इस दिन माताएं निर्जला व्रत रखती हैं — यानी सूर्योदय से लेकर रात्रि में तारों के दर्शन तक वे जल और अन्न का सेवन नहीं करतीं। यह तप और त्याग का प्रतीक है, जो मां की अपने बच्चों के लिए असीम प्रेम और त्याग भावना को दर्शाता है।

प्राचीन ग्रंथों में, विशेष रूप से नारद पुराण में, इस व्रत का उल्लेख मिलता है। इसमें कहा गया है कि जो महिला अहोई व्रत रखती है, वह न केवल संतान की रक्षा करती है बल्कि अपने परिवार में समृद्धि और सौभाग्य भी लाती है। ग्रंथों में यह भी कहा गया है कि इस व्रत के प्रभाव से “अनहोनी होनी बन जाती है”।

इतिहास और पौराणिक पृष्ठभूमि

अहोई अष्टमी का इतिहास वैदिक काल से जुड़ा हुआ माना जाता है। यद्यपि इसके प्रत्यक्ष उल्लेख वेदों में नहीं मिलते, परंतु पुराणों और लोककथाओं में इसके कई रूप दिखाई देते हैं। नारद पुराण और भविष्य पुराण में उल्लेख है कि कार्तिक कृष्ण अष्टमी को भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा से विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है। इस तिथि का चयन भी प्रतीकात्मक है, यह “अंधकार के बीच प्रकाश की खोज” का प्रतीक है। कृष्ण पक्ष का अंधकार यहां जीवन की कठिनाइयों का द्योतक है, और अष्टमी का व्रत उस कठिनाई के बीच आशा और आस्था का दीप जलाने जैसा है।

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लोक परंपरा में दो प्रमुख कथाएं प्रचलित हैं, जो इस पर्व की आत्मा को स्पष्ट करती हैं।

पहली कथा: साहूकार की बहू

कहा जाता है कि प्राचीन काल में एक साहूकार और उसकी पत्नी के सात पुत्र थे। उनका घर खुशियों से भरा था, लेकिन उनकी छोटी बहू संतानहीन थी। एक दिन दीपावली से पहले, जब कार्तिक कृष्ण अष्टमी निकट थी, वह बहू घर लीपने के लिए मिट्टी लेने जंगल गई। वहां मिट्टी खोदते हुए उसकी कुदाल अनजाने में एक साही (स्याहु) के बच्चे को लग गई और वह मर गया।

बहू को बहुत पछतावा हुआ, परंतु साही ने उसे शाप दिया — “जैसे मेरे बच्चे मरे हैं, वैसे ही तेरे भी पुत्र मरेंगे।” और धीरे-धीरे साहूकार के सभी सात पुत्र मर गए। घर में मातम छा गया। अंततः बहू ने पश्चातापपूर्वक अपने पाप का प्रायश्चित करने का निश्चय किया।

पड़ोस की महिलाओं ने उसे सलाह दी कि वह अहोई माता का व्रत करे, साही और उसके बच्चों का चित्र बनाकर पूजा करे, और संतान रक्षा के लिए मां पार्वती से क्षमा मांगे। उसने पूरे निष्ठा से व्रत रखा, निर्जला उपवास किया और सच्चे मन से प्रार्थना की। उस रात माता पार्वती उसके सामने प्रकट हुईं और कहा, “तुम्हारा पश्चाताप स्वीकार है। तुम्हारे पुत्र जीवित होंगे।”

अगले दिन सुबह सभी सात पुत्र जीवित हो उठे और परिवार में फिर से सुख-शांति लौट आई। तभी से यह व्रत माताओं द्वारा संतान की दीर्घायु के लिए किया जाने लगा।

दूसरी कथा: सात बहुएं और ननद

एक दूसरी लोककथा में सात बहुओं और एक ननद की कहानी आती है। ननद साही के बच्चे को मार देती है, लेकिन सबसे छोटी भाभी उसे बचाने का प्रयास करती है। बाद में वह काली गाय की सेवा करती है और अपनी कोख बांधकर साही माता को प्रसन्न करती है। अंततः साही माता उसे संतान का आशीर्वाद देती हैं। यह कथा त्याग, सेवा और भक्ति की भावना को दर्शाती है।

इन दोनों कथाओं का सार यही है कि सच्चे पश्चाताप, निष्ठा और मातृत्व की भावना से हर विपत्ति टल सकती है।

पूजा विधि: सरल लेकिन भावनापूर्ण अनुष्ठान

अहोई अष्टमी की पूजा घर के आंगन या पूजा स्थल पर बड़ी श्रद्धा से की जाती है। इसकी तैयारी सुबह से शुरू होती है।

  1. संकल्प – प्रातः स्नान के बाद साफ वस्त्र पहनकर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके संकल्प लिया जाता है:
    “मैं अहोई माता का व्रत अपनी संतान की दीर्घायु, सुख और समृद्धि के लिए कर रही हूं।”

  2. पूजा स्थल की तैयारी – दीवार को गंगाजल से शुद्ध किया जाता है और गेरू या कुमकुम से अहोई माता, साही और उसके सात बच्चों का चित्र बनाया जाता है। यदि हाथ से चित्र बनाना संभव न हो, तो मुद्रित चित्र भी लगाया जा सकता है।

  3. कलश स्थापना – चौकी पर गेहूं बिछाकर तांबे या पीतल के कलश में जल भरकर रखा जाता है। उस पर नारियल, सुपारी, दूर्वा और हल्दी रखी जाती है।

  4. श्रृंगार और अर्पण – अहोई माता को रोली, चंदन, फूल, बेलपत्र, दूध, दही, मिश्री, बताशे, हलवा और पूरी अर्पित किए जाते हैं। 16 श्रृंगार की वस्तुएं — जैसे बिंदी, चूड़ियां, काजल, मेहंदी आदि — देवी को समर्पित की जाती हैं।

  5. कथा पाठ – संध्या समय परिवार की महिलाएं एकत्र होकर अहोई माता की कथा सुनती हैं। कथा के समय हाथ में चावल या दूर्वा लेकर बैठना शुभ माना जाता है।

  6. अर्घ्य – तारों के दर्शन के समय लोटे में जल और चावल लेकर अर्घ्य दिया जाता है। कुछ स्थानों पर चंद्रमा को भी अर्घ्य देने की परंपरा है।

  7. पारण – कथा और पूजा के बाद अगले दिन सूर्योदय के बाद व्रत का पारण किया जाता है। माता को प्रसाद अर्पित करने के बाद ही भोजन किया जाता है।

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इस पूरे अनुष्ठान का भाव यह है कि मां केवल अपने बच्चों के लिए नहीं, बल्कि पूरे परिवार की भलाई के लिए उपवास करती है।

क्षेत्रीय विविधताएं

भारत विविधताओं का देश है, और अहोई अष्टमी इसका उत्कृष्ट उदाहरण है।

  • उत्तर प्रदेश में मथुरा-वृंदावन के राधा कुंड में स्नान का विशेष महत्व है। मान्यता है कि इस दिन वहां स्नान करने से संतान की प्राप्ति होती है।

  • बिहार में इसे “अहोई माई” के नाम से जाना जाता है। वहां महिलाएं लोकगीत गाती हैं — “अहोई माई, अरे आओ, सुख-संपत्ति लाओ।”

  • हरियाणा और पंजाब में चांदी की ‘होई’ (अहोई माता की प्रतीक आकृति) बनवाकर गले में धारण करने की परंपरा है।

  • राजस्थान में यह व्रत अधिक कठोरता से निभाया जाता है। राजपूत घरानों में माताएं पूरे दिन जल तक नहीं पीतीं और रात्रि में तारों को अर्घ्य देने के बाद ही व्रत खोलती हैं।

  • दक्षिण भारत में यह व्रत कम प्रचलित है, लेकिन कुछ स्थानों पर आश्विन मास की अष्टमी को इसी रूप में मनाया जाता है।

आधुनिक समय में परिवर्तन

समय के साथ अहोई अष्टमी की परंपरा ने आधुनिकता का स्पर्श भी लिया है। अब शहरी परिवारों में महिलाएं मोबाइल ऐप्स से मुहूर्त और व्रत विधि जानती हैं। ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर कथा-पाठ और पूजा की सामूहिक वीडियो सभाएं आयोजित की जाती हैं।

सोशल मीडिया ने भी इस पर्व को नया रूप दिया है। महिलाएं अपनी पूजा की तस्वीरें, सजावट और आरती के वीडियो साझा करती हैं। इससे यह पर्व अब स्थानीय न रहकर वैश्विक स्तर पर पहचाना जाने लगा है। विदेशों में बसे भारतीय परिवार भी ऑनलाइन पूजा और वर्चुअल कथा के माध्यम से इस परंपरा को जीवित रखे हुए हैं।

वैज्ञानिक और सामाजिक दृष्टि

अहोई अष्टमी को केवल आस्था का पर्व मानना अधूरा होगा। इसका वैज्ञानिक और सामाजिक महत्व भी गहरा है। निर्जला उपवास शरीर को एक प्रकार का डिटॉक्स देता है, जिससे पाचन तंत्र को विश्राम मिलता है। शाम को तारों का निरीक्षण करने की परंपरा खगोलीय जागरूकता और प्रकृति से जुड़ाव को दर्शाती है।

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सामाजिक स्तर पर यह पर्व महिलाओं के सामूहिक जुड़ाव का अवसर है। पड़ोस की महिलाएं एकत्र होकर कथा सुनती हैं, एक-दूसरे के अनुभव साझा करती हैं और परिवार की खुशहाली की कामना करती हैं। यह भावनात्मक सहयोग का अद्भुत उदाहरण है।

आधुनिक समय में यह व्रत लैंगिक समानता का प्रतीक भी बन रहा है। अब माताएं केवल पुत्रों के लिए नहीं, बल्कि पुत्रियों की दीर्घायु और सुख-समृद्धि के लिए भी व्रत रखती हैं। यह बदलाव भारतीय समाज के सकारात्मक विकास का संकेत है।

अहोई अष्टमी और पर्यावरण

अहोई माता की पूजा में मिट्टी, दूर्वा, बेलपत्र, घी, फूल और प्राकृतिक सामग्री का उपयोग होता है। इससे यह पर्व प्रकृति से गहराई से जुड़ा हुआ है। आज जब प्लास्टिक-मुक्त पूजा की पहल चल रही है, तो अहोई अष्टमी जैसे पारंपरिक व्रत हमें सिखाते हैं कि पर्यावरण संरक्षण भी पूजा का एक रूप है।

आध्यात्मिक संदेश

अहोई अष्टमी के मूल में तीन गहरी बातें निहित हैं — पश्चाताप, त्याग और प्रेम।

  • पश्चाताप हमें यह सिखाता है कि गलती होने के बाद भी सुधार संभव है।

  • त्याग यह दिखाता है कि अपने प्रियजनों के लिए सीमाओं से परे जाना मातृत्व का स्वभाव है।

  • और प्रेम वह शक्ति है जो असंभव को संभव बना देती है।

मां पार्वती का यह रूप, जो अहोई माता कहलाता है, हर उस महिला में जीवित है जो अपने परिवार की खुशी के लिए दिन-रात समर्पित रहती है।

मातृत्व का उत्सव

अहोई अष्टमी केवल एक व्रत नहीं, बल्कि मां और संतान के बीच अनकहे रिश्ते का उत्सव है। यह हमें याद दिलाता है कि जीवन में भक्ति और भावनाओं का संतुलन बनाए रखना कितना आवश्यक है। जब एक मां पूरे दिन जल भी नहीं पीती, केवल अपने बच्चे की लंबी उम्र की कामना के लिए, तो वह त्याग किसी तपस्या से कम नहीं।

इस पर्व का महत्व आधुनिक युग में और भी बढ़ गया है, क्योंकि तेज़ भागती जिंदगी में परिवार के लिए समय निकालना कठिन हो गया है। अहोई अष्टमी हमें उस मूल से जोड़ती है, जहां रिश्ते केवल रक्त से नहीं, बल्कि प्रेम और श्रद्धा से बनते हैं।

2025 में जब माताएं इस दिन व्रत रखेंगी, तो यह केवल परंपरा का निर्वाह नहीं होगा, बल्कि एक संदेश भी होगा — कि मां की प्रार्थना, चाहे वह कितनी भी छोटी क्यों न लगे, पूरे संसार को आशीर्वाद दे सकती है।

अहोई अष्टमी का शाश्वत संदेश यही है:
“मां का आशीर्वाद ही सच्चा सौभाग्य है, और उसका त्याग ही संसार का सबसे बड़ा धन।”