\

रामचरितमानस का नैतिक और सामाजिक प्रभाव

श्रावण शुक्ल सप्तमी गोस्वामी तुलसीदास जन्म दिवस विशेष आलेख

गोस्वामी तुलसीदास, जिन्हें ‘कवि कुलगुरु’ के नाम से भी जाना जाता है, भारतीय साहित्य और संस्कृति के प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। तुलसीदास का जन्म विक्रम संवत 1554 (1532 ईस्वी) में हुआ माना जाता है। उनका जन्म श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को हुआ था, जन्म स्थान के विषय में विद्वानों में मतैक्य नहीं है परन्तु उनका जन्म उत्तर प्रदेश के सोरों शूकरक्षेत्र (वर्तमान कासगंज) या चित्रकूट के निकट राजापुर नामक स्थान में हुआ माना जाता है। हालाँकि, राजापुर को तुलसीदास का प्रमुख जन्मस्थान माना जाता है।

बाबा तुलसी दास की कृतियों ने न केवल हिंदी साहित्य को समृद्ध किया बल्कि सामाजिक जागरण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। तुलसीदास के समय में समाज अनेक प्रकार की बुराइयों, सामाजिक विषमताओं और धार्मिक कट्टरता से ग्रसित था। इन समस्याओं से उबरने और समाज में नई ऊर्जा का संचार करने के लिए तुलसीदास ने अपनी कृतियों के माध्यम से एक अद्वितीय योगदान दिया।

धर्म और नैतिकता का प्रचार:

धर्म हेतु अवतरेउँ प्रभु शेष महेश धरैं जासु फल।
लोक बेद हितु तेहि समय, सब कीन्ह कृपानिधि करि कल्याण।” संदर्भ: रामचरितमानस (बालकाण्ड, दोहा 110)

इस चौपाई में तुलसीदास ने भगवान राम के अवतार के धर्मस्थापन हेतु होने का वर्णन किया है। इससे समाज में धर्म और नैतिकता की स्थापना का संदेश मिलता है।

तुलसीदास की काव्य रचनाओं में मुख्य रूप से धर्म और नैतिकता के प्रति जागरूकता का संदेश है। ‘रामचरितमानस’ में उन्होंने भगवान राम के आदर्श जीवन का वर्णन किया है, जो एक आदर्श राजा, पुत्र, पति, और भाई के रूप में स्थापित हैं। राम के चरित्र के माध्यम से उन्होंने सत्य, धर्म और मर्यादा की शिक्षा दी। यह समाज को एक आदर्श और नैतिक जीवन जीने की प्रेरणा देता है।

सामाजिक समरसता का संदेश:

तुम्ह समान रघुबीर सहाई। अतर पुनीत प्रभु निषाद घर आयी।।
देखि राम सुदामा कर पाती। हरष बिकल ह्रदयँ अकुलाती।।” संदर्भ: रामचरितमानस (अयोध्या काण्ड, दोहा 15)

इस चौपाई में तुलसीदास ने भगवान राम द्वारा निषादराज के प्रति दिखाए गए प्रेम और सम्मान का वर्णन किया है, जो जातिगत भेदभाव को खत्म करने का संदेश देता है।

तुलसीदास ने अपने समय में समाज में व्याप्त जातिवाद और भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई। उन्होंने ‘रामचरितमानस’ में स्पष्ट किया कि भगवान राम ने शबरी और निषादराज जैसे निम्न जाति के व्यक्तियों से प्रेम और सम्मान किया। यह संदेश समाज में समानता और भाईचारे की भावना को बढ़ावा देने का था। तुलसीदास ने यह दिखाया कि ईश्वर के लिए सभी समान हैं, चाहे वह किसी भी जाति, वर्ग या धर्म के हों।

अंधविश्वासों और धार्मिक कट्टरता का खंडन:

काहू न कोउ सुख दुःख कर दाता। निज कृत करम भोग सब भ्राता।।”
संदर्भ: रामचरितमानस (अयोध्या काण्ड, दोहा 135)

तुलसीदास यहाँ कर्म और उसके फल की बात करते हैं। यह दोहा अंधविश्वासों और भाग्यवाद को खंडित करते हुए कर्म की प्रधानता को दर्शाता है।

तुलसीदास ने समाज में फैले अंधविश्वासों और धार्मिक कट्टरता का खंडन किया। उन्होंने भक्ति को सबसे ऊंचा स्थान दिया और कहा कि केवल भक्ति के माध्यम से ही ईश्वर की प्राप्ति संभव है। उन्होंने कर्मकांड और दिखावे की पूजा के बजाय सत्य, प्रेम, और समर्पण को महत्व दिया। उनकी भक्ति आंदोलन ने समाज को एक नई दिशा दी और धार्मिक चेतना को नया आयाम दिया।

भाषा का विकास और प्रसार:

संस्कृत भाष्य बिनु कछु नाहीं। बांचत न अधिक जिन ग्यान साधी।
तुलसी की निज भाषा कछु नहीं, हरि यश गावहिं सुनि सुख लाहीं।।” संदर्भ: विनय पत्रिका (दोहा 1)
इस चौपाई में तुलसीदास ने संस्कृत के साथ-साथ आमजन की भाषा को महत्व दिया और इसे साहित्यिक अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया।

तुलसीदास ने अवधी भाषा में ‘रामचरितमानस’ की रचना की, जो उस समय की आम बोलचाल की भाषा थी। इसने न केवल साहित्यिक वर्गों में बल्कि सामान्य जनजीवन में भी गहरा प्रभाव डाला। उनकी भाषा सरल, सुगम और हृदयग्राही थी, जिससे उनका संदेश समाज के हर वर्ग तक पहुंचा। उन्होंने हिंदी भाषा और साहित्य को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाया और इसे जनमानस की भाषा बनाया।

राष्ट्रभक्ति और सामाजिक न्याय का संदेश:

रामराज्य का एक चरित्र न्यारा। जहाँ न काम क्रोध न विषमता बारा।।
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीति।।”
संदर्भ: रामचरितमानस (उत्तर काण्ड, दोहा 26)

इस चौपाई में तुलसीदास ने रामराज्य का आदर्श प्रस्तुत किया है, जहाँ न्याय, समानता, और सामाजिक सद्भाव की स्थापना होती है।

तुलसीदास ने अपनी रचनाओं में राष्ट्रभक्ति और सामाजिक न्याय का संदेश भी दिया। ‘रामराज्य’ का उनका आदर्श समाज में न्याय, शांति और समृद्धि की स्थापना का प्रतीक है। उन्होंने यह दिखाया कि जब शासक धर्म और न्याय के मार्ग पर चलता है, तब समाज में सुख और समृद्धि आती है। यह संदेश आज भी प्रासंगिक है और सामाजिक जागरूकता के लिए प्रेरणा स्रोत है।

गोस्वामी तुलसीदास की कृतियाँ

तुलसीदास ने अपने ११२ वर्ष के दीर्घ जीवन-काल में कालक्रमानुसार निम्नलिखित कालजयी ग्रन्थों की रचनाएँ कीं जो कि निम्नानुसार हैं -गीतावली, कृष्ण-गीतावली, रामचरितमानस, पार्वती-मंगल, विनय-पत्रिका, जानकी-मंगल, रामललानहछू, दोहावली, वैराग्यसंदीपनी, रामाज्ञा-प्रश्न, सतसई, बरवै रामायण, कवितावली, हनुमानबाहुक। परन्तु जनमानस में रामचरितमानस एवं हनुमान चालिसा अधिक लोकप्रिय हैं।

रामचरित मानस का भारतीय जनमानस पर प्रभाव

तुलसीदास की रचनाओं का भारतीय जनमानस पर व्यापक प्रभाव पड़ा। रामचरितमानस का भारतीय जनमानस पर अत्यधिक गहरा और व्यापक प्रभाव पड़ा है। गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित यह महाकाव्य न केवल धार्मिक ग्रंथ के रूप में पूजनीय है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति, समाज और जीवन दर्शन का एक महत्वपूर्ण स्तंभ भी है। इसके प्रभाव को कई पहलुओं में देखा जा सकता है।

“रामचरितमानस” ने भगवान राम को आदर्श पुरुष और मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में प्रस्तुत किया। इससे भारतीय जनमानस में राम के प्रति भक्ति और श्रद्धा की भावना गहरी हुई। इस ग्रंथ ने रामकथा को जन-जन तक पहुँचाया और इसे हर घर में पूजा का एक अनिवार्य अंग बना दिया। तुलसीदास के सरल भाषा में लिखे गए दोहे और चौपाइयाँ लोगों के दिलों में बसीं और धार्मिक कर्मकांडों का हिस्सा बन गईं।

“रामचरितमानस” में राम के आदर्श चरित्र, उनके धर्म पालन, न्यायप्रियता, और सत्यनिष्ठा ने समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना की। राम के जीवन से प्रेरित होकर लोगों ने सत्य, धर्म और कर्तव्यपालन को अपने जीवन में उतारने का प्रयास किया। इसने समाज को नैतिकता और सदाचार के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया।

तुलसीदास ने “रामचरितमानस” में सामाजिक समानता और समरसता का संदेश दिया। भगवान राम का शबरी, केवट, निषादराज जैसे निम्न वर्ग के लोगों से प्रेम और सम्मान का व्यवहार जातिगत भेदभाव को समाप्त करने का संदेश देता है। इससे समाज में समता और भाईचारे की भावना को बढ़ावा मिला।

“रामचरितमानस” को अवधी भाषा में लिखा गया, जो उस समय आम जनमानस की भाषा थी। इससे हिंदी भाषा और साहित्य का विकास हुआ। इस ग्रंथ ने लोक भाषा को साहित्यिक और धार्मिक अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया, जिससे यह जन-जन में लोकप्रिय हुआ। इसने हिंदी साहित्य को एक नई दिशा दी और इसे व्यापक जनसमुदाय तक पहुँचाया।

“रामचरितमानस” ने भारतीय लोक संस्कृति में गहरे तक अपनी जड़ें जमा लीं। रामलीला और रामकथा जैसे सांस्कृतिक कार्यक्रम इसी ग्रंथ पर आधारित हैं और ये भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गए हैं। रामायण की कहानियों ने भारतीय कला, संगीत, नृत्य और नाटक को समृद्ध किया और इसे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई।

“रामचरितमानस” ने भारतीय समाज में राष्ट्रीय चेतना को भी बल दिया। रामराज्य का आदर्श समाज और राज्य की परिकल्पना से लोगों में न्याय, धर्म, और राष्ट्र के प्रति प्रेम की भावना जागृत हुई। इसे एक आदर्श राज्य की अवधारणा के रूप में देखा गया, जहाँ समाज में शांति, समृद्धि, और न्याय की स्थापना होती है।

गोस्वामी तुलसीदास का योगदान सामाजिक जागरण में अद्वितीय और असीमित है। उन्होंने अपने काव्य और साहित्यिक कृतियों के माध्यम से समाज को नई दिशा, नई सोच और नई ऊर्जा दी। तुलसीदास का जीवन और उनकी रचनाएं हमें यह सिखाती हैं कि समाज की उन्नति के लिए नैतिकता, समानता, और न्याय का पालन करना अत्यंत आवश्यक है। उनके विचार और संदेश आज भी हमें सामाजिक बुराइयों से लड़ने और एक आदर्श समाज की स्थापना के लिए प्रेरित करते हैं।

लेखक भारतीय संस्कृति, पुरातत्व एवं पर्यटन के जानकार हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *